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प्रवीण कुमार
कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में केंद्रीय जांच ब्यूरो के सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी से केंद्र की संप्रग सरकार बुरी तरह हांफ रही है। अश्विनी कुमार को कानून मंत्री के पद से हटना पड़ा। सीबीआई की जांच रिपोर्ट सरकार से साझा करने पर गलत जानकारी देने के मामले में सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हरेन रावल को इस्तीफा देना पड़ा। अब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तीफा मांग रही है। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का मानना है कि अब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने का कोई तर्क नहीं है। प्रधानमंत्री को बचा रहे कानून मंत्री को पद से हटाने के फैसले के बाद चीजें आगे बढ़नी चाहिए और आगे का रास्ता यही है कि प्रधानमंत्री को अब निश्चित तौर पर इस्तीफा देना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यदि स्वयं ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करें तो उनके पास इस्तीफे के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पीएम का भविष्य बहुत कुछ सुप्रीम कोर्ट में 10 जुलाई को कोलगेट पर होने वाली सुनवाई पर टिका है। कहने का तात्पर्य यह कि पिछले कुछ सालों से खेलगेट, कोलगेट या फिर रेलगेट जैसे मामले उजागर हुए हैं, संप्रग सरकार की शासन व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
दरअसल इस सरकार के भ्रष्टाचार की कई कहानियां हैं, लेकिन हम यहां सिर्फ कोलगेट की ही बात करेंगे और उसमें भी सीबीआई के सुप्रीम कोर्ट में दिए उस हलफनामे की जिससे मनमोहन सरकार हांफती नजर आ रही है। संप्रग सरकार पांचवें साल में प्रवेश करने वाली है और लोकसभा चुनाव सिर पर है इसलिए मुश्किलें कुछ ज्यादा ही हैं। आगे बढ़ने से पहले हमें यहां यह जानना जरूरी होगा कि सीबीआई के इस हलफनामे की चिंगारी उठी कहां से? यह सवाल बेहद अहम है और देश को इसके बारे में जरूर पता होना चाहिए। साल 2003 में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने साल 2012 तक सभी को बिजली देने की मिशन की घोषणा की थी और इसके लिए एक लाख मेगावॉट अतिरिक्त बिजली के उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया। लेकिन जब साल 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सत्ता में आया तो उसे लगा कि कोल इंडिया इतने बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन नहीं कर पाएगी।
योजना आयोग के अनुमान के आधार पर सरकार ने निजी और सरकारी कंपनियों को अधिक कैप्टिव खदान आवंटित करने का निर्णय लिया। अब आप जानना चाहेंगे कि कैप्टिव खदान क्या है? साल 1973 में भारत सरकार ने कोयले के खनन को अपने हाथों में ले लिया था। सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड दुनिया की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी है और भारत में कोयला बेचने की एकमात्र एजेंसी भी। लेकिन साल 1976 में लोहे और इस्पात के निजी उत्पादकों को अपने आंतरिक इस्तेमाल के लिए कोयले की खदान दी जाने लगीं। ऐसी खदानों को ‘कैप्टिव खदान’ कहते हैं और इनका इस्तेमाल केवल और केवल उन्हीं कारखानों के लिए किया जा सकता है जिनके लिए इन्हें आवंटित किया गया हो। साल 2006 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को 75 और सरकारी कंपनियों को 70 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए। ये आवंटन कोयला मंत्रालय ने किए। इस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था और प्रधानमंत्री थे मनमोहन सिंह।
मंत्रालय ने इन आवंटनों के लिए एक स्क्रीनिंग कमेटी बनाई थी। ये कमेटी 1992 में बनाई गई थी और इसमें तीन बार साल 2005, 2006 और 2008 में बदलाव भी किए गए। लेकिन बाद में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी सीएजी ने कहा कि कोल ब्लॉकों को लीज पर दिए जाने में जिन दिशा-निर्देशों का पालन किया गया वो पारदर्शी नहीं थे। वर्ष 2004 में सरकार ने पहले कैप्टिव खदानों की नीलामी का सुझाव दिया। इसमें तर्क ये था कि जिसे भी कैप्टिव खदान मिलेगी उसकी तो चांदी हो जाएगी क्योंकि कोल इंडिया से खरीदने या आयात करने की तुलना में अपनी खदान से कोयला सस्ता पड़ेगा। कहने का तात्पर्य यह कि जिसे भी कैप्टिव खदान मिलती, उसे बाजार से सीधे कोयला खरीदने वाली कंपनी से सस्ता कोयला मिलता। लेकिन आने वाले वर्षों में नीलामी की ये योजना खटाई में पड़ती गई क्योंकि बिजली कंपनियों को इससे कोयले की कीमत बढ़ने का डर सताने लगा।
