बजट 2018 : भारत में 'कॉर्पोरेट खेती' के आगमन की आहट
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बजट 2018 : भारत में 'कॉर्पोरेट खेती' के आगमन की आहट

कृषि का बाजारीकरण कोई नई परिघटना नहीं है. यह ब्रिटिश भारत में भी देखा जा चुका है, जब कृषि को विश्व बाजार से जोड़ दिया गया था. खराब फसल हो या बंपर, दोनों ही स्थितियों में किसान फायदे में नहीं होते थे. ऐसी व्यवस्था में किसानों की नियति बाजार तय करता है...

बजट 2018 : भारत में 'कॉर्पोरेट खेती' के आगमन की आहट

मोदी सरकार ने वर्ष 2018-19 के बजट में घोषणा की है कि वह किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए उसकी लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाएगी. मनमोहन सरकार द्वारा कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट 2006 में आने के बाद किसानों की यह मांग रही थी. जो कांग्रेस सात-आठ साल तक इस रिपोर्ट पर बैठी हुई थी, वह भी अन्य संगठनों के साथ मिलकर भाजपा को किसान विरोधी दिखाने के लिए पिछले कुछ समय से यह मांग उठा रही थी. खुद भाजपा के घोषणा पत्र में भी इसका जिक्र था. इसके बावजूद भाजपा इस पर चुपचाप बैठी हुई थी. जाहिर है इसका कारण राजनीतिक है. लोकसभा चुनाव नजदीक है. देश की करीब 60 प्रतिशत आबादी को लुभाने के लिए वह इसका इस्तेमाल करेगी. इसमें कुछ भी बुरा नहीं है, यही लोकतंत्र का सौंदर्य है, उसकी ताकत है. लेकिन इस फैसले को लागू करने में सरकार की ईमानदारी दिखनी चाहिए.

अभी सरकार ने बजट में ही घोषणा की है कि इससे पहले ही रबी की अधिकांश फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से कम से कम डेढ़ गुना तय किया जा चुका है. कृषि के जानकारों के लिए सरकार की यह घोषणा चौंकाने वाली है. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का उसका मानदंड कितना सटीक है?

अगर इस बात को यहीं छोड़ दिया जाए, तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार किस प्रकार किसानों को यह मूल्य दिलाएगी. समस्या यह है कि करीब छह प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है. बाकी किसान औने-पौने दाम पर अपना अनाज बिचौलियों के हाथों बेचने पर मजबूर होते हैं. सरकारें किसानों का अनाज खरीद नहीं कर पातीं. ऐसी स्थिति में समर्थन मूल्य की घोषणा कर देना पर्याप्त नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि सरकार इस समस्या की गंभीरता से परिचित नहीं है. बजट में इसकी चर्चा है. इस संदर्भ में यह कहा गया है कि नीति आयोग केंद्र और राज्य सरकार से चर्चा करके एक पुख्ता व्यवस्था तैयार करेगा. यानी अब भी स्थिति साफ नहीं है. अगर केंद्र सरकार राज्यों पर इसकी जिम्मेदारी डालकर अपना पल्ला झाड़ ले, तो फिर इस घोषणा का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. समय की मांग है कि केंद्र सरकार इसकी जिम्मेदारी खुद उठाए.

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बेशक किसानों की माली हालत सुधारने के लिए जरूरी है कि उनको उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले. पर धीरे-धीरे कृषक समाज में यह धारणा बढ़ती जा रही है कि उसकी आय कैसे बढ़े. मोदी सरकार भी बार-बार यह कहती है कि वह 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन पिछले तीन वर्षों का उसका रिकार्ड आश्वस्त करता नहीं दिखता. सरकार की रणनीति किसानों को बाजार से जोड़कर उनकी आमदनी दोगुना करने की प्रतीत होती है. इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट का नेटवर्क खड़ा करने पर जोर दिया जा रहा है. इसके तहत ग्रामीण कृषि मंडियों को इनसे जोड़ा जा रहा है. सरकार ने ग्रामीण कृषि बाजारों और कृषि उत्पाद बाजार समितियों के विकास के लिए एक कृषि बाजार अवसंरचना कोष की स्थापना की है. यह किसानों के लिए तभी फायदेमंद हो सकता है, जब बड़े पैमाने पर ग्रामीण कृषि बाजार बनाए जाएं. साथ ही साथ, सरकार को यह भी सुनिश्चित करना पड़ेगा कि उपभोक्ता या थोक व्यापारी सीधे किसानों से खरीद करें, किसी बिचौलियों से नहीं. जब समर्थन मूल्य की घोषणा के बावजूद उन्हें अपने उत्पादों का लाभकारी मूल्य नहीं मिल पाता, तो बिल्कुल बाजार के हवाले करने पर उनका क्या होगा?

