डियर जिंदगी : जिंदगी को निर्णय की ‘धूप’ में खिलने दीजिए
`अलग’ हो जाना या ठीक कर लेना, देखने में यह अलग-अलग बातें दिखती हैं, लेकिन असल में यह ‘एक’ ही हैं.
14 अप्रैल 1912 को टाइटैनिक अटलांटिक के एक आइसबर्ग से टकराने के बाद डूब गया. इस हादसे में बहुत से मारे गए. आगे चलकर इस पर ‘टाइटैनिक’ नाम की फिल्म बनीं. जो उस महिला की कहानी है, जिसे लाइफबोट में जगह मिली थी. इन्हें जहाज पर जाकर कुछ लाने के लिए तीन मिनट का समय दिया गया, तो अपने कमरे में जाकर उसने अपने बहुमूल्य गहनों, बेशकीमती चीजों की जगह तुरंत तीन संतरे उठाए और लाइफबोट में आकर बैठ गईं.
‘टाइटैनिक’ से बाहर आती महिला ने तीन संतरे चुने. क्योंकि उस रात घने अंधेरे में जीवन के सफर में यह संतरे ही शायद कुछ देर काम आ सकते थे.
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लेकिन ऐसे निर्णय क्या तब लिए जा सकते हैं, जब जीवन और मत्यु का अंतर इतना साफ दिख रहा हो. क्या यह संभव नहीं कि जब हम अनिर्णय की स्थिति में लटके हों, रिश्तों के पेंच अनसुलझे हों, घुमावदार मोड़ पर अटके हुए हों, तो हम ऐसे निर्णय लेकर जीवन को ‘नए’ मोड़ की ओर ले जाएं.
‘डियर जिंदगी’ को मिल रहे संदेश, ई-मेल में सबसे ज्यादा उलझन अटके हुए फैसलों को लेकर है.
अपनी खुशी को हमने दूसरों के साथ इतना ज्यादा लिंक कर दिया है कि हमारी सारी खुशियां, इमोशन इसी ‘दूसरे’ के भरोसे ही चल रहे हैं. यह दूसरा कोई भी हो सकता है. मित्र, सखा, स्नेही, जीवनसाथी या हमसे प्रेम करने वाला कोई भी!
जब आप अपनी पतंग की डोर दूसरे को थमा देते हैं, तो अब पतंग तो उसके हिसाब से ही उड़ेगी! हां, कभी-कभी आपको यह बताया जाता रहेगा कि चर्खिल (जिससे मांझे की सप्लाई होती है) तो आपके हाथ है लेकिन सभी जानते हैं कि राजा तो वही है, जिसके हाथ में डोर है.
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इसलिए रिश्तों में समन्वय पर निरंतर दृष्टि रहे, लेकिन इसके साथ इस बात के प्रति सजगता भी बनी रहे कि कहीं डोर का नियंत्रण एकतरफा तो नहीं है. निर्णय एकतरफा तो नहीं लिए जा रहे. जिन रिश्तों में लंबे समय तक यह होता रहा है, वहां तनाव, डिप्रेशन के बीज धीरे-धीरे अपनी जमीन तैयार करते रहते हैं.
आइए, एक मिसाल से इसे समझते हैं…
पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ खुश नहीं हैं. एक दो नहीं बरसों से. लेकिन वह अपने रिश्ते को ठीक करने के लिए कुछ नहीं करते. हां बीच-बीच में वह कुछ ऐसे पेंचवर्क करते हैं, जैसे सड़कों को सुधारने के नाम पर सरकार बस गड्ढों में ऊपर से डामर लपेट देती है.
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आप समझ सकते हैं कि जैसे गड्ढे में केवल ऊपर से डामर लपेटने भर से सडक दुरुस्त नहीं होती. वैसे ही जीवनसाथी के साथ संबंध के लिए लंबे समय तक सही प्रक्रिया में एक-दूसरे के प्रति स्नेह, प्रेम के निवेश के बिना स्वस्थ संबंध संभव नहीं हैं.
हम जिन चीजों से खुश नहीं होते, उनसे या तो हमें अलग हो जाना चाहिए, अन्यथा उन्हें ठीक कर लेना चाहिए. ‘अलग’ हो जाना या ठीक कर लेना, देखने में यह अलग-अलग बातें दिखती हैं, लेकिन असल में यह ‘एक’ ही हैं.
जीवन लंबा है, लेकिन अनंत नहीं, इसमें बहुत अधिक समय है, लेकिन असीमित नहीं. इसलिए जिंदगी को असमंजस, दुविधा और अनिर्णय से बाहर निकालिए. उसे निर्णय की धूप में खिलने दीजिए. निर्णय गलत हो सकते हैं, लेकिन वह कभी भी इतने गलत नहीं होते कि उसके डर से निर्णय लिया ही न जाए.
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निर्णय न करना, चीजों को टालते रहना, मनुष्य के प्रति सबसे बड़ा अपराध है.
इसलिए ‘डर’ की खोल से बाहर निकलिए, जीवन को अपने फैसलों की महक महसूस होने दीजिए.
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