सियासी दांवपेंच में माहिर ममता बनर्जी
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सियासी दांवपेंच में माहिर ममता बनर्जी

ममता दी को जिस तरह बात-बात पर गुस्सा आता है, उस पर चुटकी ली जा रही है कि कहीं उनकी छवि राजनीति में वही तो नही बनती जा रही जैसी कि डौली बिंद्रा ने बिग बास में अपने लिए गढ़ी थी।

 

खुशदीप सहगल

 

ममता दी को जिस तरह बात-बात पर गुस्सा आता है, उस पर चुटकी ली जा रही है कि कहीं उनकी छवि राजनीति में वही तो नही बनती जा रही जैसी कि डौली  बिंद्रा ने बिग बास में अपने लिए गढ़ी थी। ये वही ममता हैं जिनके आदेश पर कोलकाता के हर व्यस्त ट्रैफिक सिग्नल पर गुरुदेव रबींद्र नाथ टैगोर के गीत बजाए जाते हैं। इसी का हवाला देते हुए रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी (कितने घंटे या दिन और रेल मंत्री रहेंगे, उन्हें खुद भी नहीं पता) ने गुरुवार को कहा कि अगर आप टैगोर की सीख को खुद ही अपने पर नहीं अपनाते तो फिर गली चौराहों पर उनके गीत बजाने की तुक क्या है। त्रिवेदी  गुरुदेव की एक कविता का हवाला देकर ये भी जताना नही भूले कि चाहे वो रेल मंत्री की कुर्सी से हट जाएं लेकिन अपना सिर हमेशा उठा कर चल सकेंगे। बैरकपोर से टीएमसी सांसद त्रिवेदी ने टैगोर की जिस कविता के शीर्षक का हवाला दिया, वो कविता पूरी इस प्रकार है।

 

एक ऐसा स्थान,
जहां दिमाग़ में कोई भय नहीं,
जहां सिर ऊंचा रहता है,
जहां ज्ञान पर पहरा नहीं,
जहां दुनिया छोटे टुकड़ों में नहीं बंटी,
संकीर्ण घरेलू दीवारों से...
जहां शब्द सच की गहराई से आते हैं.
जहां अथक प्रयास बांहें फैलाए रहते हैं उत्कृष्टता की ओर,
जहां तर्क की स्वच्छ धारा खो नहीं जाती,
मृत स्वभाव की उदास रेगिस्तानी रेत में,
जहां दिमाग़ बढ़ता है,
खुले विचार, कर्मशीलता से मुक्ति के स्वर्ग की ओर,
परमपिता,
मेरे देश को ऐसा ही स्थान बनाओ....

-नैवेद्य, गीतांजलि
( Where the mind is without fear and head is held high)

 

 

त्रिवेदी ने यही कहना चाहा कि रेल मंत्री के नाते जो उन्होंने देश और रेलवे के लिए उचित समझा, वही किया। बिना दिमाग में किसी भय के सिर को ऊंचा रखे हुए। त्रिवेदी की इस बात से मैं प्रभावित हुआ। मैं नहीं जानता कि त्रिवेदी ने ममता के गुस्से को जानते हुए भी ये आत्मघाती कदम क्यों उठाया। मैं नहीं जानता कि इसके पीछे कोई गेमप्लान है या त्रिवेदी ने स्वत ही ये कदम उठाया लेकिन जिस तरह रेल बजट पेश करने के बाद त्रिवेदी मीडिया से मुखातिब हुए, उनकी बातों और बाडी लैंग्वेज से मुझे सच्चाई झलकती ज़रूर दिखाई दी। वो किसी घाघ राजनेता की तरह शब्दों की बाज़ीगरी करते नहीं दिखे। ऐसा ही लगा कि जो उनके दिल में हैं वही जुबान पर है। त्रिवेदी का ये आचरण लीक से हट कर दिखा जहां सत्ता के लिए साम, दाम, दंड हर तरह के खेल खेले जाते हैं, वहां त्रिवेदी में पद का मोह नहीं दिखा।

 

 

