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नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के शाहीनबाग इलाके में पसमांदा मुसलमानों (Pasmanda Muslims) के विभिन्न संगठनों ने उनके विकास और उत्थान के लिए एक दिन का राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया. इस सम्मेलन में उपस्थित होने वाले ज्यादातर वक्ताओं ने अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि आजादी के बाद से ही पसमांदा मुसलमानों को उनके अधिकारों से दूर रखा गया है.
पसमांदा, एक फारसी भाषा का शब्द है. जिसका मतलब है वो लोग जो पीछे छूट गए हों. भारत मे पसमांदा, मुस्लिम समाज के उस वर्ग से ताल्लुक रखता है जिनको कि मुस्लिमों का दलित वर्ग भी कहा जाता है. मुस्लिम समाज में जातिगत ढांचे को इतिहासकारों और मुस्लिम जानकारों ने 3 वर्गों में बांटा है. पहला वर्ग अशरफ मुसलमानों का है जिसमें सैयद शेख, मुगल और पठान आदि आते हैं. जिनकी कुल भारतीय मुसलमानों में हिस्सेदारी मात्र 15% है. दूसरा वर्ग अजलफ मुसलमानों का है जिनमें उन जातियों के मुसलमानों को रखा जाता है जो सामाजिक कार्य करते हैं. जैसे बाल काटना, कपड़े धोना, कपड़े सिलना, आदि. तीसरे दर्जे के रूप में रजल मुसलमान हैं, जो उन जनजातियों से आए माने जाते हैं जो दोयम दर्जे या अछूत जातियों में जाने जाते है.
अजलफ और अरजल मुसलमानों की हिस्सेदारी कुल भारतीय समाज मे लगभग 85% है. इसके अलावा राजपूत मुसलमानों का भी एक वर्ग है. इन्हें ही पसमांदा मुसलमान कहा जाता है. इतिहासकार मानते हैं कि भारतीय राजनीति में पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा हमेशा दबा ही रहा. 85% हिस्सेदारी होने के बाबजूद भी आजादी के बाद 14वीं लोकसभा तक चुने गए लगभग 400 मुसलमान सांसदों में पसमांदा मुसलमान सांसद मात्र 60 ही थे.
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इसी मामले पर बोलते हुए पूर्व ISS अधिकारी अनीस अंसारी का कहना था कि देश में 80 से 85% मुसलमान गरीब हैं, बाकी 15% थोड़े सम्पन्न हैं. देश मे शुरू से ही मुसलमानों को उनका अधिकार नहीं मिला, आज अगर मुसलमानों को अपना अधिकार चाहिए तो मुसलमानों को अब राजनीति में उतारना पड़ेगा.
देश को अगर आगे बढ़ाना है तो, अनुसूचित जाति,जनजाति,महिला, मजदूर, मुस्लिम सभी को राजनीति में उतारना चाहिए. बच्चों को शिक्षा और सभी को बराबरी का हक मिलना चाहिए. किसी भी धर्म के लोगों के प्रति नफरत अपने मन में मत रखो. हैरानी की बात है कि हिन्दूओं के अंदर दलितों को दलित समझा जाता है लेकिन मुसलमानों के अंदर मौजूद दलितों को कानूनी तौर पर दलित नहीं माना जाता है.
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