ZEE जानकारी: जानिए, कश्मीर में कब इस्लाम की हुई एंट्री
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ZEE जानकारी: जानिए, कश्मीर में कब इस्लाम की हुई एंट्री

1947 में भारत आजाद हो गया था और कायदे से भारत की आज़ादी के साथ ही कश्मीर से जुड़े सारे विवाद भी खत्म हो जाने चाहिए थे. लेकिन उस वक्त के राजनेताओं ने ऐसा होने नहीं दिया. कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र का दर्जा दे दिया गया. और इसे हिंदू-मुस्लिम वोट बैंक की धुरी बना दिया गया.

ZEE जानकारी: जानिए, कश्मीर में कब इस्लाम की हुई एंट्री

इतिहासकारों के मुताबिक करीब 700 वर्ष पहले तक. कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी हिंदू और गैर मुस्लिम थी. कहा जाता है कि भारत में इस्लाम का प्रवेश 12वीं शताब्दी के आसपास हुआ था. जबकि कश्मीर में इस्लाम की एंट्री 14वीं शताब्दी में हुई थी. लेकिन तब कश्मीर में सूफी इस्लाम को मानने वाले ज्यादा थे. इतिहासकार मानते हैं कि 14वीं शताब्दी में कश्मीर में सूफी इस्लाम की परंपरा आगे बढ़ रही थी और तब यहां हिंदू पंडितों की सख्या भी काफी ज्यादा थी. कश्मीर गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल हुआ करता था.

कश्मीर में हिंदू धर्म को मानने वाले और सूफी इस्लाम के अनुयायी मिल-जुलकर रहा करते थे. 19 वीं सदी में जब अंग्रेज़ पहली बार कश्मीर पहुंचे तो वहां हिंदू और मुसलमानों की एकता देखकर दंग रह गए. दोनों धर्मों की संस्कृतियां आपस में इस कदर घुलमिल चुकी थीं, कि बांटों और राज करो की सोच रखने वाले अंग्रेज़ दुविधा में पड़ गए.

इस संस्कृति का अपना विशेष पहनावा और खानपान हुआ करता था. संस्कृतियों के इस महान संगम और इसकी विशेषता को ही कश्मीरियत कहा जाता है. लेकिन पहले अंग्रेज़ों ने और फिर कुछ नेताओं ने इस एकता को धार्मिक आधार पर तोड़ने की कोशिशें शुरू कर दी. इतिहासकार अशोक कुमार पांडे के मुताबिक कश्मीरी पंडित मुसलमानों के मुकाबले ज्यादा पढ़े लिखे हुआ करते थे.

कश्मीरी पंडितों को फारसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था. इसलिए प्रशासनिक पदों पर वो बड़ी संख्या में नियुक्त किए गए थे. तब इन्हें कारकून कहा जाता था. लेकिन अंग्रेज़ों ने जानबूझकर जम्मू-कश्मीर में ऊर्दू भाषा को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. इसे सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया. इसके लिए यूपी और पंजाब से ऊर्दू जानने वाले लोगों को कश्मीर में नौकरियों पर रखा जाने लगा.

इसी दौरान कश्मीर में पहली बार बाहरी लोगों के प्रति नाराज़गी शुरू हुई. और आज़ादी के बाद नेताओं ने इस नाराज़गी को धार्मिक असहनशीलता का रूप देकर हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने का काम शुरू कर दिया. और फिर कश्मीर की फिज़ाओं में पाकिस्तान के इशारे पर कट्टर इस्लाम और आतंकवाद की भी मिलावट शुरू कर दी गई. पाकिस्तान की इस कोशिश को कश्मीर के नेताओं और अलगाववादियों ने भी प्रोत्साहन दिया और जिस कश्मीर में कभी हिंदू बहुसंख्यक हुआ करते थे. वो कश्मीर देखते ही देखते कश्मीरी पंडितों की कब्रगाह बनने लगा.

