इतिहास को पलटकर देखें तो 1975 के अंतरराष्टीय महिला वर्ष में अपने देश में हुए काम पूरी दुनिया में सराहे गए.
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महिलाओं के पास भी अपना एक दिवस है. हर साल आठ मार्च को आजकल अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है. हम भी अपने देश में जहां-तहां आज के दिन समारोह आयोजित करते हैं. आमतौर पर महिला सामाजिक कार्यकर्ता एक साथ जमा होकर यह रस्म निभा रही हैं. इन आयोजनों के जरिए महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कुछ न कुछ काम जरूर होता होगा. भारत के कम से कम शहरी इलाकों में तो पहले से जागरूक महिलाएं आपस में बैठकर यह काम कर ही रही हैं. इस मामले में दुनिया में अब तक हुआ क्या है? इस समय क्या हो रहा है? भविष्य में और क्या हो सकता है? इन सवालों पर बात करने का इससे बेहतर और क्या दिन होगा.
कब उठी थी महिलाओं के लिए अलग से सोचने की बात
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को अगर कोई जानना चाहे तो उसे यह पता चलेगा कि महिलाओं पर अलग से गौर करने की बात सबसे पहले अमेरिका में वस्त्र उद्योग में लगीं महिला कामगारों की तरफ से हुए एक आंदोलन के रूप में देखने को मिली. यह 1909 का साल था. वस्त्र उद्योग में महिलाओं ने कार्यस्थल पर अपनी बुरी स्थिति के खिलाफ आवाज़ उठाई. इस आंदोलन ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया. और फिर अगले साल से ही अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने महिला दिवस मनाना शुरू कर दिया. उसके अगले साल यानी 1910 में कोपेनहैगन में एक महिला सम्मेलन हुआ जिसमें 17 देशों की सौ से ज्यादा महिलाओं ने भाग लिया और महिलाओं के अधिकारों और उनकी दशा को लेकर बाकायदा लिखा-पढ़ी हुई. इस पहल का असर यह हुआ कि अगले साल यानी 1911 में आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटजरलैंड में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में आयोजन हुए जिसमें दस लाख से ज्यादा महिलाओं ने रैलियां निकालकर यह दिन मनाया. इन रैलियों में मांग उठी कि महिलाओं को वोट देने का हक मिलना चाहिए और सरकारी नौकरियां मिलनी चाहिए. इसके अलावा महिलाओं को काम पाने का अधिकार और वोकेशनल ट्रेनिंग यानी कौशल प्रशिक्षण पाने के मौके भी मिलें. यानी एक तरह से नौकरी देने में लैंगिक भेदभाव खत्म किए जाने की बात पहली बार तभी उठी. इस इतिहास का जिक्र आज के दिन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि एक उत्सव बनते जा रहे अंतरराष्टीय महिला दिवस पर कहीं ऐसा न हो कि हम भूल ही न जाएं कि शुरुआत किन बातों से हुई थी.
युद्ध के विरुद्ध आवाज उठाने में काम आईं महिलाएं
सन 1912 से 1917 तक ये ही संगठित महिला आंदोलन विश्वयुद्ध के विरूद्ध आवाज़ उठाने में काम आए. खैर वह एक तात्कालिक मांग थी लेकिन उस बहाने महिलाओं को संगठिक होकर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने और कारगर तरीके से और संगठित होने का मौका मिला.
