पहले कश्मीरी पंडित, जिनकी हत्या के बाद से शुरू हुआ था कश्मीर से हिंदुओं का पलायन
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पहले कश्मीरी पंडित, जिनकी हत्या के बाद से शुरू हुआ था कश्मीर से हिंदुओं का पलायन

पंडित टीका लाल टपलू जनसंघ से जुड़े थे और बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी थे. फिल्म के आने के बाद पंडित टीका लाल टपलू के बेटे आशुतोष टपलू से Zee News के संवाददाता कुमार साहिल ने खास बातचीत की है.  

पहले कश्मीरी पंडित, जिनकी हत्या के बाद से शुरू हुआ था कश्मीर से हिंदुओं का पलायन

नई दिल्ली: 'द कश्मीर फाइल्स' के जरिए घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन का दर्द सबके सामने आया है. ऐसा माना जाता है कि पंडित टीका लाल टपलू (Tika Lal Taploo) की हत्या के बाद घाटी में पंडितों का कत्लेआम और पलायन शुरू हुआ था. पंडित टीका लाल टपलू पेशे से वकील और जनसेवक भी थे, पंडित टीका लाल टपलू जनता के हितों के लिए घाटी में लाला जी के नाम से मशहूर भी थे. 

  1. पंडित टीका लालू टपलू की कहानी
  2. 'ऐसी गोली नहीं बनी जो उन्हें मार सके'
  3. पंडित टपलू के बेटे ने सुनाई दास्तां

भाजपा के सदस्य थे टपलू

पंडित टीका लाल टपलू जनसंघ से जुड़े थे और बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी थे. फिल्म के आने के बाद पंडित टीका लाल टपलू के बेटे आशुतोष टपलू से Zee News के संवाददाता कुमार साहिल ने खास बातचीत की है.  

कैसे हुई थी शुरुआत?

आशुतोष टपलू बताते हैं कि ये बात करीब 1986 के आसपास की है जब कश्मीर में हिंदुओं और खासकर पंडितों के खिलाफ अलिखित षड्यंत्र शुरू हो गया था और यही बात मेरे पिता यानी पंडित टीका लाल टपलू को चुभने लगी थी. कश्मीर में उस वक्त नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी और फारुख अब्दुल्ला CM थे. दिल्ली को कश्मीर के सही हालात नहीं बताए जा रहे थे, दूसरी तरफ कश्मीर में पाक समर्थित आतंकवादियों की तादाद बढ़ती जा रही थी. मुस्लिम युवाओं को पंडितों के खिलाफ उकसाया जा रहा था. इसी संदर्भ में मेरे पिता पंडित टीका लाल टपलू आवाज उठा रहे थे, दिल्ली में कश्मीर की जर्जर हालत को सबके सामने रख रहे थे. लेकिन न तो दिल्ली की सरकार को कोई फर्क पड़ रहा था और ना ही जम्मू-कश्मीर की सरकार को, लेकिन मेरे पिता मानने वाले नहीं थे.

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बेटे ने सुनाई दास्तां

उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थी, हम सब घर वाले परेशान थे, मां भी चिंतित थीं, मैं 20 साल का था लेकिन दुनियादारी की समझ थी. मैंने पिताजी से कहा कि कश्मीर के अलावा हम लोगों की जिम्मेदारियां भी आप पर हैं, इस पर पिताजी ने कहा कि देखो मैं इस लड़ाई से पीछे नहीं हटूंगा. कश्मीर हमारा है, हमारी जन्मभूमि है हम कैसे छोड़ सकते हैं? मेरे परिवार के अलावा घाटी में बहुत सारे परिवारों की उम्मीद मैं हूं. मैं उन्हें निराश नहीं कर सकता. इसलिए तुम अपनी मां के साथ दिल्ली रहो. शायद ये मेरी और पिताजी की अंतिम बातचीत थी और वही हुआ जिसका डर हमें था.

घात लगाए आतंकियों ने की हत्या

13 सितंबर 1989 को पिताजी घर से बाहर कोर्ट जाने के लिए निकले तब बाहर गली में एक बच्ची रो रही थी, पंडित टीका लाल टपलू ने पूछा कि क्यों रो रही हो? उसकी मां ने बताया कि इसे जलसे में जाना है और पैसे मांग रही है तो पंडित टीका लाल टपलू ने कुछ नहीं कहा और 5 रुपये का नोट निकालकर उसके हाथ पर रख दिया और उसके बालों को सहलाया. इसके कुछ देर बाद ही घात लगाए आतंकियों ने पिता की पीठ पर गोलियों की बौछार कर दी, पिता जी वहीं निढाल हो गए. जब हमें जानकारी मिली तो मैं निशब्द था, मां हैरान थी, हम उसी घाटी में पहुंचे, वहां पहुंचते ही हमें अरेस्ट कर लिया गया, कई प्रतिबंध लगा दिए गए.

कोई गोली ऐसी नहीं बनी जो पंडित टपलू के सीने को पार कर सके 

हालांकि ये तो बीती बात हो गई, मैं उनके अंतिम संस्कार में लोगों से मिला, पड़ोसियों से मिला, हिंदुओं के अलावा मुसलमान भी रो रहे थे. वो सबकी मदद करते थे, एक चश्मदीद ने जो बताया उस पर आज भी मुझे फक्र है. जब पिताजी की अंतिम सांसे चल रही थी तो उन्होंने कहा कि तुम लोग कायर हो, पंडित टीका लाल टपलू की पीठ पीछे वार किया, मैं तो हमेशा कहता था कि कोई गोली ऐसी नहीं बनी की पंडित टीका लाल टपलू के सीने को पार कर सके. 

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पंडित टीका लाल टपलू की हत्या के बाद क्या हुआ?

पंडित टीका लाल टपलू की हत्या वो पहली हत्या थी जिससे आतंकी अपने मंसूबे में कामयाब हो रहे थे, उसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा. वहां की सरकार खामोश थी. पंडितों का पलायन हो रहा था, गली, नुक्कड़ों पर पोस्टर चिपकाए गए थे. कहा जा रहा था या तो धर्म बदल लो या घाटी छोड़ दो. पंडितों यहां से भाग जाओ और अपनी औरतों को यहां छोड़ दो. दर्द की एक लंबी कहानी है, 32 साल बीत गए लेकिन हमारी सुध किसी ने नहीं ली, क्यों नहीं ली ये सवाल देश से भी है और देश के हुक्मरानों से भी. 

'फिल्म में उतारा सब सच है'

द कश्मीर फाइल्स फिल्म आई है, सब कुछ दिखाना तो तीन घंटे में मुश्किल था, वहां के अत्याचार को महज 5 फीसदी उतारा गया है लेकिन फिर भी जितना उतारा गया है वो काफी है. मैं फिल्म बनाने वालों को धन्यवाद कहता हूं और देश के तमाम धर्मों के लोग खासकर मुस्लिम समुदाय से अपील करता हूं कि वे इस दर्द को समझें. इस फिल्म को देखें कि किसी समुदाय को घाव देने से, किसी को घर से भगाने का दर्द क्या होता है. किसी पर बेइंतहा जुल्म करने के बाद किसी को क्या मिलता है और इसे वे आगे के लिए सीख के तौर पर लें कि कोई किसी को इतना दर्द न दे.  

- कुमार साहिल

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