तेजस्वी यादव ने एनडीए से नाराज़ रालोसपा (RLSP) को न्योता देकर अपने महागठबंधन में कांग्रेस और जीतन राम मांझी के कुछ हलकों में खलबली मचा दी है.
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कर्नाटक में कांग्रेस ने जनता दल (सेक्युलर) के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर देश के सामने 2019 के लिए बीजेपी का विकल्प पेश किया है. ऐसे प्रयोग 90 के दशक में हो चुके हैं. उस दौर में एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल ऐसी ही साझा मोर्चा सरकारों के कारण देश के प्रधानमंत्री रहे. इन सरकारों को कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, पर कांग्रेस इनका हिस्सा नहीं थी. उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में चुनावों के बाद जेडीएस तीसरे पायदान पर थी. चुनाव के बाद की उथल-पुथल में कांग्रेस ने अपने से लगभग आधी सीटें जीतने वाली पार्टी से मुख्यमंत्री बनाये जाने की बात रखकर न सिर्फ राज्य में सरकार पर अपनी पकड़ बनाये रखी, बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी के पांवों के नीचे की राजनीतिक ज़मीन भी खिसका दी.
विपक्ष के बदलते तेवर
उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के उपचुनावों में हार के बाद विपक्ष के तेवर अब बदले हुए नज़र आने लगे हैं. विपक्षी दलों में गठबंधन के हिमायती रातोंरात जाग उठे हैं. आंकड़ों का हवाला देकर कहा जा रहा है कि विपक्षी एकजुटता बीजेपी को हराने का फॉर्मूला है. किसी भी चैनेल में शाम की डिबेट देखिए तो कैराना उपचुनाव की मिसाल दी जाएगी जहां मतभेद भूल सपा-बसपा-कांग्रेस सब ने बीजेपी के खिलाफ मुकाबले में अजित सिंह के लोक दल की उम्मीदवार का समर्थन किया. इसी संदर्भ में अंतिम मुगलिया बादशाह बहादुर शाह जफर (1775-1862) के शेर पर गौर फरमाइए:
ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से,
दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई.
यहीं से बड़ा सवाल उठता है कि क्या इक्के-दुक्के सीटों पर विपक्ष के हालिया इन समझौतों से 2019 में बीजेपी से लोहा लेने के लिए एक महागठबंधन की रूपरेखा बन पाएगी?
हुनोज़ दिल्ली दूर अस्त... (अभी दिल्ली दूर है)
इस संदर्भ में बिहार की मिसाल दी जा सकती है जहां से इस देश को 40 सांसद मिलते हैं और यहां की राजनीतिक समझ काफी परिपक्व मानी जाती है. विपक्ष की तरफ से तेजस्वी यादव ने एनडीए से नाराज़ रालोसपा (RLSP) को न्योता देकर अपने महागठबंधन में कांग्रेस और जीतन राम मांझी के कुछ हलकों में खलबली मचा दी है. सब इसी में लगे हैं कि कौन कितनी और किन सीटों पर उम्मीदवार खड़े करेगा. जीतन राम मांझी की पार्टी हम (HAM) को कैसे एडजस्ट किया जाए, इस पर गणित पहले ही गड़बड़ा गई है. 2014 में RJD 27 और कांग्रेस 12 सीटों पर लड़ी थी. ऐसे में जब दिल्ली में दोनों ही अपना पांव मज़बूत करने में लगे हुए हों, तो सवाल उठता है कि इन पार्टनर्स के लिए काट-छांट कौन करे?
डियर जिंदगी : किससे हार रहे हैं अरबपति 'मन'
ऐसा नहीं है कि केवल विपक्षी खेमे में ही खींचतान है, सत्तारूढ़ एनडीए के खेमे में भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी सहयोगी बीजेपी को आंख दिखा रही है. 40 में 25 सीटों की मांग रखकर जेडीयू ने भाजपा को पसोपेश में डाल दिया है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से एनडीए को 31 सीटें मिली थी और जेडीयू को सिर्फ दो. NDA की इन 31 सीटों में राम विलास पासवान की लोजपा के 6 और RSLP के 3 सदस्य शामिल हैं. ऐसे में जदयू अपने विधान सभा के प्रदर्शन का सहारा लेते हुए खुद को बिहार की गठबंधन सरकार में 'बड़े भाई' की भूमिका में मान रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में आरजेडी को 81 सीटें, जेडीयू को 70 सीटें और बीजेपी को 53 सीटें मिली... पर वो चुनाव नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने मिलकर लड़ा था.
जेडीयू के इस वर्चस्व को मनवाने की मुहिम से एनडीए में अंतर्कलह शुरू हो गया है और उपेन्द्र कुशवाहा (RSLP) जैसे पार्टनर खासे नाराज़ हैं. ऐसे में चुनाव से पहले 2019 के समीकरण क्या होंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन, इतना तय मानिए कि दोनों खेमों में नए चेहरे नज़र आएंगे और इस देश में गठबंधन का 'केमिकल' और ज़्यादा लोचा होगा.
(लेखक ज़ी मीडिया में डिज़िटल ग्रुप एडिटर हैं)