ध्यान देने की बात है कि हाल ही में पेश की गई वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में भविष्य में अधिक उत्पादनकारी, किन्तु कम किसान और खेत सुनिश्चित करने की वकालत की गई है. इसके पीछे तर्क यह है कि कृषि आजीविका का प्रधान स्रोत नहीं हो सकता, यह विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के स्तर तक नहीं पहुंच सकता. स्वाभाविक तौर पर इसके विकल्प के रूप में औद्योगिकीकरण और नगरीकरण को देखा जाएगा. अगर इसको राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद की नीति के साथ जोड़कर देखा जाए, तो कॉर्पोरेट फार्मिंग की आहट को महसूस किया जा सकता है. इसमें कृषि पर आधारित 58 प्रतिशत आबादी को 2022 तक 38 प्रतिशत पर लाने का लक्ष्य रखा गया है.

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पिछले साल के बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस लिहाज से दो महत्वपूर्ण बातें कही थीं. एक तो यह कि सरकार फल-सब्जी जैसे शीघ्र नष्ट हो जाने वाले कृषि उत्पादों को कृषि उत्पाद बाजार समितियों की सूची से बाहर करने के लिए राज्यों से कहेगी, ताकि किसानों को अपना अनाज बेचने में सुविधा हो. साथ ही इनके उत्पादक किसानों को बेहतर मूल्य और सुनिश्चित बाजार दिलाने के लिए कृषि प्रसंस्करण उद्योगों से जोड़ने का प्रयास करेगी. इसके लिए राज्यों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का माडल बनाकर भेजा जाएगा. इसमें किसानों को तभी फायदा हो सकता है, जब सरकार उनके पक्ष में कायदे-कानून बनाए, अन्यथा उनके पास इतनी क्षमता नहीं है कि वे बड़ी-बड़ी कंपनियों से कानूनी लड़ाई लड़ सकें. अभी यह बता पाना कठिन है कि इस दिशा में अभी तक कितनी प्रगति हुई है, लेकिन इस साल सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय का बजटीय आवंटन दोगुना कर दिया है. सरकार को कृषि उत्पादों के निर्यात की भारी संभावना दिख रही है.

कृषि का वाणिज्यीकरण कोई नई परिघटना नहीं है. यह ब्रिटिश भारत में भी देखा जा चुका है, जब कृषि को विश्व बाजार से जोड़ दिया गया था. खराब फसल हो या बंपर, दोनों ही स्थितियों में किसान फायदे में नहीं होते थे. ऐसी व्यवस्था में किसानों की नियति बाजार तय करता है, पूंजीहीन किसानों का इस पर नियंत्रण नहीं होता. इसलिए संभव है बाजारवादी व्यवस्था में खेती में उत्पादकता और उत्पादन बढ़ जाए, लेकिन गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह किसानों, खासकर छोटे-मझोले किसानों के लिए फायदेमंद हो. अब जब खुदरा क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजा खोल दिया गया है, तो आने वाले समय में भारत में कॉर्पोरेट खेती परवान चढ़ सकती है. भूमि हदबंदी कानून की तोड़ के लिए वे लीज पर जमीन लेकर खेती की शुरुआत कर सकती हैं. भारत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का अब तक का अनुभव अच्छा नहीं रहा है. किसान कर्ज और आत्महत्या से नहीं उबर सके. ऐसे में सरकार को सतत निगरानी रखनी होगी. अगर यह मॉडल ठीक तरीके से काम करता है, तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा होगा. ग्रामीण किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरने पर मांग बढ़ेगी, जिससे उद्योगों में भी उत्पादन और रोजगार बढ़ेगा.

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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