Mahabharata Story in Hindi: महाभारत युद्ध को धरती के इतिहास की सबस बड़ी जंग कहा जाता है. जिसमें करीब महज 18 दिनों में सवा करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ गई थी. इस भीषण युद्ध में जीत के बाद भी पांडवों को दर-दर क्यों भटकना पड़ा था.
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Why Pandavas feel sad after Mahabharata War: हमारी वैदिक मान्यता में ब्रह्म कहा जाता है, जगत, यानी इस सृष्टि के मूल को. वो मूल जिससे हर चीज उत्पन हुई, जो निराकार है, निर्विकार यानी विना किसी विकार का है. यही मूल इस सृष्टि की प्रकृति है. इसी मान्यता में एक अवस्था पश्चाताप की मानी जाती है. पश्चाताप यानी अपने किसी ऐसे कर्म पर अफसोस, जिससे व्यापक हानि हुई हो. अगर आपके जेहन में पश्चाताप का भाव प्रबल हो, तो ये आपको जगत के मूल, यानी निर्विकार प्रकृति से दोबारा जोड़ देती है. लेकिन कैसे? आज की हमारी स्पेशल रिपोर्ट से समझिए. हमारी ये रिपोर्ट महाभारत काल की एक ऐसी ही उत्तर कथा से जुड़ी है, जब पांडव 18 दिन चले महाभारत युद्ध में मारे गए अपने पुरखों की पिंडदान करने चले. लेकिन ब्रह्मा की नगरी से उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा. क्यों? पढ़िए, ये दिलचस्प रहस्य.
धरती पर सबसे बड़े जनसंहार वाला द्वापर युग का वो महायुद्ध. कहते हैं उस युद्ध की भीषणता ऐसी थी, कि रक्तरंजित धरती पर पराजय और विजय का कोई अर्थ नहीं रह गया था. उस युद्ध में जीत पांडव सेना की हुई थी, जिनके साथ धर्म रक्षा के लिए खुद भगवान कृष्ण खड़े थे. श्रीमदभागवत गीता के चौथे अध्याय में ये कहते हुए युद्ध से घबराए अर्जुन की हिम्मत भी बढ़ाते हैं.
लेकिन 18 दिन तक चले भीषण युद्ध के बाद...?
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
गीता के आखिरी यानी 18वें अध्याय का ये 78वां श्लोक बताता है, कि जहां योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहां वहां निश्चित रूप से ऐश्वर्य, विजय, असाधारण शक्ति और नैतिकता होगी. इस श्लोक के मुताबिक निश्चित ही 18 दिन के महाभारत युद्ध के बाद जीत पांडवों की हुई थी. लेकिन यहं से शुरु होती है एक ऐसी उत्तर कथा, जिसमें पांडवों के मन में पश्चाताप का भाव प्रबल हुआ.
कौरव पक्ष के मारे गए थे 70 लाख
पश्चाताप इसलिए, क्योंकि धर्म और नीति के उस महायुद्ध में जितने लोग मारे गए थे, उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी.
18 दिन के ‘महायुद्ध’ में कौरव पक्ष से 70 लाख लोग मारे गए. जबकि पांडवों की तरफ से 44 लाख की मौत हुई थी. महाभारत युद्ध में मारे गए ये संख्या सिर्फ सैनिकों और कौरव पांडव के सगे संबंधियों के हैं. इनके अलावा युद्ध से जुड़े लाखों लोग और भी उस महाविनाश की बलि चढ़े. वो एक अलग कथा है.
हमारी स्पेशल रिपोर्ट युद्ध के बाद पांडवों के पश्चाताप से जुड़ी है, जिसके लिए वो ब्रह्मा की नगरी पुष्कर आए थे. यहां वो जगहें आज भी पांचों पांडवों के नाम से दर्ज हैं, जहां ब्रह्म सरोवर के किनारे अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया. पुराणों के मुताबिक, धरती पर ये नगर वो जगह है, जहां सृष्टि के निर्माण के बाद भगवान ब्रह्मा ने यज्ञ किया था. पुष्कर में पुष्प सरोवर के साथ धरती पर नागलोक के स्वागत के लिए एक पहाड़ी भी बनाई थी.
