इस समय तो वैसे वैश्विक मंदी का कोई सबूत सामने नहीं है. लेकिन जब मंदी होती भी है तो चर्चा सिर्फ उत्पादन की मात्रा की ही होती है.
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यह वैश्वीकरण का दौर है. लिहाजा बाजार और उससे संबंधित हर नीति अब किसी देश का अंदरूनी मामला नहीं रह गया. हर देश अब एक वैश्विक तंत्र का हिस्सा है. हम चाहें भी कि अपने हिसाब से अपने उत्पादकों और बाजार के लिए नीतियां बना लें, तो विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं की सदस्यता से जुड़े नियम हमें बांधे रखते हैं. ये नियम किसी भी देश को उसकी नीतियों को वैश्विक बाज़ार के हित में बनाए रखने के लिए मजबूर करते हैं. हालांकि हर देश को वैश्वीकरण के लाभ लेने का समान अवसर भी है. यानी इस व्यवस्था में हमारे पास मौके हैं तो उसके साथ कुछ दबाव भी हैं.
क्या दबाव है
पिछले कुछ समय से भारत पर अंतरराष्ट्रीय मंचों से दबाव बनाया जा रहा है कि हम अपने जिन उत्पादकों का निर्यात बढाने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं उसे बंद कर दें. अगर हम सब्सिडी बंद करते हैं तो विदेशों में भारतीय माल के दाम बढ़ जाते हैं. दाम की प्रतिस्पर्धा में दूसरे देशों में उनके अपने माल बिकने की अनुकूल स्थितियां बनती हैं. इसके लिए तर्क यह है कि वैश्विक बाज़ार में सभी उत्पादकों के लिए बराबरी के मौके होने चाहिए. और सरकार के निर्यात पर सब्सिडी दे देने से दूसरे देशों के उत्पाद की बिक्री के मौके नहीं घटने चाहिए. वैश्विक व्यवस्था का यही दबाव हमारे ऊपर है.
हमारी दिक्कत क्या है
दुनिया में सबसे तेज़ी से बढती भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट बाजार का है. हमारा सकल घरेलू उत्पाद साल दर साल तेजी से बढ़ रहा है. इसी जीडीपी को पैमाना मान कर हम अपनी अर्थव्यवस्था के तेज़ी से बढ़ने का दावा करते हैं. लेकिन अब इन बढ़ते उत्पादों की खपत के लिए नए बाज़ार ढूंढने का संकट सामने आ रहा है. बल्कि यूं कहें कि आ चुका है. बेरोज़गारी से निपटने के लिए छोटे और मझोले उद्योगों को बढ़ावा देना पड़ रहा है. स्टार्ट अप, स्टैंड अप, एम.एस.एम.ई. को प्रोत्साहन जैसे कई कार्यक्रमों को बढ़ावा इसके उदाहरण हैं. यहां तक तो ठीक है लेकिन इसके साथ नए बाज़ार तलाशने की ज़रूरत भी उसी रफ़्तार से बढ़ रही है. कोई दावा कितना भी करता हो लेकिन इस हकीकत से हम रूबरू हैं कि अपने देश के अंदर के बाज़ारों की क्षमता बढ़ते उत्पादों को और ज्यादा खपाने की अब नहीं बची. और वैश्विक बाजारों में भारत अपने उत्पादों को मुकाबले में नहीं ला पा रहा है. इस बात को पुख्ता करने के लिए हाल ही में आई एक रिपोर्ट का हवाला दिया जा सकता है.
रिपोर्ट के मुताबिक निर्यात घटा
इस नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक़ कई भारतीय उत्पादों का निर्यात घट गया है. इनमें वाणिज्य मंत्रालय की निगरानी में आने वाले 30 प्रमुख क्षेत्रों में से सोलह क्षेत्रों का निर्यात गिरा है. इनमें चावल, चाय, कॉफ़ी, तम्बाकू, चमड़ा, मसाले, काजू, फल और सब्जियां, समुद्री उत्पाद और रत्न व आभूषण जैसे प्रमुख क्षेत्र शामिल हैं. यानी जिस रफ़्तार से हमारा उत्पादन बढ़ रहा है उस रफ़्तार से न ही देश के अंदर और न ही बाहर की देशों में भारत के उत्पाद की खरीद बढ़ पा रही है. बढ़ना तो दूर, मांग घट गई है. इसमें और भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि घटने वाले उत्पादों की सूची में किसान के भी कई उत्पाद हैं. निगरानी वाले 13 कृषि उत्पादों में से आठ कृषि उत्पादों के निर्यात में गिरावट आई है.
कृषि को लेकर ज्यादा चिंता क्यों
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का हिस्सा पहले से ही बहुत कम है. सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी कमोबेश 15 फीसदी तक सिमट चुकी है. हालांकि यह तथ्य आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कुल निर्यात में कृषि उत्पादों की मात्रा घटने और बढ़ने से कृषि क्षेत्र में कई कई हज़ार करोड़ का फर्क पड़ जाता है. एक शोधपत्र के अनुसार अगर कुल निर्यात में कृषि उत्पाद की मात्रा अगर सिर्फ एक फीसदी ही बढ़ती है तो आठ से 10 हजार करोड़ रुपए शुद्ध रूप से कृषि क्षेत्र में पहुंच जाते हैं. इस समय बदहाल कृषि के लिए किसी भी मात्रा की रकम बहुत बड़ा प्रदाय है. ऐसे में कृषि उत्पाद निर्यात में बढ़त की जगह घटौती बड़ी भारी चिंता का विषय क्यों नही होना चाहिए.
