आज से 48 साल पहले ही अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस मनाने की शुरुआत की गई थी. हर साल इस दिवस को मनाने के लिए एक थीम या विषय भी घोषित किया जाता है. इस साल का विषय है पृथ्वी पर प्लास्टिक प्रदूषण का खात्मा.
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पृथ्वी की रचना और इसका रचानाकाल आज भी कुतूहल का विषय है. कोई 500 वर्ष पहले ही हम वैज्ञानिक ढंग से पर्यवेक्षण करने लायक हो पाए. हालांकि पृथ्वी की उम्र के अनुमान पहले भी लगाए गए. मसलन 17वीं सदी में पहली बार आयरलैंड के विद्वान जेम्स अशर ने पृथ्वी की आयु सिर्फ छह हजार साल बताई थी. उनका कहना था कि पृथ्वी की रचना ईसा से 4004 साल पहले हुई. दरअसल अशर आर्कबिशप थे. वे अपनी धर्म परंपरा के धर्मचार्यो और गुरूओं का इतिहास देख रहे थे. धर्माचार्य होने के नाते वे सिर्फ धर्मग्रंथ ही देख पा रहे होंगे. लिहाज़ा पृथ्वी की आयु सिर्फ 6000 साल देख पाने की उनकी सीमा रही होगी. फिर भी उन्होंने पृथ्वी के रचनाकाल जानने के लिए एक शोध परिकल्पना तो दी ही. खैर, बाद में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ साथ हम ब्रह्मांड और नक्षत्रों और दूसरे पिंडों को सही तरीके से देखने में सक्षम हुए. आज हम जान पाए हैं कि हमारी पृथ्वी की उम्र दो अरब साल से भी ज्यादा है. अब तो हम दूसरे सौरमंडलों और उसमें पृथ्वी जैसे ग्रहों की तलाश में भी निकल पड़े हैं. ब्रहमाडं के इन रहस्यों की खोज तो चलती रहेगी लेकिन इस समय हमें हमारी अपनी पृथ्वी की रक्षा संरक्षा की चिंता भी सताने लगी है.
पृथ्वी की चिंता की शुरुआत
दो अरब साल पुरानी अपनी पृथ्वी की औपचारिक चिंता करते हुए हमें अभी सिर्फ 48 साल ही हुए हैं. आज से 48 साल पहले ही अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस मनाने की शुरुआत की गई थी. हर साल इस दिवस को मनाने के लिए एक थीम या विषय भी घोषित किया जाता है. इस साल का विषय है पृथ्वी पर प्लास्टिक प्रदूषण का खात्मा. यानी माना गया है कि प्लास्टिक पृथ्वी के लिए घातक है.
प्लास्टिक प्रदूषण की चिंता कितनी बड़ी
आज के दिन इसे भी देख लेना चाहिए कि प्लास्टिक प्रदूषण को इतना महत्वपूर्ण क्यों माना गया कि उसे पृथ्वी दिवस की थीम बनाया गया है. बेशक प्लास्टिक के अंधाधुंध इस्तेमाल ने दुनिया के सामने विकट स्थिति पैदा कर दी है. यह ठीक है कि प्लास्टिक का उत्पादन सस्ता है सो ज्यादातर चीजों में इसका इस्तेमाल बढ़ता चला गया. लेकिन हम यह नहीं देख पाए कि इस पदार्थ के क्षय होने की रफ्तार बहुत धीमी है. पृथ्वी की सतह पर यह कृतिम पदार्थ बढ़ता ही जा रहा है. और यह इतना सस्ता है कि प्लास्टिक की टूटी-फूटी चीजों को फिर से गलाकर यानी रीसाइकिल करके नया सामान बनाने में मुनाफा नहीं दिखता. सारी दुनिया में कोशिश हो रही है कि इसका इस्तेमाल कम किया जाए, इस सामान को बार-बार इस्तेमाल किया जाए और इसके पुनर्चक्रण की आदत डलवाई जाए. लेकिन रिड्यूस, रीयूज और रीसाइकिल का यह नारा सिरे नहीं चढ़ पा रहा है. अपने ही देश में देखें तो स्वच्छता अभियान के सामने सबसे बड़ा रोड़ा प्लास्टिक का कचरा ही बना हुआ है. पिछले एक दशक में इस कचरे के निस्तारण के जितने भी उपाय सोचे गए वे खर्च के लिहाज़ से कारगर नहीं हुए. बेशक पृथ्वी पर प्लास्टिक के कचरे का पहाड़ एक समस्या बनता जा रहा है. यानी पृथ्वी दिवस की थीम अगर प्लास्टिक का खात्मा बनाई गई है तो वक़्त के लिहाज़ से बहुत सोच समझ कर बनाई गई है. लेकिन अगर दूर की बात सोचेंगे तो पृथ्वी के सामने कई विकट समस्याएं खड़ी दिखाई देती हैं.
कई कारक बिगाड़ रहे पृथ्वी की सेहत
पिछले तीन दशकों से हमारा ध्यान ग्लोबल वार्मिंग यानी पृथ्वी के बढ़ते तापमान पर गया है. भूगर्भशास्त्रीय अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि दशक दर दशक भूताप की दर बढ़ती ही जा रही है. उसी हिसाब से ग्लेशियर ज्यादा पिघल रहे हैं. समुद्र तल ऊपर उठने का अंदेशा है. इन बदलावों से पृथ्वी पर कोई ज्यादा फर्क़ पड़े या न पड़े लेकिन इससे पृथ्वीवासियों के लिए बड़ी चिंता खड़ी हो गई है. इतना ही नहीं पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या ने हमें अलग से चिंता में डाल रखा है. प्राकृतिक संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं. मानव के लिए सबसे पहली जरूरत यानी पीने लायक पानी तक का टोटा पड़ता दिख रहा है. ये ठीक है कि पृथ्वी पर पानी की कमी नहीं है लेकिन बर्फ के रूप में जमा पानी का इस्तेमाल आसान नहीं और समुद्र के खारे पानी को पीने लायक बनाने का खर्चा इतना ज्यादा है कि विश्व के ज्यादातर देश पीने के पानी को लेकर निश्चिंत नहीं है. पानी के इसी संकट के कारण ज्यादातर देश भूमिगत जल पर निर्भर होते जा रहे हैं. अपने देश में भूजल का जिस तरह से दोहन हो रहा है. अगर उसका वास्तविक आकलन किया जाए तो सनसनी फैल सकती है. जहां तक बात भूताप की है तो इसका कारण कार्बन उत्सर्जन को माना जा रहा है सो अतंरराष्टीय स्तर पर कोशिशें हो रही हैं कि सभी देश कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम पर लगे. लेकिन दिक्कत ये है कि विश्व में विकास की होड़ हमें हर वह हरकत करने को प्रेरित कर रही है जो कार्बन उत्सर्जन बढ़ाती है.
कुल मिलाकर कोई भी सिरा पकड़कर सोचना शुरू करें, आखिर में लब्बोलुआब यही निकलता है कि मानव की बेजा दखलंदाजी पृथ्वी पर घातक असर डाल रही है. सोचने की बात यह है कि एक ग्रह के रूप में 200 करोड़ साल से अबाध रूप् से सूर्य का चक्कर लगाती आ रही पृथ्वी का तो ज्यादा क्या बिगड़ेगा लेकिन पृथ्वीवासियों को अपनी चिंता जरूर करनी चाहिए.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)