दूसरी तरफ़ कांग्रेस को ही देखिए सत्ता से चिपकी रहने के लिए कभी ममता तो कभी मुलायम, कभी मायावती तो कभी करुणानिधि, सबकी चरणवंदना करने के लिए तैयार है, बस आंकड़ों के खेल में सरकार किसी तरह बची रहे। अरे सत्ता का मोह त्याग कर तो देखिए जनता अब सियासी तिकड़मों या लाग-लपेट को नहीं साफ़-साफ़ सुनना पसंद करती है। प्रधानमंत्री लुंजपुंज रवैया अपना कर कुर्सी पर बने रहने की जगह साफ़-साफ कहें कि देश को विकास की रफ्तार देने के लिए सख्ती से इन- इन कदमों को उठाए जाने की आवश्यकता है। और अगर गठबंधन का दबाव या प्रांतीय क्षत्रपों के संकीर्ण हित ब्रेकरों के ज़रिए इसकी इजाज़त नहीं दे रहे हैं तो सरकार समझौता करने की जगह अपनी बलि चढ़ाने को तैयार है। इस तरह फिर चुनाव में जाकर जनता का सामना करना ज़्यादा अच्छा रहेगा। बजाए इसके कि घुटनों पर घसीटते-घसीटते, कदम-कदम पर समझौता करते किसी तरह पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया जाए। यही उम्मीद करते करते कि शायद अगले दो साल में जनता का गुस्सा सरकार के लिए कम हो जाए।

 

ये सही है कि अगर त्रिवेदी लोकसभा चुनाव जीत कर रेल मंत्री की कुर्सी तक पहुंचे तो ये ममता दीदी की कृपा से ही संभव हो सका लेकिन अगर यही ममता उन्हें देश के रेल मंत्री की जगह सिर्फ अपना हुक्म बजाने वाला प्यादा ही देखना चाहती थीं, तो त्रिवेदी का उनके सामने सिर उठा कर खड़ा होना, खुद में एक दुर्लभ बात है। चाटुकारिता की राजनीति में आज आका अगर घुटने पर चलने का कोई कोई हुक्म देता है तो मातहत निजी स्वार्थ के चलते लोट लगाना शुरू कर देते हैं। त्रिवेदी ने ये जानते हुए भी कि ममता से नाराज़गी मोल लेकर वो रेल मंत्री बने नहीं रह सकते, अपने विवेक के अनुसार फैसला किया। प्रधानमंत्री ने रेल बजट की तारीफ की लेकिन ममता को पलट कर नहीं कह सके कि त्रिवेदी को क्यों और किस बात की सज़ा दी जाए। ऐसा कदम उठाने की जगह सरकार खुद ही जो भी अंजाम हो उसका सामना करने के लिए तैयार है।

 

ममता बनर्जी से बंगाल का एक साल में ही मोहभंग हो रहा है, तो उसके पीछे ज़रूर कुछ ठोस वजहें होंगी। लेफ्ट के तीन दशक से ज्यादा के शासन को उखाड़ कर बंगाल की जनता ने बड़ी उम्मीदों के साथ ममता को राइटर्स बिल्डिंग की कमान सौंपी थी लेकिन ममता का तिलिस्म टूटता नज़र आ रहा है। अगर ममता कोलकाता में बिजली के दाम पंद्रह फीसदी बढ़ा सकती हैं तो फिर रेल किराए बढ़ने पर आम आदमी पर बोझ की दुहाई किस मुंह से देती हैं जैसे बंगाल ने एक साल पहले ममता पर विश्वास जताया था, वैसे ही उम्मीदों के पहाड़ को पूरा किए जाने की अपेक्षा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव से की जा रही है। देखना है अखिलेश कैसे खरा उतरते हैं। राजा भैया को क्लीन चिट देने के लिए अखिलेश ने राजनीतिक आरोपों का गुरुवार को जो तर्क दिया, वो संभावनाओं को जगाने वाला नहीं बल्कि ख़तरे की घंटी बजाने वाला है।

(लेखक ज़ी न्‍यूज में सीनियर प्रोड्यूसर हैं)

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