गोरखपुर में छिपा है स्वाद का खजाना, 'बुढ़ऊ चाचा की बर्फी' का शहर है दीवाना
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गोरखपुर में छिपा है स्वाद का खजाना, 'बुढ़ऊ चाचा की बर्फी' का शहर है दीवाना

शहरवासियों का मुंह मीठा कराने वाले बुढ़ऊ चाचा की यह दुकान काफी पुरानी है. आजादी के बाद 1968 बुढ़ऊ चाचा यानी तिलक चौधरी ने बर्फी बनाने का काम शुरू किया था. यहां से गुजरने वाला बर्फी खाए बगैर आगे नहीं बढ़ता

Gorakhpur delicious sweet dish

Bhudau chacha Ki Barfi : अगर आप घूमने-फिरने के शौकीन हैं और गोरखपुर में हैं तो यहां का स्वाद जरूर चखें. यहां आने के बाद आपने तीखे-चटपटे और मसालेदार खाने का लुत्फ नहीं लिया तो सफर का मजा किरकिरा हो सकता है. मसाले दार खाने के बाद अगर यहां पर आपने यहां पर अपना मुंह मीठा नहीं किया तो सब बेकार सा लगेगा. जी हां, मुंह मीठा वो भी बुढ़ऊ चाचा की बर्फी से. अगर आपने इसे खा लिया तो सालों तक इसका स्वाद नहीं भूल पाएंगे. 'बरगदवां के बुढ़ऊ चाचा की बर्फी' अपनी गुणवत्ता की वजह से गोरखपुर की पहचान बनी हुई है. 

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1968 से चल रही है दुकान
शहरवासियों का मुंह मीठा कराने वाले बुढ़ऊ चाचा की यह दुकान काफी पुरानी है. आजादी के बाद 1968 बुढ़ऊ चाचा यानी राकेश कुमार चौधरी के ससुर  तिलक चौधरी ने बर्फी बनाने का काम शुरू किया था. जंगल के रहने वाले लुटेरों से रक्षा के लिए दूध बेचते हुए तिलक अक्सर बेटी के घर बरगदवां आ जाया करते थे. बरगदवां इलाके में उन दिनों फर्टिलाइजर की वजह से चाय और बर्फी की बिक्री का काफी स्कोप था, सो वह जब भी आते तो बचे हुए दूध की बर्फी और चाय बनाकर बेचते थे.

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उम्र अधिक होने की वजह से लोग उन्हें बुढ़ऊ चाचा-बुढ़ऊ चाचा कहकर बुलाते
यह काम वह एक झोपड़ी डालकर करते थे, लेकिन उनकी बर्फी शुद्धता की वजह से कोठी-अटारी वाले लोगों के जुबां पर चढऩे लगी. धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि उनके यहां ग्राहकों की कतार लगने लगी. उम्र अधिक होने की वजह से लोग उन्हें बुढ़ऊ चाचा-बुढ़ऊ चाचा कहकर बुलाते और धीरे-धीरे उनकी दुकान इसी नाम से मशहूर हो गई. धीरे-धीरे बढ़ऊ चाचा की बर्फी बिना किसी प्रचार-प्रसार के एक ब्रांड बन गई.

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बर्फी की शुद्धता से नहीं कोई समझौता
बर्फी की अगर शुद्धता की बात होती है तो गोरखपुर के बरगदवां में बनने वाली बढ़ऊ चाचा की बर्फी का नाम खुद-ब-खुद हर किसी की जुबां पर आ ही जाता है. बीते पांच दशक से बर्फी कद्रदानों में अपनी विश्वसनीयता बनाए हुए है. 

बुढऊ चाचा के बाद परिवार ने संभाली जिम्मेदारी
2001 में जब बढ़ऊ चाचा नहीं रहे तो उनके दुकान की कमान दामाद रामप्यारे चौधरी ने संभाली, लेकिन उन्होंने भी अपने ससुर की साख की खातिर बर्फी की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया. जब रामप्यारे भी काफी बूढ़े हो चले हैं तो तिलक चौधरी के नाती इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.

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दूर-दूर से लेने आते हैं लोग
खोवा और खोवे से बनी बर्फी इस दुकान की खासियत है. रोजाना लगभग तीन क्विंटल दूध से खोवा बनाया जाता है और इसे बेचा जाता है. करीब 400 रुपये प्रति किलो मिलने वाली इस मिठाई के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं और मिठाइयां लेकर जाते हैं. यहां से गुजरने वाले हर अधिकारी और नेता भी यहां की बर्फी खाए बगैर आगे नहीं बढ़ते.

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टूरिस्टों का आना-जाना लगा रहता
गोरखपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख शहरों में से एक है. नेपाल बॉर्डर से सटा होने के कारण यहां टूरिस्टों का आना-जाना भी लगा रहता है. यह उत्तर में महाजगंज जिले, आंबेडकरनगर, दक्षिण में आज़मगढ़ और माउ, पूर्व में कुशीनगर और देवरिया और पश्चिम में संत कबीरनगर हैं. यह शहर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा नेपाल के एक बड़े भू भाग से जुड़े लोगों के लिए शिक्षा, व्यापार, रोजगार का प्रमुख केंद्र है.

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