आज फिर जीने की तमन्ना है...
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आज फिर जीने की तमन्ना है...

एक वक्त था जब वहीदा रहमान एक खूबसूरत सपने की तरह हर आंखों में बसती थीं। नए दौर में खूबसूरती की परिभाषा बेशक बदल गई हो लेकिन 77 साल की वहीदा जी में जो सादगी और संज़ीदापन है वो आज भी उन्हें खास बना देता है।

आज फिर जीने की तमन्ना है...

एक वक्त था जब वहीदा रहमान एक खूबसूरत सपने की तरह हर आंखों में बसती थीं। नए दौर में खूबसूरती की परिभाषा बेशक बदल गई हो लेकिन 77 साल की वहीदा जी में जो सादगी और संज़ीदापन है वो आज भी उन्हें खास बना देता है। उन्हें देख कर, उनसे मिलकर ये एहसास ही नहीं होता कि वो उम्र के इस पड़ाव पर आ पहुंची हैं। अब भी वही ताज़गी, वही तहज़ीब, सहमी सहमी सी आंखें लेकिन बातचीत में बेहद अपनापन।

वहीदा जी बताती हैं कि वो आम तौर पर घर में ही रहती हैं, बाहर कम ही निकलती हैं, इंटरव्यू देना उन्हें अच्छा नहीं लगता लेकिन सिनेमा का जो लंबा दौर उन्होंने देखा है वो हर वक्त उनके साथ होता है... उनकी यादों में, उनकी बातों में। खासकर गुरूदत्त और देव आनंद के साथ बीते उनके वो पल जो उन्हें फिर से उसी दुनिया में ले जाते हैं। चाहे वो ‘प्यासा’ हो, ‘काग़ज़ के फूल’ हो, ‘साहब, बीवी और गुलाम’ हो, ‘मुझे जीने दो’, ‘रेशमा और शेरा’ और ‘तीसरी कसम’ हो या फिर उनकी सबसे बेहतरीन और पसंदीदा फिल्म ‘गाइड’। अपनी फिल्मों की बात करते हुए वो ‘ख़ामोशी’ का नाम लेना भी नहीं भूलतीं। वो खुद को खुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें इतनी सारी क्लासिक फिल्मों में काम करने का मौका मिला।
 
ज़ी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वहीदा जी का आना एक उपलब्धि की तरह था। वैसे तो साहित्य के इस सबसे बड़े मेले में बॉलीवुड की तमाम शख्सियतें हर बार सबकी निगाह खींचती हैं। इस बार भी नसीरूद्दीन शाह, शबाना आज़मी, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी, विशाल भारद्वाज, गिरीश कर्नाड के आलावा कई हस्तियां यहां पहुंचीं और इनके सत्र में लोगों की ज़बरदस्त भीड़ नज़र आई। लेकिन वहीदा रहमान को देखने सुनने वालों ने जिस खामोशी से उन्हें सुना और खुद को उनके बहुत करीब पाया.. उससे साबित होता है कि बदले हुए सिनेमा, ग्लैमर की बदली हुई परिभाषा और इस नए दौर में भी वहीदा रहमान ताज़े हवा के एहसास और सुकून की तरह हैं।

