हम परवरिश कैसे करते हैं! अपनी परवरिश के आधार पर. जैसी सब कर रहे हैं. उनके जैसे. जो भी हमें याद है, जो मेरी समझ है, उसके आधार पर! इस समय अगर आप भारत के अभिभावकों के बीच एक सर्वे करें, जिसमें उनसे पूछा जाए कि उनकी इकलौती समस्‍या क्‍या है. तो निश्‍चित रूप से इसका जो उत्‍तर सामने आएगा वह कुछ इस तरह हो सकता है...


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बच्‍चे पढ़ते नहीं हैं. उनका स्‍कूल में प्रदर्शन खराब है. वह माता -पिता की बात को गंभीरता से नहीं लेते. वह अपने काम को लेकर गंभीर नहीं हैं. हम बच्‍चों के भीतर एक चीज सबसे अधिक भरना चाहते हैं, वह है, गंभीरता. हमें हंसते-खेलते, उछलते, चहकते बच्‍चे पसंद हैं, लेकिन दूसरों के. अपने घर के बच्‍चों से हम यही चाहते हैं कि वह जितना संभव हो गंभीर रहें. क्‍योंकि ठीक इसी तरह तो हमें भी तैयार किया गया था.


डियर जिंदगी: समझते क्यों नहीं!


याद कीजिए, जब कभी स्‍कूल में उस बच्‍चे को अच्‍छा बच्‍चा नहीं माना जाता था जिसके भीतर चंचलता, बालसुलभ विनोद होता था. शिक्षकों का स्‍नेह उन्‍हें मिलता था, जो हमेशा गंभीरता की जर्सी पहने, अपना मुंह लटकाए स्‍कूल के गलियारों में दिखते थे. ऐसे लोगों को हम अंग्रेजी में ‘डेड’ सीरियस ( Dead Serious) कहते  हैं. जिनके लिए यह उपयोग किया जाता है, उनको यह सम्‍मानजनक लगता है, जबकि यह उनके लिए ही घातक है. हम भूल जाते हैं कि जिस शब्‍द के साथ डेड (Dead) जुड़ा है, उसके अर्थ में जीवन संभव नहीं. ऐसा सीरियस यानी गंभीर होना किसी काम का नहीं है.


दार्शनिक बर्टेंड रसेल कहते हैं कि अगर आपको लगता है कि आप कोई महत्‍वपूर्ण काम कर रहे हैं तो छुट्टी लेने का समय आ गया है. रसेल कहते हैं इस भाव से ही हम खुद को डेड सीरियस होने से बचा सकते हैं, यही हमें जिंदा रखने का सबसे कारगर तरीका है!


डियर जिंदगी : काश! माफ कर दिया होता...


हम भारतीय तो इस समय ऐसा लगता है, मानो डेड सीरियस होने की ओर बढ़ते जा रहे हैं. हमारा हास्‍यबोध, चीजों को सामान्‍य रूप से ग्रहण करने की शक्ति हर दिन कम होती जा रही है. हमने गंभीरता को एक संस्‍कार के रूप में स्‍वीकार ही नहीं किया. बल्कि उसे इतनी मान्‍यता दे दी कि गंभीरता को ही सब कुछ मान लिया गया.


एक क्रिकेट प्रेमी देश होने के नाते संभव है कि आपने मशहूर क्रिकेकर गौतम गंभीर का नाम सुना होगा. उन्‍होंने अभी कुछ दिन पहले ही संन्‍यास की घोषणा की है. हमें उनके बारे में पहले से बहुत कुछ पता है. लेकिन अब जो बातें उन्‍होंने कहीं हैं, असल में वह परवरिश की बहुत बुनियादी समस्‍या है.


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गंभीर ने कहा, वह मैदान पर कभी हंसते नहीं थे. हंस ही नहीं सकते थे क्‍योंकि उन्‍हें कुछ भी आसानी से नहीं मिला. हर चीज के लिए उन्‍होंने कड़ी मेहनत की थी. कितनी मजेदार बात है!


भला किस खेल में आपको आसानी से कामयाबी मिलती है . क्रिकेट में तो इतनी प्रतिस्‍पर्धा है कि आपमें कुछ न कुछ विशेष होना ही चाहिए. अब आपने कुछ हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की है तो इसमें आप असामान्‍य कैसे हो सकते हैं.


हमारे सामने जो तथ्‍य हैं, उनसे हमें पता चलता है कि सचिन तेंदुलकर, कपिल देव और महेंद्र सिंह धोनी इनसे कहीं मुश्किल समंदर को पार करके स्‍टेडियम तक पहुंचे.


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जिंदगी में आसानी से कहां कुछ मिलता है . सिवाए उनको जिनको विरासत में धन संपदा मिली हो. सबको सब कुछ हासिल करना होता है. और अच्‍छी बात यह है कि दुनिया में ऐसा करने वालों की संख्‍या कहीं अधिक है .


गौतम गंभीर के इस गंभीर रवैए पर चुटकी लेते शाहरुख खान ने कहा भी कि अब गंभीर थोड़ा अधिक हंस सकते हैं ! यह सब बातें तब हो रही हैं, जब गंभीर रिटायर हो गए हैं. चालीस बरस के आसपास होंगे. क्रिकेट के मैदान पर उनके नखरीले, गुस्‍सैल रवैए के कारण उनको पर्याप्‍त सुर्खियां मिल चुकी हैं. वह कैसे अपने खराब व्‍यवहार को संघर्ष से जोड़ रहे हैं.


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यह अकेले गौतम गंभीर की नहीं, उन सभी भारतीयों की समस्‍या है, जिनने कुछ हासिल होने को इतना अधिक महत्‍वपूर्ण बना लिया कि उसे अपने मिजाज से जोड़कर इतना गंभीर, कठोर बना दिया कि उसमें से प्रेम, उत्‍साह, आत्‍मीयता का रंग उड़ गया. हम बच्‍चों को निरंतर गंभीर बनाने के लिए बेचैन हैं . हम बच्‍चों को प्रेम करना, खुश रहना सिखाने की जगह केवल उनके मिजाज को अपने जैसा बनाने में जुटे हुए हैं.


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