ZEE जानकारी : आखिर क्यों वामपंथी बुद्धिजीवी भारत के विचारकों को कमतर मानते हैं?
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ZEE जानकारी : आखिर क्यों वामपंथी बुद्धिजीवी भारत के विचारकों को कमतर मानते हैं?

क्या आपको ये बात विचित्र नहीं लगती कि लाखों-करोड़ों लोगों का क़त्ल करने वाली Lenin की विचारधारा, बुद्धिजीवियों को बहुत पसंद है. लेकिन यही बुद्धिजीवी, भारत में कश्मीर के संपूर्ण विलय के लिए संघर्ष करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी से नफरत करते हैं.

 ZEE जानकारी : आखिर क्यों वामपंथी बुद्धिजीवी भारत के विचारकों को कमतर मानते हैं?

कल ही हमने आपसे कहा था कि वामपंथी विचारधारा वाले बुद्धिजीवी हमेशा विदेशी विचारकों के मुकाबले, भारत के विद्वानों और विचारकों को कमतर मानते हैं. वो अपने आदर्श, अपने उसूल और अपनी विचारधारा को Russia और China से Import करते हैं . और भारत में जन्म लेने वाले विद्वानों को अपमानित करना अपना परम धर्म समझते हैं . हमारे इस DNA टेस्ट को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि इन बुद्धिजीवियों के समर्पित कार्यकर्ताओँ ने कोलकाता में Doctor श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति को तोड़ दिया और मूर्ति के चेहरे पर कालिख पोत दी . यानी 24 घंटे के अंदर ही बुद्धिजीवियों ने हमारी बात को अपने कारनामों से सही साबित कर दिया . 

ये तस्वीरें पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की है . लेनिन की भक्ति करने वाले ये लोग श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति पर ज़ोर-ज़ोर से हथौड़े चला रहे हैं . ये लोग लेनिन की मूर्ति को तोड़े जाने से दुखी हैं और अपने बुद्धिजीवी आकाओं की तरफ से बदला ले रहे हैं .  आपको याद होगा कल हमने वामपंथी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के दिमाग की Mapping की थी . आज इस घटना के बाद एक बार फिर इन बुद्धिजीवियों की दिमागी संरचना का विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी हो गया है. 

क्या आपको ये बात विचित्र नहीं लगती कि लाखों-करोड़ों लोगों का क़त्ल करने वाली Lenin की विचारधारा, बुद्धिजीवियों को बहुत पसंद है. लेकिन यही बुद्धिजीवी, भारत में कश्मीर के संपूर्ण विलय के लिए संघर्ष करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी से नफरत करते हैं. ये वही विचारधारा है जो तुरंत रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में उतर आती है.. लेकिन कश्मीरी पंडितों का दर्द उसे दिखाई नहीं देता.

कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी हैं जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति तोड़े जाने पर बहुत उत्साहित हैं . अफज़ल प्रेमी गैंग के कुछ वैचारिक रिश्तेदार, Social Media पर इसे Lenin की मूर्ति तोड़े जाने का बदला बता रहे हैं . लेकिन क्या उनके ये विचार सही हैं ? क्या Lenin की तुलना डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी से हो सकती है ? एजेंडा चलाने वाले बुद्धिजीवियों को आईना दिखाने के लिए हमने भारत के संदर्भ में Lenin और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के व्यक्तित्व की तुलना की है. इससे क्या निष्कर्ष निकलता है ये आज पूरे देश को देखना चाहिए.

वामपंथी बुद्धिजीवियों के आदर्श पुरुष Lenin का जन्म Russia में हुआ था. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म भारत के कोलकाता में हुआ था. 

Lenin का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था . लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस के साथ स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनों में शामिल थे . 

तमाम बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद भी ये नहीं बता पाए हैं कि Lenin का भारत के विकास में क्या योगदान है . 

लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी वर्ष 1934 से 1938 तक कोलकाता विश्व विद्यालय के उप-कुलपति रहे . भारत की आज़ादी के बाद वो पंडित जवाहर लाल नेहरू के कैबिनेट में शामिल थे. और उन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपना पूरा योगदान दिया. ये ऐतिहासिक तथ्य हैं . 

Lenin ने भारत के एकीकरण के लिए कभी कोई बलिदान नहीं दिया. उनकी मृत्यु Russia में हुई थी. लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत में कश्मीर के संपूर्ण विलय के लिए संघर्ष किया और कश्मीर में अपने प्राण त्याग दिए . 

वामपंथी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के आदर्श पुरुष Lenin ने अपनी बात मनवाने के लिए तानाशाही की और हिंसा का सहारा लिया . उन्हें हज़ारों-लाखों लोगों की हत्या का गुनहगार माना जाता है. लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अहिंसक आंदोलन किए. लोकतंत्र के मूल्यों में उनका अटूट विश्वास था . 