इस दौरान वहीदा जी ने जिस तरह अपनी बात रखी उसके कुछ हिस्से हू ब हू आपको सुनाना चाहूंगा। फिल्मों में काम करने जब वो आईं और गुरूदत्त ने उनका नाम वहीदा रहमान से बदलकर कुछ और रखना चाहा तब का वाकया वो कुछ यूं बयान करती हैं। ‘जब मैं नई-नई थी और चेन्नई से बॉम्बे बुलाया गया मुझे... गुरूदत्त जी ने बुलाया एक कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के लिए तो उन्होंने स्टिल फोटोग्राफ्स वगैरह लिए और कहा.. हां ठीक है आपका फोटोजेनिक फेस है.. तो हम कांन्ट्रेक्ट साइन करेंगे, मेरी वालिदा मेरे साथ थीं.. गुरूदत्त जी ने कहा कि हम आपका नाम चेंज करना चाहते हैं क्योंकि बहुत लंबा है और अच्छा भी नहीं है। जब उन्होंने कहा कि अच्छा नहीं है तो मुझे बहुत बुरा लगा कि ये क्या बात है कि मेरे मां बाप ने मेरा नाम रखा तो आप कौन होते हैं ये बताने वाले कि अच्छा नहीं है। मैंने साफ कह दिया कि नहीं साहब मैं अपना नाम नहीं चेंज करूंगी। तो कहने लगे कि बहुत लंबा है। मैंने कहा.. देखिए.. स्क्रीन पर आएगा वहीदा रहमान लेकिन काम के दौरान या आपस में आप सिर्फ वहीदा बुलाइए.. तो कहने लगे कि ये ट्रेंड है इंडस्ट्री का.. कि लोग अपना नाम चेंज करते हैं। उन्होंने मिसाल दी – दिलीप कुमार, मधुबाला, मीना कुमारी और कई लोग.. लेकिन उस वक्त मेरे अंदर अकड़ बहुत थी.. तो मैंने कहा कि मेरे मां बाप ने मुझे ये नाम दिया, मैं नहीं चेंज करूंगी.. फिर वो कहने लगे कि इसमें ग्लैमर नहीं है, ये नहीं है.. वो नहीं है.. लेकिन मैंने कह दिया कि आप चाहे जो कह लीजिए, मैं अपना नाम नहीं चेंज करूंगी। तो राज खोसला थे.. सीआईडी के डायरेक्टर.. वो गुरूदत्त जी के बहुत अच्छे दोस्त थे.. वो पंजाबी थे और ज़रा जोशीले थे...और गुरूदत्त जी बड़े खामोश टाइप के थे.. तो कहने लगे कि कोई नया आर्टिस्ट आता है तो हमारी शर्तों पर काम करता है.. एक तो हम तुमको बुलाकर काम दे रहे हैं फिर अपनी कंडीशन्स लगा रही हैं आप.. मैंने कहा कि देखिए गिव एंड टेक होना चाहिए...तो उन्होंने कहा कि अच्छा आप जाइए होटल हम सोचेंगे... तीन दिन बाद उन्होंने बुलाया और कहा कि ठीक है हम आपका नाम वहीदा रहमान ही रखेंगे...मैंने कहा थैंक्यू वेरी मच..।‘

वहीदा जी पूरा किस्सा सुनाते हुए पूरी तरह उन दिनों की यादों में डूब जाती हैं ...कुछ इसी तरह वो देव साहब को याद करती हैं – ‘मैं उनसे पहली बार सीआईडी के सेट पर मिली.. मैं उनकी बहुत बड़ी फैन थी... मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि मैं देवानंद के साथ काम कर रही हूं... वो बेहद संज़ीदा थे, बेहद शर्मीले से भी थे... तो जैसा हमें हमारे बुज़ुर्गों ने सिखाया कि बड़ों की इज़्जत करें, हमेशा उन्हें आदर के साथ बुलाएं.. जैसे देव साहब, राज खोसला साहब या जी.. लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं.. आप हमें सिर्फ देव कहिए... मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है.. आप बड़े हैं, मेरे सीनियर हैं और आप इतने बड़े स्टार हैं.. मैं भला आपको सिर्फ देव कैसे बुलाऊं... लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं आप मुझे सिर्फ देव बुलाइए.. अगले दिन जब मैंने उन्हें देव साहब बुलाया तो वो इधर-उधर देखने लगे और कहा कि सिर्फ देव... तो वो एक ही मेरे हीरो हैं जिनको मैं सिर्फ देव कहती हूं.. और बाकी तो अमिताभ जी, सुनील जी..वगैरह वगैरह.. जी और साहब.. लेकिन ओनली देव वाज़ देव..।’

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सत्यजीत रे और गुरूदत्त के फिल्म बनाने और शूट करने के अंदाज़ को भी वहीदा जी ने बहुत बारीकी से पकड़ा –‘गुरूदत्त जी जो थे वो बड़े खामोश किस्म के आदमी थे लेकिन हर एक टेक के बाद उनको तसल्ली नहीं होती थी, वो बहुत परफेक्शनिस्ट थे.. और एक शॉट हो जाए.. और एक टेक हो जाए.. ये सिलसिला चलता रहता था.. जबकि सत्यजीत रे का दिमाग हर शॉट को लेकर एकदम साफ था.. एक बार कह देते थे और कोई भी शॉट तीन – चार मिनट में पूरा हो जाता था.. वो खुद एडिटर भी थे, उन्हें पता था कि उन्हें कितना शॉट इस्तेमाल करना है.. हालांकि गुरूदत्त जी भी एडिटिंग में शामिल होते थे लेकिन वो चाहते थे और हो जाए और हो जाए... उन्हें जल्दी तसल्ली नहीं होती थी.. वो खुद अपने शॉट से खुश नहीं होते थे..।’