गन्ने की उपज तो अभी लेखे में ही नहीं है
कृषि क्षेत्र में उन 13 में से आठ क्षेत्रों के अलावा भी कई उत्पादों की हालत चिंतनीय है. मसलन अपने देश के गन्ना किसान कई साल से बेहद परेशान हैं. गन्ने की उपज जितनी है उससे बनी चीनी की खपत अपने देश में उतनी नहीं है. नतीजतन हर साल गन्ना किसानों के भुगतान के बकाए की खबरें सुनने को मिल जाती हैं. इस समय किसानों के कम से कम साढ़े 13 हजार करोड़ रुपए चीनी मिलों पर बकाया हैं. बकाए की इस अनुमानित न्यूनतम रकम में सबसे बड़ा हिस्सा उप्र के किसानों का है. उत्तर प्रदेश में हर चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा ये ही रहता है कि गन्ना किसानों का बकाया मूल्य उन्हें दिलाया जाएगा. बहरहाल, इस साल भी सरकारी आदेश के बावजूद कई जगह चीनी मिलें नवम्बर की शुरुआत तक भी चालू नहीं हो पाईं. इधर नई फसल आ गई है.
उधर पिछले साल के रिकॉर्ड चीनी उत्पादन के बाद पुराने स्टॉक में भी एक करोड़ टन चीनी हमारे पास बची रखी है. इसे देखते हुए इस बार कम से कम 50 लाख टन चीनी दूसरे देशों में भेजने का लक्ष्य मिलों को दिया गया है. इसी बीच विश्व में चीनी के दाम चार फीसदी तक घट गए. बहुत संभव है इसीलिए भारतीय चीनी निर्यातकों को ट्रांसपोर्ट सब्सिडी देने का ऐलान किया गया है. बहरहाल इस बीच कुछ देश हमसे चीनी खरीदने को फिलहाल तैयार भी हो गए हैं. लेकिन इस घटनाक्रम में सोचने की बात यह है कि क्या हम हमेशा ही इसीतरह सब्सिडी और सरकारी पैसा लगाकर अपने उत्पादों को बाहर बिकवाने का इंतजाम करते रह पाएंगे. अपना माल बेचने के लिए हमारे उत्पादों की मांग अपने आप दूसरे बाजारों में बढ़ने लगे इस ओर काम होता अभी नहीं दिख रहा है.
गौरतलब है कि चीन सारी दुनिया में अपने उत्पाद इसलिए बेच पाया, क्योंकि उसने हर बाज़ार में दूसरे देशों के मुकाबले सस्ते उत्पाद के विकल्प उपभोक्ताओं के सामने रखे. वह सस्ता कैसे बेच पाता है? यह आज भी पूरी दुनिया के लिए एक रहस्य है. दुनिया के लिए हम भी वैसा रहस्य क्यों पैदा नहीं कर सकते? और यह भी कि क्या सस्ता बेचने के अलावा भी कोई तरीका हो सकता है कि भारतीय उत्पाद की मांग यानी दुनिया के दूसरे देशों में बढ़ जाए.
क्या गुणवत्ता हो सकता है वह तरीका?
इस समय तो वैसे वैश्विक मंदी का कोई सबूत सामने नहीं है. लेकिन जब मंदी होती भी है तो चर्चा सिर्फ उत्पादन की मात्रा की ही होती है. उस विकट स्थिति में लोगों के पास पैसों की कमी नहीं होती, बल्कि बाजार का संकट यह होता है कि उत्पाद की मात्रा जरूरत से ज्यादा हो जाती है. उस विकट परिस्थिति में भी गुणवत्ता राज करती है. आज भी महंगे से महंगे ब्रांड का बाजार उतना ही भरा पूरा है. यह खेल गुणवत्ता का ही है. डब्ल्यूसीएम यानी वल्र्ड क्लास मैन्यूफैक्चरिंग की संकल्पना दुनिया के लिए नई नहीं है. अलबत्ता हमारे लिए नई है. वैसे इस समय उद्योग क्षेत्र में हमारी विशेषज्ञता विनिर्माण की बजाए सेवा क्षे़त्र में बढ़ी है. लिहाजा डब्ल्यूसीएम पर हमारा ध्यान अभी जाता नहीं है. हालांकि वैश्विक उद्योग जगत में अब वैश्विक स्तर की गुणवत्ता की बात सिर्फ मैन्यूफैक्चरिंग तक सीमित नहीं बची सेवा क्षेत्र में भी विश्वस्तरीय गुणवत्ता की बात होने लगी है. देर सबेर कृषि क्षेत्र में भी गुणवत्ता का महत्व बढ़ेगा ही है. निर्यात बढ़ाने के लिए गुणवत्ता एक कारक है. ऐसे और भी उपायों को तलाशा जा सकता है.
प्रबंधन प्रौद्योगिकी और वाणिज्य के विद्यार्थियों को देश में आर्थिकी, वाणिज्य और प्रबंधन प्रौद्यागिकी के सरकारी और गैरसरकारी बड़े जानकारों से अनुरोध करना चाहिए कि वे तेजी से बढते सकल घरेलू उत्पाद वाले अपने देश के उत्पाद की मांग दूसरे देशों में बढ़ाने के तरीके भी सोचें.
(लेखिका, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)