छोटे भाई ने बड़े भाई को हराया, भतीजे से हार गए अंकल
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छोटे भाई ने बड़े भाई को हराया, भतीजे से हार गए अंकल

कहा जाता है कि सियासत में सब संभव है। यह बात इस बार मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में चरितार्थ होती दिखी, जब छोटे भाई ने वोटों की कड़ी जंग में बड़े भाई को परास्त कर दिया। वहीं चार बार के विधायक चाचा को अपने भतीजे के हाथों हार झेलनी पड़ी।

इंदौर: कहा जाता है कि सियासत में सब संभव है। यह बात इस बार मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में चरितार्थ होती दिखी, जब छोटे भाई ने वोटों की कड़ी जंग में बड़े भाई को परास्त कर दिया। वहीं चार बार के विधायक चाचा को अपने भतीजे के हाथों हार झेलनी पड़ी।
खरगोन जिले के बड़वाह विधानसभा क्षेत्र में त्रिकोणीय संघर्ष की पृष्ठभूमि में दो सगे भाइयों के बीच चुनावी घमासान देखा गया। इस क्षेत्र से भाजपा के निवर्तमान विधायक हितेंद्र सिंह सोलंकी (49) ने सबसे ज्यादा 67,600 वोट हासिल करते हुए न केवल अपनी सीट बचायी, बल्कि चुनावी जीत की हैट्रिक भी लगायी। हितेंद्र ने इस क्षेत्र से वर्ष 2003 और 2008 में लगातार दो बार चुनाव जीता था।
बड़वाह सीट पर इस बार निर्दलीय उम्मीदवार सचिन बिरला (34) भाजपा के निवर्तमान विधायक के निकटतम प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरे। कांग्रेस से टिकट न मिलने पर बगावत की राह पकड़ने वाले बिरला को 61,970 मत मिले।
बड़वाह क्षेत्र के रोचक चुनावी संघर्ष में कांग्रेस के 57 वर्षीय उम्मीदवार राजेंद्र सिंह सोलंकी 14,323 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे। राजेंद्र कोई और नहीं, बल्कि हितेंद्र के बड़े भाई हैं जिन्हें कांग्रेस ने निवर्तमान भाजपा विधायक की चुनावी जीत का सिलसिला रोकने के लिये मैदान में उतारा था। लेकिन वह अपने छोटे भाई से वोटों की जंग हार गये।
बड़वानी विधानसभा सीट से चार बार के भाजपा विधायक प्रेमसिंह पटेल (52) को उनके भतीजे व कांग्रेस उम्मीदवार रमेश पटेल (40) ने 10,527 वोट से परास्त करके भाजपा का किला ढहा दिया। अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित सीट पर रमेश को 77,761 वोट मिले, जबकि प्रेमसिंह को 67,234 मतों से संतोष करना पड़ा। रमेश बड़वानी की जिला पंचायत के अध्यक्ष हैं और उन्होंने विधानसभा चुनावों में पहली बार किस्मत आजमायी।
अपने समर्थकों में ‘महोदय’ के नाम से मशहूर प्रेमसिंह और उनके भतीजे रमेश यहां से करीब 200 किलोमीटर दूर स्थित गांव सुस्तीखेड़ा के मूल निवासी हैं। लेकिन एक ही कुनबे से ताल्लुक रखने वाले इन आदिवासी नेताओं को उनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं ने चुनावी रण में एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा संभालने पर मजबूर कर दिया। (एजेंसी)

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