विनोद कुमार शुक्‍ल बहुत पसंद हैं. उनके यहां शब्‍द बारिश में धुले, जाड़ों की गुनगुनी धूप में सिके मिलते हैं. 'डियर जिंदगी' के लिए लाइब्रेरी में कुछ तलाशते हुए उनकी कविता मिल गई. 'जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे.' हम आपस में कितनी बातें करते हैं. हम उनके यहां नहीं जाएंगे. वह तो कभी हमारे घर आते नहीं. हम ही क्‍यों जाएं. हम नहीं जाएंगे, बार-बार. 


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बचपन से लेकर बडे़ होने तक ऐसी बातों से हम गुजरते ही रहते हैं. अच्‍छे भले संबंध कई बार मोड़ से टकरा कर बिखर जाते हैं. जबकि उनमें कोई भंवर नहीं होते. वह तो ऐसे ही चलते रहते हैं. कोई आता रहता है, तो दूसरे को भूल ही जाता है कि उसके यहां भी चलें. उन शहरों में जहां फ्लैट नहीं होते थे, जहां गप्‍प के लिए हरे-भरे मैदान, खुला गलियारा होता था. वहां ऐसे संकट कहां होते थे. 


घुमावदार मोड़ तो तब आने शुरू हुए जब हम उन इमारतों की ओर चले गए, जहां रहने वालों को देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी होती थी. जहां हर कोई अपने मकान नंबर को अपनी दुनिया समझने लगा. वहां से यह सब शुरू हुआ, जो हमारे घर नहीं आता, हम उसके घर नहीं जाएंगे. 


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इसे ऐसे भी समझना चाहिए कि हम सबसे अपने जैसा व्‍यवहार चाहते हैं. जैसे हम हैं, वैसे ही दूसरों को देखना चाहते हैं. जो हमारे भीतर है, वैसा ही दूसरे के भीतर होना चाहिए. मैं बहुत अच्‍छे पकवान बनाता हूं तो सबको बनाने आने चाहिए. मैं ऐसे रहता हूं तो तुमको भी वैसे रहना चाहिए. 


मुझे पसंद है, इसलिए यही 'ब्रह्म' सत्‍य है. यह सबसे बड़ी समस्‍या है. परिवार में हम दो भाई, दो बहन एक जैसे नहीं होते. उनमें विविधता होती है, जो सहज, स्‍वाभाविक है. ऐसे में दुनिया को अपने जैसा बनाने का अरमान सबसे बड़ी समस्‍या है. 


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सोचिए, क्‍यों इस कल्‍चर में दोस्‍ताने नहीं फलते-फूलते. क्‍यों लोगों के दरवाजे हमेशा बंद रहते हैं! अक्‍सर वह कचरे,अखबार और मरम्‍मत वाले की आवाज, आहट पर सबसे अधिक खुलते हैं. हम मिल नहीं सकते लोगों से! 


एक-दूसरे में दिलचस्‍पी कम होती जा रही है. एक-दूसरे का ख्‍याल कम होता जा रहा है. इसे सच्‍चाई कहकर इससे पीछा नहीं छुड़ाना है, इसका सामना करना है. यह हमारी अपने तक ही सीमित सोच, समझ का परिणाम है, जो हमें अकेलेपन की ओर धकेल रहा है.  


पड़ोसी से नमस्‍कार कहने में हम जितने असहज होंगे, हमारे बीच अकेलेपन की दीवार उतनी अधिक बड़ी, दुर्गम होती जाएगी! 


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यह सब थोड़ा मुश्किल लगता है. कुछ वैसे जैसे रेगिस्‍तान का सफर शुरू में मुश्किल लगता है, लेकिन नखलिस्‍तान तक जाने का रास्‍ता तो रेत के संमदर से ही मिलता है. इसलिए हमें मनुष्‍य को बंद कमरे से खुली हवा में, अकेलेपन से 'समुदाय' के रास्‍ते पर लाने के लिए जो बन पड़े, करना चाहिए. दुनिया छोटी कोशिश के मरहम का नाम है,  इससे ही जिंदगी को रास्‍ते मिलते हैं. 


कभी समय मिले, तो विनोद जी की कविता, उपन्‍यास  से गुजरिए. सुकून मिलेगा. हमेशा अर्थ खोजने से जिंदगी में कुछ नहीं मिलता. कभी-कभी कुछ लम्‍हे तो यूं ही 'जाना किए बैगर' बिताने चाहिए. 


जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे 
मैं उनसे मिलने 
उनके पास चला जाऊंगा. 
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर 
नदी जैसे लोगों से  मिलने 
नदी किनारे जाऊंगा 
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा. 
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब 
असंख्य पेड़ खेत 
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर 
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने 
गांव-गांव, जंगल-गलियां जाऊंगा. 
जो लगातार काम से लगे हैं 
मैं फुरसत से नहीं 
उनसे एक जरूरी काम की तरह 
मिलता रहूंगा. 
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह 
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूंगा.


- विनोद कुमार शुक्‍ल


 


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