पहली सी सूरत माने! क्‍या सूरत बदलती रहती है. और जो चीज़ बदलती रहती है, वह पहले जैसे कैसे हो सकती है. जीवन का सारा सौंदर्य इस पहले, बदलते और अब की सूरत के बीच ही तो है. हम अक्‍सर यादों के पिटारे से यही तो बातें करते रहते हैं कि ‘वह’ कितना बदल गया! पहले क्‍या था, अब क्‍या हो गया!


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जिसने महेश भट्ट की लोकप्रिय फिल्‍म ‘डैडी’ देखी है, उनको यह गीत ‘आईना, मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे...’ जरूर याद होगा. लेकिन जिन्‍होंने नहीं देखी उनके लिए भी कोई मुश्किल नहीं.


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हमें अपना अतीत अक्‍सर प्रिय लगता है. अपने जिए का वह हिस्‍सा जिसमें हम ‘पके’ नहीं थे, कुछ बनने के लिए निकले ही थे, अक्‍सर बहुत प्रिय होता है. संघर्ष की घनी रातें, चांदनी रातों से कहीं अधिक उजाला करती हैं. बस उनकी खिड़की खुली रखने की जरूरत होती है.


यह खिड़की बंद जिंदगी की भागमभाग में अहिस्‍ता-आहिस्‍ता बंद हो जाती है. इस रोशनदान का बंद होना जिंदगी के ‘डियर’ होने में बड़ी बाधा है. हम दो कदम आगे बढ़ते हैं, तो पीछे के उजालों को भूलने लगते हैं. यह पीछे छूटते उजाले धीरे-धीरे हमारी सूरत बदलने लगते हैं. एक दिन होता यह है कि आईना, हमारी हमारी शक्‍ल भूलने लगता है. पहली सी सूरत मांगने लगता है!


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और हम आईने से कहते हैं कि यह क्‍या बचपना है! अब वह सूरत कहां से लाएं. जिसने मुझे मेरे ‘होने’ से मिलाया था. हमारे भीतर के वह सब अहसास, कोमल भावनाएं, परिवार का ख्‍याल, छोटी-छोटी खुशियों पर ‘मर’ मिटने की अदा, हम सबकुछ उस ‘थोड़े’ पर कुर्बान कर रहे हैं, जिसे कामयाबी कहा जाता है.


‘आईना, मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे...’ के बहाने ‘कवि’ यही तो कहना चाहता है कि वैसे हो जाओ, उस अदा को फिर पा लो, जिस पर तुम खुद फिदा थे. जीवन का कैसा मोड़ है कि मुझमें जो मुझे प्रिय था, वही मुझसे छूट गया.


हम खुद को दूसरों, दुनिया के लिए बदलते-बदलते इतने दूर निकल जाते हैं कि खुद अपनी ही रेंज से बाहर हो जाते हैं.


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रिश्‍तों में तनाव, उदासी हमें वहीं तो पकड़ती है, जब हम खुद से दूर निकल जाते हैं. आईना, जब आपको पहचानने से इनकार करने लगे तो इससे बड़ा, शक्तिशाली संदेश दूसरा नहीं हो सकता.


लेकिन क्‍या हमें इतनी फुर्सत है! कुछ पाठक कह सकते हैं कि सांस लेने का वक्‍त नहीं. इतना समय ही कहां मिलता है.


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ऐसे सवाल के लिए बस यही कहा जा सकता है कि आप कितने ही व्‍यस्‍त रहते हों, लेकिन आपके पास फिर भी गुस्‍से, दूसरों को कोसने\निंदा रस में घुलने के लिए वक्‍त होता ही है! तो फिर अपनी ही सूरत के नजदीक जाने, खुद को संवारने, आत्‍मा पर जमे मैल को साफ करने के लिए समय कहीं से आयात करने की जरूरत नहीं.


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वह तो आपके पास पहले से है. बस आपको देखना है कि आईना, क्‍या कहता है. उसकी भाषा, अर्थ को समझने के लिए बहुत तो नहीं, लेकिन थोड़ी गहरी, गंभीर नजर तो चाहिए ही.


और हां, सबसे जरूरी यह कि ‘आईना’ सही हो. क्‍योंकि उसमें जरा भी चूक हुई तो कहानी दूसरी ओर निकल जाएगी!


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