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वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया
सत्ता बनाए रखने और सत्ता हथियाने के मकसद से एक बार फिर गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई राजनैतिक दलों के मेल-मिलाप की गतिविधियां तेज हो गई हैं, और राजनैतिक हलकों से जो संकेत मिल रहे हैं उसके आधार पर कहा जा सकता है कि जल्दी ही गैर कांग्रेसी, गैर बीजेपी और गैर वामपंथी दलों की नई पार्टी बन जाएगी।
नए दलों का बनना और टूटना राजनीतिक प्रक्रिया की सामान्य घटनाएं हुआ करती हैं, लेकिन इस बार जिस प्रस्तावित समाजवादी जनता दल के गठन की कोशिश की जा रही है उसके पीछे सांप्रदायिक ताकतों के मुकाबले धर्मनिरपेक्ष ताकतों को लामबंद करने की दुहाई है। दिलचस्प बात ये है कि प्रस्तावित समाजवादी जनता दल में शामिल होने वाले ज्यादातर नेतागण समय-समय पर उन्हीं कथित सांप्रदायिक लोगों के साथ मिलकर सत्ता का सुख भोगते रहे हैं।
उदाहरण के लिए 1977 में इंदिरा गांधी के मुकाबले गठित जनता पार्टी में ये सभी कथित धर्मनिरपेक्ष नेतागण शामिल थे और आपातकाल के दौरान भी ये सभी नेतागण उन्हीं कथित सांप्रदायिक नेताओं के साथ 19 महीने जेल में भी रहे। ये अलग बात है कि सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की महात्वाकांक्षा ने जनता पार्टी का विघटन करा दिया और dual citizenship का मुद्दा बनाकर ये सभी कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने खुद को अलग कर लिया। ऐसे धर्मनिरपेक्ष नेताओं को एक बार फिर राजीव गांधी के मुकाबले उन्हीं कथित सांप्रदायिक नेताओं के साथ मिलकर सत्ता में अंदर और बाहर हिस्सेदारी करते देखा गया जब वी पी सिंह को पीएम बनाने के लिए दोनों विचारधाराओं के लोग वामपंथी दलों के साथ एकजुट हो गए थे।
ऐसे नेताओं की राजनैतिक अवसरवादिता का सबसे बड़ा उदाहरण पं. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संगठित होने वाले NDA में सहयोगी दलों के रूप में देखने को मिला था, जब पंडित अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित NDA में शरद यादव जैसे दिग्गज समाजवादी और रामविलास पासवान जैसे गरीबों के मसीहा जैसे लोग मंत्रिमंडल में शामिल दिखाई दिए। अटल जी की अस्वस्थता के बाद NDA के संयोजक का पद हथियाते समय भी शायद समाजवादी शरद यादव को कहीं सांप्रदायिकता की बू नहीं आई ठीक इसी तरह नीतीश कुमार लंबे समय तक बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार चलाते रहे। कमोबेश यही स्थिति कर्नाटक में एच डी देवगौड़ा की भी रही। एचडी देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी बीजेपी के साथ मिलकर कुछ दिन तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे, रामविलास पासवान सरीखे नेता पहले से ही अवसरवादिता की राजनीति के लिए मशहूर रहे हैं।
अब इन नेताओं की बेचैनी का कारण अपना अस्तित्व बचाए रखना है। नरेंद्र मोदी के सामने एक के बाद एक राजनैतिक पराजय झेल रहे ये नेतागण एक बार फिर वही घिसा-पिटा सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का राग अलाप रहे हैं ताकि 2016 में बिहार और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी राजनैतिक जमीन बचा सकें। समय के साथ खुद को अप्रासंगिक होते देख ऐसे नेताओं की मन:स्थिति का अंदाज़ा आपस में छत्तीस का आंकड़ा होते हुए भी इन के एक होने के प्रयासों में दिख रहा है। हालांकि इस बार तीसरे मोर्चे की कवायद से वामपंथी दलों ने खुद को अलग रखा है। ऐसे में बिना वामपंथी दलों के गैर बीजेपी और गैर कांग्रेसी दल मिलकर कितनी मजबूत पार्टी बना पाते हैं ये देखने वाली बात होगी।