Opinion: सिंधु की हार, हार नहीं होती...
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Opinion: सिंधु की हार, हार नहीं होती...

एशियाड के बैडमिंटन फाइनल में एक बार फिर पीवी सिंधु हार गईं. इससे पहले उनकी सबसे मशहूर हार ओलंपिक के फाइनल में हुई थी. दोनों ही बार वे दुनिया की एक नंबर खिलाड़ी से हारीं.

पीवी सिंधु ने एशियाई खेलों में जीता सिल्वर मेडल  (PIC : PTI)

एशियाड के बैडमिंटन फाइनल में एक बार फिर पीवी सिंधु हार गईं. इससे पहले उनकी सबसे मशहूर हार ओलंपिक के फाइनल में हुई थी. दोनों ही बार वे दुनिया की एक नंबर खिलाड़ी से हारीं.

तो क्या यहां हम हार का महिमा मंडन करने जा रहे हैं, कतई नहीं. हार की तकलीफ होनी चाहिए, उसका मलाल भी होना चाहिए, तभी तो उसका कोई सबक हो पाएगा.

यहां असल में हार नहीं, उस ट्रेंड की बात कर रहे हैं, जो सिंधु पैदा कर रही हैं. जब वे ओलंपिक के फाइनल में पहुंची थीं, तब उन्हें चुनिंदा खेल पत्रकार और विशिष्ट खेल प्रेमी ही जानते थे. हम जैसे अनाड़ी लोगों को उनके बारे में तब पता चला, जब वे ओलंपिक का क्वार्टर फाइनल जीत गईं.

उसके बाद हमने उनके मैच देखे. लेकिन उससे बड़ी बात मैंने यह देखी कि घर में मेरी सात साल की बेटी भी उनका मैच देख रही थी. और अभी जब वे एशियाड के फाइनल में पहुंची तो उसने इस बात पर रंज का इजहार किया कि मैच उस समय हो रहे हैं, जब वह स्कूल में होती है.

वह और उसके दोस्त पीवी सिंधु का नाम लेते हैं. उसमें वह एक शख्सियत देखती है. हो सकता है आगे चलकर सिंधु उनके लिए मिथकनारी बन जाएं, ठीक वैसे ही जैसे हमारे बचपन में पीटी उषा की कहानियां सुनाई जाती थीं.

मैंने पीटी उषा को दौड़ते नहीं देखा, लेकिन उनकी हार की कहानी को जिस शिद्दत से सुनाया जाता था, वह युद्ध के मैदान में रानी लक्ष्मीबाई की शहादत से कम नहीं थी.

ये कहानियां बहुत जरूरी हैं. क्योंकि इस एशियाड में हमने कई गोल्ड और बहुत से सिल्वर जीते हैं. लेकिन सबकी कहानियां नहीं बन रही हैं, सबके पीछे दिलचस्पी पैदा नहीं हो रही है.

कोई खेल तभी आगे बढ़ता है जब उसका कोई खिलाड़ी आइकन बनता है. हममें से किसी ने मेजर ध्यानचंद को खेलते नहीं देखा, लेकिन उनके किस्से सुने हैं. इसीलिए हॉकी लंबे समय तक देश पर छायी रही, जब उसके किस्से खत्म हो गए तो हॉकी भी अपना जलवा खो बैठी. अब उसकी हार और जीत सार्वजनिक बहस खड़ी नहीं कर पाती.

हॉकी के बाद क्रिकेट ने यही किया. कपिल देव के 175 रन और सचिन तेंदुलकर की विद्रोही पारियां किसी महाकाव्य की तरह हमारे जीवन का हिस्सा बनीं.

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जब सिंधु फाइनल तक पहुंचती हैं तो उन पर चर्चा होती है. उनके अनुशासन और एकनिष्ठता के किस्से सुनाए जाते हैं. उनके मिथक के साथ उनके कोच पुलेला गोपीचंद की बात की जाती है. फिर याद किया जाता है कि ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतने वाले पुलेला कैसे भारत में बैडमिंटन की एक नई पौध खड़ी कर रहे हैं.

यह सब बहुत अच्छा है. जैसे हमारे बचपन में हमें पीटी उषा की मेडलविहीन हार भी उत्साहित करती थी, वैसे ही हमारी नई पीढ़ी को सिंधु की स्वर्णविहीन हार उत्साहित करेगी. सिंधु के चेहरे और हाथों में चांदी की चमक है. चांदी की यही चमक आने वाली पीढ़ी में सोने की ललक पैदा करेगी.

क्योंकि वे खिलाड़ी सोना जीतने के बाद भी सोने की ललक पैदा नहीं कर पाते जो लगातार बड़े मैदान में अपने प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाते. सिंधु खुद को दोहरा रही हैं. उनके प्रदर्शन में स्थायित्व है. एक ऐसा स्थायित्व जो उन्हें देश का हीरो बना रहा है. इसीलिए दिल कहता है, सिंधु की हार, हार नहीं होती...

(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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