1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष का घोषित होना
संयुक्त राष्ट्र ने जब 1975 के साल को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया उसे हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंतराष्ट्रीय महिला दिवस की औपचारिक शुरुआत मान सकते हैं. इसी साल से संयुक्त राष्ट्र ने 8 मार्च को यह दिवस मनाने का फैसला किया जो आज तक मनाया जाना जारी है. लगातार अंतरराष्टीय महिला दिवस मनाए जाते रहने से ही लैंगिक भेदभाव के विरूद्ध माहौल बनता आ रहा है. अपने देश में लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य और महिलाओं को केंद्र में रखकर सुरक्षा की जितनी भी बातें और काम होते दिख रहे हैं उनके पीछे अतंरराष्ट्रीय महिला दिवस की भूमिका कम नहीं है. इतिहास को पलटकर देखें तो 1975 के अंतरराष्टीय महिला वर्ष में अपने देश में हुए काम पूरी दुनिया में सराहे गए. शिक्षा, संस्कृति, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की उपलब्धियों का लेखा-जोखा बनाया जाए तो संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों को हमें याद करना ही पड़ेगा. खासतौर पर राजनीतिक क्षेत्र में.
लोकतंत्र में महिला की ताकत
किसी भी लोकतांत्रिक देश में उसमें बसने वाले लोक को उसके अलग अलग वर्गों के जरिये ही पहचाना एक मज़बूरी है. आजकल अमीर गरीब, शहरी ग्रामीण, युवा प्रौढ़, ये धर्म वो धर्म, ये जाति वो जाति की पहचान उनकी संख्या के आधार पर ही ज्यादा होती है. सीमित संसाधन हमारी बाघ्यता है. कोई भी ऐसा आधार नहीं मिलता कि निश्चय के साथ सभी को समेटने का काम किया जा सके. लेकिन प्राकृतिक चलन में स्त्री-पुरूष एक ऐसा वर्ग सायुज्ज है कि पूरी आबादी को सिर्फ दो वर्गों में बंटा हुआ देखा जा सकता है और आश्चर्यजनक रूप से बिल्कुल बराबर का. हालांकि उन्हें अलग अलग देखना कितना काम का है यह अलग बात है. क्योंकि दोनों ही एक परिवार से इस कदर जुड़े हैं कि यह विभेद राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल होना बहुत दूर की बात दिखती है. फिर भी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक राजनीति अलग से प्रबंध करने की बात करती जरूर रहती है. हो सकता है इसलिए करती हो क्योंकि अलग से इस तरह के प्रबंध से उसके परिवार के पुरूष सदस्य भी प्रसन्न हो सकते हैं. लेकिन दुनिया के किसी भी देश की आधी आबादी को अलग से कुछ अतिरिक्त देना क्या संभव है? एक बड़ा सवाल यह भी कि महिला होने के नाम पर उसे कुछ दिया जाना क्या वाकई सिर्फ उसे ही दिया जाना है? आइए इस बात पर ज़रा विस्तार से सोचते हैं.
क्या चाह रही है आज की महिला
उसकी चाह या मांग को समझ पाना इतना आसान नहीं है. खासतौर पर अपनी अपनी आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक और भौगालिक परिस्थितियों के लिहाज़ से समग्र महिला समूह के भीतर अनगिनत उपसमूह हैं. महानगर की महिला कुछ चाह रही है, नगर की कुछ और गांव की महिला कुछ. अमीर घर की अलग मांग और चाह है और गरीब की अलग. सदियों से पूजा पाठ में लगी या लगाई जाती रही महिला की प्राथमिकता उससे बिल्कुल अलग है जो शिक्षा प्रशिक्षा पाकर प्रगतिशील विचार लिए आगे बढ़ना चाह रही है. खासतौर पर अनंत विविधताओं वाले अपने देश में अगर कोई विद्वान या नेता यह दावा करे कि उसने महिलाओं की चाह या मांग जान लिया है तो उसके दावे पर पहली नज़र में ही शक किया जा सकता है. हां अगर किसी सार्वभौमिक और सार्वकालिक मांग की पहचान करना ही हो तो फिर हमें सौ साल पहले उठी उस मांग पर नजर डाल लेना चाहिए जिसमें महिलाएं उत्पादक कार्य करने का अधिकार मांग रहीं थीं. कार्यस्थल पर मानवोचित या मानव की न्यूनतम गरिमा के अनुकूल परिस्थितियां मांग रहीं थीं. वे नौकरियों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की मांग कर रही थीं.