दलित राजनीति में क्या होगी चंद्रशेखर की बिसात
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दलित राजनीति में क्या होगी चंद्रशेखर की बिसात

पिछले कुछ समय से चंद्रशेखर को लेकर उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की राजनीति में हलचल मची हुई है. लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठता रहा है कि चंद्रशेखर आजाद का यह उभार पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक है या यह प्रदेश की अनुसूचित जाति की राजनीति पर कोई स्थायी प्रभाव छोड़ पाएगा?

दलित राजनीति में क्या होगी चंद्रशेखर की बिसात

अनुसूचित जाति (एससी) को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ब्राह्मणों और बनियों के कथित साठगांठ को निशाना बनाया था, लेकिन जब ब्राह्मण-क्षत्रिय विवाद पैदा होता था, तो वे क्षत्रियों के प्रति हमदर्दी दिखाते थे. उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण-क्षत्रिय द्वंद्व पर्दे के पीछे कमोबेश चलता रहता है, लेकिन उत्तर अम्बेडकर युग में एससी राजनीति का परिदृश्य बदल चुका है. बसपा सुप्रीमो मायावती ने सत्ता पाने की कवायद में ब्राह्मणों के प्रति झुकाव दिखाया, तो भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर का उभार सहारनपुर में राजपूतों के खिलाफ संघर्ष के बाद हुआ. पिछले कुछ समय से चंद्रशेखर को लेकर उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति की राजनीति में हलचल मची हुई है. लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठता रहा है कि चंद्रशेखर का यह उभार पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक है या यह प्रदेश की अनुसूचित जाति की राजनीति पर कोई स्थायी प्रभाव छोड़ पाएगा?

बसपा की सीमाएं
उत्तर अंबेडकर युग में जब तक कांग्रेस मजबूत रही, जब तक एससी समुदाय के बीच स्वतंत्र नेतृत्व का विकास नहीं हो पाया. जैसे ही कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति घटी, एससी समुदाय के बीच फुले-अंबेडकर विचारधारा मुखर हो उठी. बसपा सुप्रीमो मायावती इसी दौर की प्रतिनिधि हैं. बसपा की राजनीति पर ‘आधुनिकता के आईने में दलित’ पुस्तक के संपादक अभय कुमार दुबे लिखते हैं, “दलितों की अवमानना को धुरी बनाकर बसपा जन गोलबंदी तो कर लेती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह अवमानना के विमर्श को छोड़ती नजर आती है. बहुजन के बजाय सर्वजन की सरकार बनाने का दावा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. ... किसी भी विचारधारा में बंधे न होने से बसपा को जोड़-तोड़ करने का लचीलापन तो उपलब्ध हो जाता है, पर स्थायित्व के मामले में वह दूरगामी नुकसानों के अंदेशों का शिकार हो जाती है.” बसपा के बारे में दुबे के इस आकलन को आज भी खारिज करना कठिन है. ऐसी स्थिति में चंद्रशेखर के पास अवसर है, तो चुनौती भी है. क्या वे इसे भुना पाएंगे?

सहारनपुर हिंसा के आरोप में घिरे चंद्रशेखर जेल से छुटने के बाद भाजपा को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर चुके हैं. हालांकि उन्होंने अपनी रणनीति का कोई खुलासा नहीं किया है, लेकिन वे भाजपा को तभी नुकसान पहुंचा सकते हैं, जब वे एससी समुदाय के मत को विभाजित होने से रोक सकें और एससी, पिछड़ा एवं मुस्लिम गठजोड़ खड़ा कर सकें. फिलहाल चंद्रशेखर भाजपा की जमीन पर नहीं खड़े हैं. उनका सामाजिक आधार वही है, जो बसपा प्रमुख मायावती का है. मायावती की ही तरह उनका प्रभाव मूलतः जाटव बिरादरी तक सीमित है. यह उत्तर प्रदेश के समाज का वह हिस्सा है, जो अब तक मायावती का साथ देता आया है. दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि पूरा एससी समुदाय चंद्रशेखर के प्रभाव में नहीं है. अब भी भाजपा का गैर-जाटव एससी समुदाय पर प्रभाव बना हुआ है. गैर-यादव पिछड़ों में भी भाजपा की अच्छी पैठ रही है. मुस्लिम वोट पर सपा, 
बसपा और कांग्रेस- तीनों की दावेदारी है.

यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी लोक सभा चुनाव में चंद्रशेखर भाजपा विरोधी राजनीति के तहत किसी दल विशेष को समर्थन देते हैं या नहीं. हालांकि वे अभी दलगत राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं, लेकिन अगर वह किसी दल विशेष के साथ जुड़ गए, तो एससी समुदाय की राजनीति पर अपनी कोई विशिष्ट छाप नहीं छोड़ पाएंगे. तेज-तर्रार चंद्रशेखर द्वारा बसपा का झंडा थामना उनकी भविष्य की राजनीति के लिए घातक होगा, वैसे वे मायावती की राजनीति के प्रशंसक भी नहीं हैं. इस बीच चंद्रशेखर के प्रति मायावती की नापसंदगी जिस प्रकार सामने आई है, इससे जाटव वोट में किंचित विभाजन की आशंका पैदा हो गई है. भीम आर्मी के मुख्य संरक्षक जय भगवान जाटव, चंद्रशेखर पर मायावती की टिप्पणी को उचित नहीं मानते. उनका कहना है कि मायावती गलत सलाहकारों के प्रभाव में हैं, जबकि चंद्रशेखर उनका सम्मान करता है. बहरहाल, चंद्रशेखर के लिए यही मुनासिब होगा कि वे अपनी अलग राह चुनें और एससी आंदोलन को नई दिशा दें. लेकिन क्या वे ऐसा कर पाएंगे?