नागपहाड़ी के साथ पुष्कर नगर के 52 घाट वाले बड़े सरोवर और तमाम दूसरे तलाबों को क्षीर सागर का अंश माना जाता है.
वैदिक ग्रंथों में क्षीर सागर उसी टेथिस ओसेन का हिस्सा है, जिस पर आज के हिमालय का जन्म हुआ. वो हिमालय, जहां भगवान शिव का धाम कैलाश पर्वत है. वो हिमालय, जिसके गोमुख से गंगा निकलती है.
पांडवों ने पुष्कर में क्यों की थी तपस्या?
एक गोमुख पुष्कर में भी है, जहां से पानी की एक धार हमेशा बहती है. इसे भी गोमुख का नाम दिया गया है. मान्यता है कि ये जल उसी वैदिक क्षीर सागर का अंश है. पुष्कर के बारे में जो स्कंदपुराण बताता है, उसके मुताबिक कुरुक्षेत्र में युद्ध खत्म होने के लिए जब ऋषि मुनियों ने प्रायश्चित की सलाह दी, तो उन्होंने पुष्कर की पुण्य धरती का रुख किया.
नाग पहाड़ी पर पांचों पांडव आए थे और तपस्या की थी...अलग अलग कुंड बने हुए हैं. नागकुंड जहां युधिष्ठिर ने तपस्या की थी. युद्धिष्ठिर का नागकुंड, भीम का सूर्य कुंड, अर्जुन का गंगा कुंड, नकुल-सहदेव का पद्म और चक्र कुंड. पांचों पांडव यहां आए थे, युद्ध में जो भी ज्ञात अज्ञा मारे गए थे, उनके पिंडदान के लिए और सोमवती अमावस्या का इंतजार किया.
पांडव यहां अपने पितरों का पिंडदान करने आए थे, इसके लिए शुभ मुहुर्त का इंतजार किया, लेकिन इस दौरान कुछ ऐसा रहस्यमयी हुआ कि उन्हें पुष्कर से जाना पड़ा.
कुल के नाश से पीड़ा में थे पांडव
ये पूरी पौराणिक मान्यता महाभारत युद्ध के बाद पांडवों की स्वर्गारोहण यात्रा के दौरान की है. महाभारत में जो इसकी कथा मिलती है, उसके मुताबिक युद्ध में जीत के बाद पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युद्धिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बना दिया गया. लेकिन जिस राज के लिए इतना खून बहा, पूरे कुल का नाश हो गया, इसकी पीड़ा उन्हें आहत कर रही थी. इसी पीड़ा के साथ शुरू होता है प्रायश्चित और पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान का सिलसिला. पांडवों को इस प्रायश्चित की जल्दी इसलिए भी थी, क्योंकि द्वापर युग खत्म होने वाला था और कलियुग की शुरुआत होने वाली थी.
द्वापर युग में जिस कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध होने का जिक्र मिलता है, वो जगह आज हरियाणा में है. यहां उस भीषण युद्ध की निशानियां मिलती हैं. खासतौर पर लाल मिट्टी, जिसे महाभारत काल के युद्धाओं के खून से रक्तरंजित माना जाता है. इस मान्यता के साथ कुछ महाभारत युद्ध के काल पर कुछ रिसर्च भी हुए हैं, जिससे पता चलता है, वो महायुद्ध युग द्वापर युग और कलियुग के संधि काल के दौरान हुआ था.
कलियुग शुरू होने के 6 महीने पहले हुआ था महाभारत युद्ध?