अक्तूबर 2008 में संसद में कोल ब्लॉक की नीलामी पर एक नया विधेयक पेश किया गया जो सितंबर 2010 में कानून बन गया। साल 2012 में सीएजी ने कहा कि कोल ब्लॉक आवंटित करने में कई स्तरों पर पारदर्शिता लाने की प्रक्रिया में देरी हुई जिससे निजी कंपनियों को 1 लाख 85 हजार 591 करोड़ रुपयों का वित्तीय लाभ हुआ यानी सरकार को चूना लगा। बचाव में सरकार ने कुतर्क देना शुरू किया कि गठबंधन सरकार में नीतिगत फैसले लेने में समय लगता है। सरकार ने ये भी तर्क दिया कि विपक्षी भाजपा जिन राज्यों में सत्ता में है, वहां की सरकारों ने भी नीलामी का विरोध किया था। अंतत: सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, `स्क्रीनिंग कमेटी ने पारदर्शी तरीका नहीं अपनाया।` सबसे अहम बात ये है कि सीएजी के अनुसार कोल ब्लॉकों को आवंटित करने के पीछे 2012 तक सभी को बिजली देने का सपना था और उसे पूरा नहीं किया गया। जिन 86 कोल ब्लॉकों को साल 2010-11 तक उत्पादन शुरू करना था उनमें से सिर्फ 28 ने ही 31 मार्च 2011 तक ऐसा किया। फरवरी 2012 में सरकार ने सीएजी को बताया था कि कोल ब्लॉक को उत्पादन स्तर तक पहुंचने में तीन से सात वर्ष तक का समय लग सकता है।
सीएजी रिपोर्ट को आधार बनाकर विपक्ष ने कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले की जांच की मांग को लेकर संसद ठप कर दिया। सरकार नियंत्रित सीबीआई ने जांच की और फिर जैसा कि अनुमान था, जांच रिपोर्ट में सरकार ने अपने तरीके से दखलंदाजी की। सीबीआई के तत्कालीन उप महानिरीक्षक रविकांत मिश्रा को जांच टीम से हटाकर गुप्तचर ब्यूरो में तबादला कर दिया गया। जब इतनी सारी बातें सामने आईं तो सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से सरकार की दखलंदाजी पर हलफनामा मांग लिया। यह खबर मीडिया में ऐसे वक्त में लीक हुई जब बजट सत्र चल रहा था। कई महत्वपूर्ण वित्तीय विधेयक संसद में पारित होने थे।
अगर सीबीआई के हलफनामे पर गौर किया जाए तो यह अदालत की अवमानना का मामला बनता है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की साफ हिदायत थी कि जांच एजेंसी को सभी तरह के दबावों का मुकाबला करना चाहिए और उसे अपनी जांच रिपोर्ट कानून मंत्री सहित किसी के साथ भी साझा नहीं करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान सरकार और सीबीआई को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सरकारी अधिकारियों के सुझाव पर रिपोर्ट की मूल आत्मा को ही बदल दिया गया। इससे जांच की पूरी दिशा ही बदल गई। सीबीआई जांच रिपोर्ट में केन्द्र के हस्तक्षेप पर चिंता व्यक्त करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि सीबीआई का काम कथित गड़बड़ियों के लिए कोयला मंत्रालय के अधिकारियों से पूछताछ करना है। सीबीआई के साथ विचार-विमर्श करने का उनका कोई सरोकार नहीं है। संयुक्त सचिव सीबीआई की जांच रिपोर्ट का अवलोकन कैसे कर सकते हैं?
अब ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि सीबीआई के हलफनामे से हांफ रही सरकार क्या सीबीआई रूपी तोते को पिंजरे से आजाद कर पाएगी? प्रथम दृष्ट्या तो इसका जवाब ना में ही होगा। देश की कोई भी पार्टी नहीं चाहती है कि सीबीआई को स्वायत्त संस्था का दर्जा दिया जाए क्योंकि सबके दामन दागदार हैं और उसे इस बात से डर लगता है सीबीआई अगर पिंजरे से बाहर आ गई तो उनकी बाकी जिंदगी जेल में ही कटेगी। लेकिन इस सबके बीच सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद सरकार ने सीबीआई रूपी `तोते` को `पिंजड़े` से आजाद करने की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता में जीओएम (मंत्री समूह) का गठन भी कर दिया गया है। यह मंत्री समूह सीबीआई एक्ट (2010) में सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देशों के अनुरूप बदलाव के सुझाव देगा। दरअसल सीबीआई अभी तक 1963 के दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून (डीएसपीईए) के आधार पर काम कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के 1998 के विनीत नारायण फैसले के बाद इसमें कुछ बदलाव किए गए थे। जीओएम सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देशों के अनुरूप इस एक्ट में बदलाव के सुझाव देगा जिसे सरकार 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में पेश करेगी।
बहरहाल, हलफनामे के पीछे की पूरी कहानी आप समझ चुके होंगे। सपना था सबको बिजली देने का, ठीक उसी तरह जिस तरह से कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी सबको भोजन की गारंटी योजना के तहत खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पारित कराना चाहती हैं। लेकिन एक हलफनामे ने संप्रग सरकार का पूरा खेल बिगाड़ दिया है। यह कोई मामूली हलफनामा नहीं है जिसे सत्ता की ताकत से दबा दिया जाए। इस हलफनामे ने पूरे सत्ता तंत्र को हिलाकर रख दिया है। सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी से इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार लोक की कोई बात नहीं कर रही, सिर्फ तंत्र की हनक से लोक को दबाकर रखने की जुगत भिड़ाई जा रही है। हलफनामे से सरकार का हांफना भी स्वभाविक है क्योंकि अगले साल देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। भ्रष्टाचार के मकड़जाल में फंसी कांग्रेस नीत संप्रग सरकार को इस बात का भय सता रहा है कि कहीं उसकी दुर्दशा कर्नाटक में भाजपा सरकार की तरह ना हो जाए। ऊपर से कुछ लोकलुभावन विधेयक मसलन खाद्य सुरक्षा बिल, भूमि अधिग्रहण बिल आदि इस हलफनामे की वजह से संसद में पारित नहीं हो पाए। चुनाव से पहले अगर ये बिल सरकार पारित नहीं करा पाती है जिससे काफी उम्मीदें हैं तो जनता की अदालत का सामना करना संप्रग सरकार के लिए काफी मुश्किल भरा काम होगा।