आज जैन मुनि तरुण सागर महाराज जब हम सबके बीच नहीं हैं, तब हम सब उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं और उसके साथ ही सबसे निवेदन करते हैं कि उनकी बातों को बहुत ध्यान से सुना जाए और ह्रदय में बसाया जाए.
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जैन मुनि तरुण सागर महाराज इस तरह, एक तरह से जिसे योगियों के लिए युवावस्था ही कहें, उसमें इस पार्थिव संसार को छोड़कर चले गए. वे एक ऐसे मुनिश्री थे, जिन्होंने हमेशा खुद को युवा ही समझा और किसी भी अन्य पूज्य संत की तुलना में हमारे वर्तमान समय में युवाओं को जैन धर्म की शिक्षाओं, सिद्धांतों और लोक कल्याण के मार्ग पर बहुत तेजी से खींचा. उन्हें पता था कि वह जो कह रहे हैं, वह जैन धर्म को लेकर गढ़ी गई पारंपरिक धारणाओं से कुछ आगे की चीज है, इसीलिए वह अपने प्रवचनों को कड़वे प्रवचन भी कहा करते थे.
उनकी मानवता और करुणा कितनी गहरी थी, इसको देखने का एक अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ. जब मैं डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री था, उस समय मुनि तरुण सागर जी का एक कार्यक्रम दमोह में आयोजित हुआ. कम ही लोगों को पता है कि वह दमोह के घोंची गांव के रहने वाले थे और 14 साल की उम्र में ही संतत्व की ओर मुड़ गए गए थे. इस तरह समस्त संसार के हित की कामना करने वाले मुनिश्री बुंदेलखंड की माटी के लाल थे. बरहाल उस कार्यक्रम में मुझे और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अतिथि के रुप में बुलाया गया था, लेकिन जब मैं कार्यक्रम स्थल की तरफ जा रहा था तो रास्ते में एक एक्सीडेंट हुआ दिखा, जिसमें कुछ लोगों की मृत्यु हो गई थी और कई लोग घायल थे. ऐसे में मैं वहीं रुक गया और घायलों को अस्पताल पहुंचाने और दूसरे कामों में इतना समय बीत गया कि जब मैं मुनिश्री के कार्यक्रम में पहुंचा तो कार्यक्रम समाप्त होने के स्तर पर पहुंच गया था. जब मैंने यह बात मुनिश्री को बताई तो उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रखा और कहा कि यहां तो सिर्फ प्रवचन होने थे, लेकिन जो तुम कर रहे थे, उसी में महावीर की अहिंसा और लोक कल्याण का असली वास है.
मैं मुनिश्री को इस तरह भी याद करता हूं कि उन्होंने जैन धर्म को आत्म कल्याण से लोक कल्याण की ओर ले जाने का सशक्त काम किया. यह कुछ उसी तरह का काम है जैसा भगवान महावीर ने अपने जीवनकाल में किया था. भगवान महावीर आत्म कल्याण के साथ ही, आप उन्नति के साथ ही जगत के प्रश्नों से भी सीधा टकराव लेने से पीछे नहीं हटे. भगवान महावीर के अनुसार आत्म कल्याण से ही लोक कल्याण संभव था. कई बार जैन समाज अपने पर्व-त्योहारों और परंपराओं में इस तरह डूब जाता है कि वह इस बात को भूल ही जाता है कि आत्म कल्याण लोक कल्याण से कोई अलग चीज है. मुनिश्री तरुण सागर ने पूरे साहस और मेधा के साथ लोक कल्याण को सर्वोपरि रखा.
उनके इस अंदाज से जैन धर्म के विचारों को नई ताकत मिली. उनके पहले के सभी महान मुनि विद्वत्ता और ज्ञान में किसी से किसी मामले में कम नहीं थे, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा रहा कि उनमें से ज्यादातर मुनिश्री का संदेश जैन समाज के भीतर ही सुना गया. वहीं तरुण सागर जी ने जिस तरह से अपनी बातें रखीं, उसमें उनका अनुसरण करने वाले जैन समाज से बाहर भारत के सभी धर्मों और बल्कि दुनिया के कई हिस्सों तक फैल गए.
जिन्होंने उनके प्रवचन सुने हैं, वह जानते होंगे कि किस तरह वह बहुत कोमल भाषा में बात शुरू करते थे और फिर अचानक ही उनकी वाणी का स्वर उद्दाम हो जाता था. इस तरह अगर संगीत के पैमाने पर देखें तो उनके वाक्य का पहला शब्द अगर मंद्र सप्तक में होता था तो अंतिम शब्द तार सप्तक तक पहुंच जाता था, लेकिन इस उतार और चढ़ाव से जो लहर पैदा होती थी वह विचारों के सागर में उनके श्रोता को बहुत गहराई तक गोते लगवाने में मददगार होती थी. इसीलिए उन्होंने अपना संत जीवन जैन मुनि के रूप में शुरू किया, लेकिन बहुत जल्द ही लोग उन्हें राष्ट्रसंत कहने लगे. जब समाज किसी को कोई उपाधि देता है तो वह उपाधि सच्ची उपाधि होती.
आज जब वह हम सबके बीच नहीं हैं, तब हम सब उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं और उसके साथ ही सबसे निवेदन करते हैं कि उनकी बातों को बहुत ध्यान से सुना जाए और ह्रदय में बसाया जाए. उनकी बातों में जैन धर्म के कल्याण के साथ ही विश्व कल्याण की भावना थी. उन्होंने हमेशा सभी धर्मों में एकता पर बल दिया. वह किसी भी तरह की सांप्रदायिकता के खिलाफ थे. उन्होंने हमेशा युवाओं का आह्वान किया कि वह सामाजिक बुराइयों और झूठ के खिलाफ खड़े हों. आज जब हमारे समय में हिंसा की बहुत सी बातें सिर उठा रही हैं. चाहे वह मॉब लिंचिंग हो, चाहे वह कठोर भाषा का प्रयोग हो, चाहे वह छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर भीड़ में फैलने वाला उन्माद हो या हम राजनेताओं में आ गई एक खास किस्म की हिंसा हो, इन सब चीजों से धैर्यपूर्वक निपटने के लिए मुनिश्री तरुण सागर के प्रवचन, उनकी वाणी बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है. खासकर हिंसा सबसे पहले अपनी चपेट में युवाओं को लेती है, ऐसे में युवाओं को मुनिश्री तरुण सागर की बातों को फिर से सुनना चाहिए और जानना चाहिए की उत्साह और हिंसा दो अलग-अलग चीजें हैं. अहिंसा के उत्साह से बड़ी चीज और कोई नहीं है. यही बात हमें भगवान महावीर ने सिखाई. यही बात हमें महात्मा गांधी ने सिखाई और यही बात हमें मुनिश्री तरुण सागर सिखाकर गए हैं. उनके बताए रास्ते पर चलने की प्रेरणा के साथ राष्ट्र संघ को शत-शत नमन कोटि-कोटि श्रद्धांजलि.
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं. जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है)