महाभारत काल के बाद के ग्रंथो में जो शोध मिलता है, उसमें अहम है महान गणितज्ञ आर्यभट्ट. दुनिया को शून्य की अवधारणा समझाने वाली आर्यभट की मशहूर किताब आर्यभट्टम के अनुसार, कलयुग की शुरुआत 3102 ईसा पूर्व है. कलियुग 3102 ईसा पूर्व की 18 फरवरी से शुरु हुआ था यानी 2024 तक कलियुग के 5122 साल बीत गए.
इस गणना के तहत महाभारत का युद्ध काल शक संवत 3176 ईसा पूर्व है. महाभारत युद्ध कलियुग के आरंभ से 6 महीने पहले शुरू हुआ था. यानी महाभारत युद्ध में महाविनाश के बाद कलियुग की आहट साफ सुनाई दे रही थी. इसकी भविष्यवाणी भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध के दौरान गीता के उपदेश के दौरान ही कर दी थी.
महाभारत काल पर हुए शोधों के मुताबिक कलियुग की आहट की वजह से पांडव व्याकुल थे. वो चाहते थे, कि युद्ध में जो हुआ, उसका प्रायश्चित जल्दी हो जाए. जो लोग मारे गए, उनकी आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान कलियुग आने से पहले ही हो जाए. तब कुरुक्षेत्र में ही भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें एक और सलाह दी.
सोमवती अमावस्या को पांडवों का श्राप
कुरुक्षेत्र में में मारे गए योद्धाओं को भगवान श्रीकृष्ण ने स्वमुक्ति का वरदान दिया, लेकिन पितृ कुल हत्या का दोष अब भी पांडवों के सिर था. इसी दोष के निवारण के लिए वो कुरुक्षेत्र से पुष्कर की तरफ बढ़े. ऐसी मान्यता है. इस दौरान प्रायश्चित यात्रा के दौरान पाडवों को भीष्म पितामह की कही एक बात याद आई.
महाभारत की कथा के मुताबिक बाण शैय्या पर पड़े भीष्म ने युधिष्ठिर को कहा था कि सोमवती अमावस्या के दिन अनुष्ठान से पितरों की आत्माओं को शांति मिलती है. पुष्कर आने के बाद पांडवों ने कुंड बनाकर पिंडदान की शुरुआत की, लेकिन सोमवार और अमावस्या का संयोग उस साल बना ही नहीं. इसलिए पिंडदान का उनका अनुष्ठान सफल नहीं हुआ, ऐसा पुष्कर के धर्माचार्य बताते हैं.
इंतजार के बाद जब पांडवों को लगा कि इस तरह तो उन्हें कलियुग में भी रहना पड़ेगा. तब सोमवती को श्राप दिया. यहां से सीधा हिमालय गमन किया. पुष्कर के धर्माचार्य ये भी कहते हैं, कि पांडवों के रहते सोमवती आमवस्या का नहीं होना एक दैवीय संयोग था. इसके पीछे पाप, पुण्य और प्रायश्चित के कई मिथकीय कहानियां बताई जाती हैं. इनका कोई लिखित इतिहास नहीं है.
हिमालय की ओर बढ़ गए थे पांडव
जहां तक सोमवती आमवस्या का सवाल है, जिसके शुभ मुहुर्त में पांडवों को पिंडदान करना था, उसकी ज्योतीषिय गणना जरूर है. इसके मुताबिक सोमवार भगवान शिव का दिन है. इस दिन अमावस्या का संयोग साल में ज्यादा से ज्यादा दो बार बनता है. ये संयोग जब कलियुग की दस्तक तक नहीं बना, तो पांडव उत्तर की दिशा में हिमालय की तरफ बढ़ गए. लेकिन उनके पीछे पुष्कर में जो कुंड रह गया था, उसमें उनकी तप शक्ति बनी रही. ये यहां के पुजारी बताते हैं.
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. ZEE NEWS इसकी पुष्टि नहीं करता है.)