सच तो यही है कि बहुत सारे अप्रवासियों का जिंदगी भर का सपना होता है अमेरिकी नागरिकता पाना. कुछ कामयाब हो जाते हैं और कुछ नहीं भी हो पाते.
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका में अप्रवासियों के प्रवेश को सीमित करने के हालिया फैसले के चलते कई देशों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जो चिंता का विषय हैं.
अनुमान है कि अमेरिका में 1 मिलियन विदेशी छात्र पढ़ रहे हैं. कोरोना महामारी शुरू होने के बाद काफी छात्र अपने देश लौट गए हैं जबकि बहुत से वहीं रहकर ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं. ट्रंप का ये तर्क कि ऑनलाइन कोर्स करने वाले छात्रों का अमेरिका में रहना जरूरी नहीं है, तार्किक रूप से तो सही है लेकिन अप्रवासियों को पसंद नहीं आ रहा है.
एक संपन्न देश के तौर पर अमेरिका सभी को कई तरह से बढ़ने के मौके उपलब्ध करवाता है. बिजनेस या व्यापार के पहलू से भी. दुनिया भर के बहुत से देश खासतौर पर भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों के लोग अमेरिका जाना चाहते हैं और अगर मुमकिन हो तो वहां का नागरिक बनना भी.
सच तो यही है कि बहुत सारे अप्रवासियों का जिंदगी भर का सपना होता है अमेरिकी नागरिकता पाना. कुछ कामयाब हो जाते हैं और कुछ नहीं भी हो पाते. अमेरिका के बाहर रह रहे लोगों को भी लगता है कि अप्रवासियों को अमेरिका की नागरिकता मिलना एक विशेषाधिकार पाने जैसा है.
अमेरिका में रह रहे अप्रवासी तर्क देते हैं कि अमेरिका आवश्यक रूप से अप्रवासियों का देश है. दुनिया भर के अप्रवासियों ने इसकी समृद्धि और विकास में अपना योगदान दिया है. इसीलिए वो तर्क देते हैं कि अमेरिकी सरकार का अप्रवासियों के आने को सीमित करना नैतिक रूप से गलत है. सच ये है कि अमेरिकी सरकार और अमेरिकी नागरिक, दोनों का अप्रवासियों के प्रति बेहद उदार रवैया रहा है, और वो अप्रवासियों का स्वागत करते रहे हैं और उनसे अपनों की तरह ही व्यवहार करते रहे हैं.
हाल ही में एक गोरे पुलिस वाले के हाथों अश्वेत जॉर्ज फ्लॉएड की हत्या के बाद ये बहस फिर से शुरू हो गई कि अमेरिका किसका है? वो भी ऐसे परिदृश्य में जबकि अमेरिका में हर कोई अप्रवासी है. कुछ लोग कुछ साल पहले आए हैं, कुछ लोग कुछ दशक पहले और कुछ लोग शताब्दियों पहले.
वहां अफ्रीकन अमेरिकी हैं, भारतीय अमेरिकी हैं, चीनी अमेरिकी हैं और इन सभी नस्लों के तमाम नागरिक अमेरिका में प्रधान पदों पर बैठे हुए हैं. न केवल सरकार में बल्कि बड़े बिजनेस उपक्रमों में भी. इस विविधता भरी पृष्ठभूमि के लिहाज से अमेरिका में सभी धर्मों के धार्मिक स्थल हैं.
हालिया शुरू हुआ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन इस विवादित सवाल के इर्द-गिर्द घूमता दिखता है कि अमेरिका अश्वेतों का है या गोरों का और क्या गोरे अश्वेतों के कानूनी अधिकारों को देने से भी मना कर रहे हैं? जबकि दोनों ही अमेरिका के नागरिक हैं.
ये एक ऐतिहासिक मुद्दा और कभी ना खत्म होने वाली अंतहीन बहस है. अमेरिका की जमीनी सच्चाई ये है कि ये देश किसी एक अकेली नस्ल वालों का देश नहीं है, बल्कि उन सभी अलग-अलग नस्लों का है, जो पिछली कुछ शताब्दियों में अमेरिका में अप्रवासी के तौर पर आए और यहां के मूलवासी बन गए.
जो विवाद बनाया जा रहा है कि अमेरिका अश्वेतों का है या गोरों का और अमेरिका में अश्वेत-श्वेत विवाद है भी, ये किसी की जानबूझकर की गई शरारत है. एक सच जो इस शरारत पूर्ण अभियान को गलत ठहराता है वो ये कि एक अश्वेत इस देश का प्रेसीडेंट बन सकता है, वो भी लगातार दो-दो बार और अमेरिका के सभी समाजों में पुरुषों और महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय भी है.
ये जानना खास तौर पर दिलचस्प होगा कि ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन में ना केवल अश्वेत शामिल हैं, बल्कि श्वेत भी शामिल हैं और उसी तरह अमेरिका के तमाम अश्वेत और गोरे ये भी सोचते हैं कि ये विरोध का आंदोलन सच्चाई से परे है. वो इसे बेकार का मानकर इस विरोध से खुद को दूर रखे हुए हैं. अगर किसी गोरे पुलिस वाले ने किसी अश्वेत की हत्या कर दी है, तो ऐसी तमाम घटनाएं भी हुई हैं, जहां अश्वेतों ने गोरों की हत्या की है. तब क्यों ऐसा कोई आंदोलन शुरू किया गया था. जिसका नाम रखते, ‘व्हाइट लाइव मैटर्स’.
जबकि पूरे 8 साल तक अश्वेत बराक ओबामा अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे हैं, तो वो क्यों अश्वेतों के साथ ये तथाकथित भेदभाव रोक नहीं पाए? क्यों कोई ओबामा पर इस मौके को खराब करने का आरोप नहीं लगा रहा है? प्रेसीडेंट ट्रंप पर आरोप लगाए जा रहे हैं और अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए विरोध प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे हैं, जोकि लगता है कि आने वाले चुनावों में प्रेसीडेंट ट्रंप को उनकी कुर्सी से हटाने के अभियान के लिए किया जा रहा है.
अमेरिका में इतनी उथल-पुथल नहीं थी, जैसी कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले कुछ लोगों द्वारा ट्रंप विरोधी भावनाओं के साथ बना दी गई है. हर समाज के लोग दशकों से अमेरिका में आपसी समझदारी और दोस्ती की भावना के साथ रहते आ रहे हैं, वो आगे भी ऐसे ही रहेंगे.
दुनिया के हर देश में कोई ना कोई वर्ग, जाति, रंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाता ही है. अमेरिका में भी ऐसी शिकायतें आती रही हैं. जोकि असामान्य बात नहीं है और ट्रंप को किसी भी सूरत में चल रही ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
ऐसा लग रहा है कि आने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के खत्म होते ही 'ब्लैक लाइव्स मैटर' वाला आंदोलन भी खत्म हो जाएगा और ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति चुने जाते हैं या नहीं भी, तो भी ये आंदोलन एक नॉन-इश्यू हो जाएगा क्योंकि यह अवास्तविक और अतिरंजित मुद्दा है.
(लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)