वाणी लोककल्याण का उपकरण थी मुनिश्री तरुण सागर के लिए
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वाणी लोककल्याण का उपकरण थी मुनिश्री तरुण सागर के लिए

मुनिश्री तरुण सागर आचार्य पुष्पदंत के शिष्य थे, जब वे लोकमुक्त हुए उस समय वे दिल्ली में वर्षावास कर रहे थे. 

वाणी लोककल्याण का उपकरण थी मुनिश्री तरुण सागर के लिए

मुनिश्री तरुण सागर लोकमुक्त हो गए. वे अपनी मौलिक कथन शैली के लिए लोकप्रिय थे. वे ऐसे मुनि थे जो जैन समाज के अलावा दूसरे धर्मों के अनुयायियों में भी उतने ही लोकप्रिय हो चले थे. सामाजिक विषयों पर वे खुलकर बोल रहे थे. उनके साथ क्रांतिकारी मुनि का विशेषण भी लगाया गया था. इसीलिए उनके समाधिमरण पर समाज के सभी वर्गों की ओर से श्रद्धांजलियों दी जा रही हैं.

वाणी उनका मुख्य उपकरण था
लोककल्याण के लिए उपलब्ध तीन उपकरणों वाणी, लेखनी और सदाचरण में उन्होंने वाणी को अपना मुख्य उपकरण बनाया था. मीडिया और राजनीतिक वर्ग उनकी तरफ आकर्षित हो चला था. कुछ विधानसभाओं में उनके प्रवचन आयोजित कराए गए थे. बहरहाल, जैनमुनि होने के नाते आवश्यक उनकी मुनिचर्या समाज को सम्मोहित करती ही थी. कड़वे प्रवचनों के नाम से उनके प्रवचनों के कई संस्करण छप रहे थे. इस तरह वे अपनी लेखनी से भी लोककल्याण का उपक्रम कर रहे थे.

वर्षावास के लिए दिल्ली में थे मुनिश्री
वे आचार्य पुष्पदंत के शिष्य थे. इस तरह वे उनके ही साधु संघ के मुनि थे. जब वे लोकमुक्त हुए उस समय वे दिल्ली में वर्षावास कर रहे थे. जैन परंपरानुसार वर्षा ऋतु में जैनमुनि स्थिर हो जाते हैं. इसे चातुर्मास भी कहते हैं. यह समय स्थिर होकर तपध्यान करने का होता है. दिल्ली प्रवास के दौरान पिछले एक महीने से वे अस्वस्थ थे. वे जलजनित रोग से ग्रस्त हो गए थे. रोग का असर संबंधित अंगों पर पड़ गया था. चिकित्सकों के अनुसार उपचार की स्थितियां असाध्य हो चली थीं. कहते हैं. इस कारण उन्होंने दो रोज़ पहले ही समाधिमरण का संकल्प ले लिया था. कुछ धर्मशास्त्री इसे तपश्चर्या का चरम रूप मानते हैं.

शल्य चिकित्सा के लिए सहमत नहीं थे वे
मुनिचर्या में व्याधियों के उपचार के लिए अपने अलग विधान हैं. जो मुनिगण धर्मोचित नियमों को लेकर आज भी दृढ़ हैं. वे हरचंद कोशिश करते हैं कि उन्हें अपनी मुनिचर्या से समझौता न करना पड़े. इस बात को लेकर धर्मशास्त्रियों और विद्वानों की अलग अलग राय हो सकती है. लेकिन प्रत्यक्ष यह है कि उन्होंने यह समझौता नहीं किया.

अंतसमय में गुरुभाइयों का सानिध्य
जैन परंपरा में राग और द्वेष का निषेध है. जीवन मृत्यु उनके लिए हर्ष या विषाद का अवसर नहीं होता. लेकिन मुनिश्री तरुण सागर के गुरु आचार्यश्री पुष्पदंत सागर ने दिल्ली के आसपास चातुर्मास कर रहे अपने शिष्यमुनियों को इस मौके पर उनके पास जाने का निर्देश दिया था. इस तरह अतंसमय में मुनिश्री के गुरुभाई उनके पास थे.

श्रावक संघों के लिए विचार का अवसर
जैनमुनि को आहार आज भी श्रावक यानी गृहस्थ परिवार ही देते हैं. प्रदूषण की दिन पर दिन होती जा रही विकट परिस्थितियों में निरापद जल और आहार का प्रबंधन दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है. मुनिश्री जिस रोग से पीड़ित हुए वह जलजनित रोग माना जाता है. परंपरागत रूप से पानी को कपड़े से छानने भर से वह निरापद बन नहीं पा रहा है. मुनिगणों के जल के लिए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल को लेकर श्रावकों में अभी भी दुविधा बनी हुई है. यानी जैनमुनियों को श्रद्धाभाव से आहार देने वाले जैन समाज और दूसरे अन्य समाजों को विचार करना पड़ेगा कि मुनियों के लिए आहार और शोधित जल के प्रबंधन के लिए कोई नई व्यवस्था तय करने पर सोचें.

(लेखिका, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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