अपने ही देश में कश्मीरी हिंदुओं को पराया करने के लिए साजिश के तहत काम किया गया. कश्मीर के हिंदू इतिहास को धीरे धीरे पूरी तरह से मिटाया जाने लगा. अब आपको ये जान लेना चाहिए कि कैसे सैंकड़ो वर्ष पहले कश्मीर का इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं था. लेकिन सिर्फ 700 वर्षों में कश्मीर को कट्टर इस्लाम की प्रयोगशाला बना दिया गया.

कश्मीर के राजनीतिक और धार्मिक इतिहास की तह तक जाने की कोशिश कई लेखकों और इतिहासकारों ने की है. लेकिन कश्मीर पर सबसे पुरानी और भरोसेमंद रचना..'राजतरंगिणी' को माना जाता है. जिसे कश्मीर के कवि कल्हण ने लिखा था.माना जाता है कि राजतरंगिणी की रचना वर्ष 1147 से 1149 के बीच की गई थी. इसमें कल्हण लिखते हैं कि कश्मीर घाटी पहले एक विशाल झील थी जिसे कश्यप ऋषि ने बारामुला की पहाड़ियां काटकर ख़ाली किया था.

राजतरंगिणी के अनुसार श्रीनगर शहर को सम्राट अशोक ने बसाया था और यहीं से बौद्ध धर्म पहले कश्मीर घाटी में और फिर मध्य एशिया, तिब्बत और चीन पहुंचा . कल्हण अपनी रचना में भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण और कश्मीर में इस्लाम की शुरुआत का भी उल्लेख करते हैं.

यानी पौराणिक इतिहासकारों से लेकर आधुनिक इतिहासकार तक मानते हैं कि कश्मीर में हिंदू धर्म की जड़ें बहुत गहरी रही हैं. 14वीं शताब्दी में सूफीवाद कश्मीर पहुंचा . शुरुआत में वहां की हिंदू संस्कृति को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया. लेकिन बाद में धीरे धीरे हिंदुओं के धर्मांतरण की शुरुआत हो गई. 7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक कश्मीर पर कई हिंदू राजाओं का शासन रहा.

इसके बाद सुल्तान शमसुद्दीन के वंशजों ने सैंकड़ों वर्षों तक कश्मीर पर राज किया. 18वीं शताब्दी में कश्मीर पर अफगान शासक अहमद शाह दुर्रानी ने कब्ज़ा कर लिया था.वर्ष 1819 में कश्मीर को महाराजा रणजीत सिंह ने जीत लिया और इसे सिख साम्राज्य का हिस्सा बना लिया.

बाद में कश्मीर पर कब्ज़े को लेकर अंग्रेज़ों और सिख राजाओं के बीच युद्ध भी हुए. वर्ष 1846 में कश्मीर पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने इसे 75 लाख रुपये में गुलाब सिंह को बेच दिया जो डोगरा राजवंश के संस्थापक थे. डोगरा राजवंश के ही आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह थे. जिन्होंने 1947 में भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे.

1947 में भारत आजाद हो गया था और कायदे से भारत की आज़ादी के साथ ही कश्मीर से जुड़े सारे विवाद भी खत्म हो जाने चाहिए थे. लेकिन उस वक्त के राजनेताओं ने ऐसा होने नहीं दिया. कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र का दर्जा दे दिया गया. और इसे हिंदू-मुस्लिम वोट बैंक की धुरी बना दिया गया.

घाटी में सिर्फ हिंदुओं को ही नहीं, बल्कि हिंदुओं की धार्मिक पहचान को भी मिटाने की कोशिश हुई. आज से 30 साल पहले, जिस कश्मीर से पंडितों का पलायन शुरू हुआ था, वहां की असली पहचान आतंकवादियों की दहशत और जिहाद का शोर नहीं है. कभी ये कश्मीर मंदिरों, घंटे-घड़ियालों, ऋषि-मुनियों और पुराणों का कश्मीर था. और सब कुछ ठीक रहता तो यही कश्मीर प्राचीन मंदिरों की वजह से दुनिया में हिंदुओं का सबसे बड़ा तीर्थ होता. लेकिन, कश्मीर की तस्वीर में बदलाव भी इस धार्मिक पहचान पर हमले से ही शुरू हुआ.

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