सीधी सी बात ये है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और Lenin की कोई तुलना नहीं हो सकती है . लेकिन ये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि वामपंथी बुद्धिजीवी Lenin के चरणों में शीश झुकाते हैं और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे भारत के विद्वानों, विचारकों और महापुरुषों को अपमानित करते हैं . और यही आज का फैशन बन गया है.

आपने अक्सर देखा होगा कि अफजल प्रेमी गैंग और बुद्धिजीवियों के एजेंडे में बड़ी समानता है . जब JNU में देश विरोधी नारे लगाए गए तब बुद्धिजीवियों ने कश्मीर में अलगाववादियों का समर्थन किया और सेना पर भी आरोप लगाए . देश ने इस जुगलबंदी को बहुत करीब से देखा है . श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी, भारत में कश्मीर का संपूर्ण विलय चाहते थे . यही वजह है कि बुद्धिजीवी श्यामा प्रसाद मुखर्जी से बहुत नफरत करते हैं . आप कुछ और बातों पर गौर कीजिए . 

बुद्धिजीवियों का प्रिय 'गैंग' ये नारे लगाता है कि 'भारत तेरे टुकड़े होंगे'

लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नारा था कि एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे . 

बुद्धिजीवी कश्मीर को स्वायत्ता दिए जाने का समर्थन करते हैं 

लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश की एकता और अखंडता पर ज़ोर देते थे.

बुद्धिजीवी अलगाववाद का समर्थन करते हैं.

लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते थे . 

वर्ष 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था . क्योंकि वो पंडित नेहरू की कुछ नीतियों से सहमत नहीं थे . कहा जाता है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी आज़ाद भारत के पहले नेता थे जिन्होंने अपने आदर्शों और उसूलों के लिए सरकार से इस्तीफा दे दिया था . अगर वो चाहते तो वर्षों तक देश के बड़े बड़े पदों पर विराजमान होकर सुख और ऐश्वर्य का जीवन जी सकते थे . लेकिन उन्होंने देश की एकता और अखंडता के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया . 

वर्ष 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत में पूर्ण विलय के लिए प्रजा परिषद् आंदोलन का समर्थन किया.  

11 मई 1953 को कश्मीर में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना परमिट के प्रवेश किया . जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया . 

इसके बाद 23 जून 1953 को हिरासत में ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु उस वक्त हुई जब वो भारत में कश्मीर के संपूर्ण विलय के लिए संघर्ष कर रहे थे और जेल में बंद थे . कई बार तो ऐसे दावे भी किए जाते हैं कि कश्मीर को भारत से अलग करने की वकालत करने वाले लोग, उनकी मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार हैं . लेकिन इस सबके बावजूद बुद्धिजीवियों के आदर्श श्यामा प्रसाद मुखर्जी नहीं हैं क्योंकि देश की एकता और अखंडता की बात उन्हें पंसद नहीं आती. 

वास्तविकता ये है कि भारत में कम्यूनिस्ट बुद्धिजीवियों की विचारधारा एक डिज़ाइनर विचारधारा है . इसका डिज़ाइन Russia में तैयार हुआ था . क्योंकि इन बुद्धिजीवियों के पूर्वजों को विदेशों से आयातित हर वस्तु बहुत पसंद थी इसलिए धीरे-धीरे वो अंग्रेज़ों के भी प्रिय बन गए . यही वजह है कि देश के प्रमुख शिक्षण संस्थानों पर और कई दूसरे अहम संस्थानों पर ये बुद्धिजीवी अंग्रेज़ों द्वारा नियुक्त कर दिए गए . और इसका लाभ ये वर्षों तक उठाते रहे. इन लोगों ने भारत के इतिहास में तोड़-फोड़ की और विदेशी हमलावरों और खूनी विचारधाराओं का समर्थन किया . यही बुद्धिजीवियों का परम सत्य है . 

सवाल य़े भी उठता है कि आखिर वो कौन सी सोच है .. जिसकी वजह से हमारे देश में लेनिन, स्टालिन और माओ को महान बताया जाता है.. जबकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोगों को कोई याद तक नहीं करता. क्या ये अंग्रेज़ी और हिंदी का फर्क है? क्या ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारे देश में अंग्रेज़ी को हिंदी से बेहतर माना जाता है और विदेशी को स्वदेशी से बेहतर बताया जाता है? आपने नोट किया होगा कि बुद्धिजीवियों ने अपने बौद्धिक घमंड के पोषण के लिए विदेशी विचारकों और उनकी विचारधारा को प्रणाम किया है. फिर चाहे उस विचारधारा में कितनी भी कमियां क्यों ना हों. वो ये बात भूल जाते हैं कि किसी भी विचारधारा पर आंख बंद करके भरोसा करने से कोई लाभ नहीं होता.. इससे सिर्फ नुकसान ही होता है.

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