वहीदा जी खुद को बेहद लो प्रोफाइल मानती हैं। उन्हें जताने या दिखाने का एकदम शौक नहीं रहा.. उस वक्त एक्टिंग स्कूल नहीं होते थे.. इसलिए एक्टिंग तो कहीं से सीखी नहीं... भरतनाट्यम उन्होंने ज़रूर सीखा था.. लेकिन स्टेज पर डांस परफॉर्म करने और एक्टिंग करने में फर्क है.. उन्हें हमेशा से नेचुरल चीज़ें ज्यादा पसंद रही हैं। खुद को ‘सिचुएशन’ के हिसाब से कल्पना करके.. खुद को ‘कैरेक्टर’ की तरह महसूस करते हुए उन्होंने एक्टिंग करने की कोशिश की... शायद यही उनकी सबसे बड़ी ताकत बनीं और वो एक बेहतरीन और नैचुरल अदाकारा बन पाईं।    

इंडस्ट्री में अपनी सबसे अज़ीज़ दोस्त नंदा को वो तहे दिल से याद करती हैं... और ये बताती हैं कि बॉलीवुड से जुड़े लोगों के बारे में मीडिया में जिस तरह की अटकलें लगाई जाती हैं और तरह तरह की अफ़वाहें उड़ाई जाती हैं, उससे वहीदा जी कुछ ख़फा रहती हैं। मीडिया के बारे में ज़रा उनकी राय सुनिए... ‘सॉरी टू से...मीडिया जो है बहुत ज्यादा हर चीज़ को बड़ा-चढ़ा कर बताता है.. वो कहावत है न कि पर उड़ा तो वो कहेंगे कि कौआ उड़ा या भैंस उड़ गई... यहां तो पर का नामोनिशान नहीं होता.. वो हाथी को उड़ा देते हैं... मीडिया शायद यही है..।’

वो कहती हैं कि ‘आज के दौर के कलाकार इतने मसरूफ रहते हैं.. फिर उम्र का भी बड़ा फासला हो जाता है इसलिए अब किसी के पास किसी से मिलने-जुलने का वक्त ही नहीं होता.. हां अभिषेक बच्चन है जो बहुत प्यार से मिलता है... अमिताभ.. जया को मैं उनकी शादी से पहले से जानती हूं.. तो अभिषेक अक्सर आता है.. अपनी फिल्मों के बारे में बताता है.. बाकी और लोग काम में काफी मसरूफ रहते हैं.. शायद इसलिए नहीं मिल पाते...’ 1974 में कमलजीत सिंह से शादी करने के बाद वहीदा जी बैंगलोर चली गईं। उस दौरान उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ ‘कभी कभी’ और ‘अदालत’ जैसी फिल्में कीं... फिर उनके दोनों बच्चे काशवी और सोहैल जब स्कूल जाने लगे तब यश चोपड़ा जी के कहने पर उन्होंने ‘लम्हे’ की.. फिर दस साल तक कुछ नहीं किया.... उसके बाद ‘ओम जय जगदीश’, ‘रंग दे बसंती’ और ‘दिल्ली – 6’ में काम किया... लेकिन फिलहाल वहीदा जी घर में रहती हैं... अपना वक्त खुद को फिट रखने में, योगा करने से लेकर खाना पकाने और घरेलू कामकाज में बिताती हैं... दोपहर तीन बजे के बाद किसी से मिलती नहीं हैं.. खासकर इंटरव्यू नहीं देतीं। लेकिन वहीदा जी आज भी वही वहीदा जी हैं... बात करते-करते उन्हीं दिनों में खो जाती हैं और बन जाती हैं गाइड वाली चुलबुली सी.. शोख और अल्हड़ सी रोज़ी...बदलते दौर के फिल्मकार अब उनके लिए क्या भूमिका तलाशते हैं... किस तरह इंडस्ट्री में फिर से उनका किरदार तय करते हैं... या उन्हें कब लाइफ टाइम एटीवमेंट अवार्ड से नवाज़ते हैं... सबको इसका इंतज़ार है... फिलहाल वहीदा जी को जन्मदिन की बहुत सारी शुभकामनाएं।

(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स में एक्सक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं।)

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