चंद्रशेखर के सामने चुनौतियाँ 
डॉ भीम राव अंबेडकर का जोर सामाजिक आंदोलन पर था, लेकिन वे एससी समुदाय को सत्ता का रास्ता नहीं दिखा पाए थे. इस कार्य को अंजाम दिया था कांशीराम ने. पर इस प्रक्रिया में एससी आंदोलन के दूरगामी लक्ष्यों को चोट पहुंची थी. इसीलिए बसपा की राजनीति के प्रति एससी समुदाय में कहीं-कहीं चिंता भी देखी जाती है. इसको आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी इस समुदाय के नए नेतृत्व पर है. ऐसा तभी हो पाएगा, जब जातिगत पहचान से परे एक नागरिक समाज का निर्माण हो. शायद अंबेडकर का भी यही अभीष्ट लक्ष्य था. लेकिन कुछ गैर-सरकारी संगठन एक ऐसा नेतृत्व विकसित करना चाहते हैं, जिससे अब तक पूरा विमर्श बदल सकता है. इस परिप्रेक्ष्य में भीम आर्मी के कुछ समर्थकों द्वारा ‘नस्ल’ शब्द का इस्तेमाल ध्यान देने योग्य है, जो अमेरिकी अश्वेत आंदोलन की ओर इशारा करता है. भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से एससी समुदाय का जुड़ना तो ठीक है, लेकिन जाति को नस्ल के रूप में चित्रित करने से समावेशी समाज के निर्माण में अंततः व्यवधान उत्पन्न होगा. धर्म जागरण समन्वय विभाग (आरएसएस) के ब्रज प्रान्त संयोजक नन्द किशोर वाल्मीकि भी इस पर चिंता प्रकट करते हैं.

समाजशास्त्रियों की नजर में एससी आंदोलन भारतीय राजनीति में एक दबाव समूह के रूप में जरूर उभरा है, लेकिन वह आमूल-चूल परिवर्तनकारी भूमिका नहीं निभा पाया है. इसकी एक बड़ी समस्या यह रही है कि इस पर मध्य वर्ग हावी रहा है, जिसकी रणनीति पहचान, आरक्षण और सत्ता पर केंद्रित रही है. यह अकारण नहीं है कि एससी समुदाय में व्याप्त आर्थिक असमानता की उनके नेतृत्व द्वारा अक्सर उपेक्षा की जाती रही है. चंद्रशेखर के आंदोलन के स्वरूप के बारे में अभी कुछ कहना कठिन है, लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि उनमें जोश है, उनकी परिपक्वता की परीक्षा अभी बाकी है. अगर उनकी राजनीति आगे बढ़ती है, तो सबसे पहले उन्हें भारतीय सामाजिक ढांचे के अंतर्विरोध से निपटना होगा. एससी और पिछड़े भले ही राजनीति के मैदान में सहयात्री बन जाते हों, लेकिन सामाजिक-आर्थिक धरातल पर इनमें व्याप्त अंतर्विरोध अभी तक दूर नहीं हो सका है. जाटवों के अलावा एससी समुदाय की अन्य जातियों को बसपा अपने साथ जोड़ नहीं पाई है, जिन्हें अपेक्षा के अनुरूप आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया है.

चंद्रशेखर द्वारा अपनी जाति के लोगों में गर्व का भाव पैदा करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इस पर अत्यधिक जोर एससी समुदाय की अन्य जातियों को जोड़ने में बाधक होगा. अगड़ों का भय दिखा करके एससी-पिछड़ा गठजोड़ खड़ा करने का राजनीतिक फार्मूला अब ज्यादा कारगर होता नहीं दिखता. समय के साथ एससी और पिछड़े तबके में एक अभिजन समूह पैदा हो गया है, जिसकी अगड़ों के साथ निकटता बढ़ी है. फिर समय के साथ अगड़ों ने भी अपने व्यवहार में बदलाव लाया है. अगर चंद्रशेखर ने बदलते समाज के परिप्रेक्ष्य में वैचारिक और संगठनात्मक स्तर पर अपने को मजबूत बना लिया, तो नायक की तलाश में लगा एससी समुदाय एक न एक दिन उन्हें अपने कंधे पर उठा लेगा. यह उस अवस्था में संभव हो सकता है, जब मायावती के राजनीतिक अवसान के बाद एससी समुदाय में नेतृत्व के लिहाज से शून्य की स्थिति पैदा हो जाये. 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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