Dussehra 2022: रावण दहन को लेकर उत्तर प्रदेश के सिकंदरबाद शहर में एक अलग ही मान्यता है. यहां रावण, कुम्भकर्ण, एवं मेघनाद के पुतले दशहरे के चौथे यानी चौदस के दिन जलाए जाते हैं. आइए जानते हैं इसके पीछे क्या है मान्यता
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लखनऊ: सिकंदरबाद (Sikandrabad) और उसके आस पास के गांव में रावण को दशहरे के दिन जिंदा माना जाता है. इस अनोखी एवं प्राचीन प्रथा के पीछे एक बहुत ही सुंदर किवदंती है. रावण की अर्धांगनी मंदोदरी असुर राज मयासुर एवं अप्सरा हेमा की पुत्री थीं. मंदोदरी का जन्मस्थान मेरठ माना जाता है. मयासुर एक अत्यंत प्रसिद्ध असुर थे और ज्योतिष एवं वास्तुशास्त्र के ज्ञाता थे. प्रसिद्ध कहानीकार गौरव भटनागर अपनी रचना 'अभी रावण मरा नहीं' में इसके पीछे की मान्यता का उल्लेख करते हुए बताया है कि मंदोदरी के पिता मयासुर के पास मृत शरीर को जीवन देने वाली औषधि थी. यह बात मंदोदरी जानती थीं. राम द्वारा रावण वध के तुरंत बाद वह अपने पति के शरीर को एक विमान में रख कर अपने पिता के घर के लिए निकल पड़ीं.
सिकंदराबाद में हुआ था रावण का दाह संस्कार
लंका से मेरठ आते हुए सिकंदरबाद शहर के ऊपर आ कर व रास्ता भूल गयीं और वहीं पर विमान उतार कर घोर तप करने लगीं. चार दिन बाद जब उनके तप का कोई फल नहीं निकला तब उन्होंने मान लिया की अब रावण को जिंदा नहीं किया जा सकता. तब मृत होने के चार दिन पश्चात रावण के पार्थिव शरीर का दाह संस्कार सिकंदरबाद के किशन तालाब नामक जगह पर हुआ. गौरव भटनागर ने अपनी रचना में इस बात का उल्लेख करते हुए कहा है कि सिकंदरबाद में रावण के पुतले का दहन आज भी दशहरे के चार दिन पश्चात ही किया जाता है. यहां के लोगों के लिए यह प्रथा आज भी विरासत का हिस्सा है.
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बिसरख गांव को बताया जाता है रावण की जन्मस्थली
हालांकि इस प्रथा के पीछे की इस कहानी को अब ज्यादा लोग नहीं जानते. यही नहीं सिकंदरबाद से कुछ दूर बसा बिसरख गांव रावण की जन्मस्थली करार दिया जाता है. इस गांव में दशहरे पर राम और रावण दोनों की ही पूजा होती है, लेकिन पिछले 70 सालों से यहां ना ही रामलीला का मंचन हुआ है और ना ही रावण के पुतले का दहन. गांव के बुजुर्ग बताते हैं की कई साल पहले यहां रामलीला की गयी थी और उसी दौरान एक शख़्स की मृत्यु हो गयी थी. इस अशुभ घटना के बाद बिसरख गांव में रामलीला एवं रावण दहन कभी नहीं किया गया.