ऐसा माना जा रहा है कि सपा और बसपा के साथ आने से पैदा हुई स्थिति को बीजेपी के नेतृत्त्व ने गंभीरता से नहीं लिया
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उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजों से देश में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ संयुक्त विपक्षी मोर्चा बनाने की मुहिम में तेजी आ सकती है. जिस तरह लगभग एक साल के शासन, अपने व्यक्तिगत प्रभाव और अपनी आस्था का बार-बार स्पष्ट प्रदर्शन करने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लोगों को यह विश्वास दिलाने में असफल रहे हैं कि लोकसभा में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधत्व करने के लिए उनके बजाय उनकी पार्टी का कोई अन्य व्यक्ति उपयुक्त है. उसी तरह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे हैं कि ये दोनों दल ही बीजेपी के विजय रथ को रोकने में सक्षम हैं. यह बात अलग है कि इन नतीजों से बीजेपी के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान को जबरदस्त ताकत मिली है.
बीजेपी के लिए यह नतीजे इसलिए भी ज्यादा चिंताजनक हैं क्योंकि इन दोनों ही क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के दो शीर्ष नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से पांच बार सांसद रह चुके हैं और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या फूलपुर से सांसद थे. इन दोनों ही ने 2014 का लोकसभा चुनाव बड़े बहुमत से चुनाव जीता था. जहां गोरखनाथ पीठ के मुखिया योगी आदित्यनाथ का उस क्षेत्र में गहरा प्रभाव है, लेकिन अब लगता है कि मौर्या की फूलपुर से जीत केवल मोदी लहर के प्रभाव की वजह से ही संभव हुई थी. गोरखपुर से मिल रही ख़बरों के अनुसार लोगों का यही सोचना था कि यदि ‘महाराज जी’ (योगी को आम तौर पर लोग इसी नाम से जानते हैं) खुद चुनाव लड़ रहे होते तो बात अलग थी, लेकिन यदि वे लड़ाई में नहीं थे तो लोग भी अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र थे.
गोरखपुर में पिछले साल मेडिकल कॉलेज हुई घटना में कई बच्चों की असामयिक मौत, आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (एम्स) के स्थापना में देरी, बंद पड़े खाद कारखाने को फिर से चलवाने में देरी, गोरखपुर शहर की सुविधाओं में कोई विशेष सुधार न आना, और इस उपचुनाव में उलझे जातिगत समीकरणों का न सुलझ पाना बीजेपी के लिए हार, और योगी के लिए शर्मिंदगी का कारण बना है. यह भी उल्लेखनीय है कि योगी ने यहां से लोकसभा चुनाव तब भी जीता जब बीजेपी प्रदेश में सत्ता में नहीं थी, और अब, जबकि न केवल बीजेपी सत्ता में है बल्कि योगी खुद मुख्यमंत्री हैं. यह हार उनके लिए व्यक्तिगत झटका है. यह विरोधाभास ही है कि विधान सभा में भारी बहुमत होने के बावजूद इस हार के बाद उनके इस्तीफे की मांग की जा रही है.
ऐसा माना जा रहा है कि सपा और बसपा के साथ आने से पैदा हुई स्थिति को बीजेपी के नेतृत्त्व ने गंभीरता से नहीं लिया, और अपनी रणनीति में वांछित बदलाव नहीं किए. केशव प्रसाद मौर्या ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात को माना भी है. दोनों ही जगहों में पिछड़े वर्ग व दलित मतदाताओं की अपेक्षाओं को नज़रंदाज़ करना बीजेपी को भारी पड़ा, और यही बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में भावी राजनीतिक रणनीति के लिए पहली सीख है. गोरखपुर में ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण वर्गों के बीच मतभेद और तनाव का पुराना इतिहास है और स्थानीय लोगों की माने तो यह चुनाव अंततः ब्राह्मण बनाम अन्य में बदल गया.
जहां तक फूलपुर का सवाल है, यह लोकसभा सीट कभी भी बीजेपी के लिए सुविधाजनक नहीं रही. साठ के दशक में यहां कांग्रेस का बोलबाला रहा था और बाद के लोक सभा चुनावों में अधिकतर बार जनता दल, समाजवादी पार्टी और एक बार बसपा ने जीत हासिल की है. इलाहाबाद से लगे हुए इस क्षेत्र में पिछड़े वर्ग और दलित समुदाय की पसंद मायने रखती है और हालांकि इस चुनाव में बीजेपी और सपा दोनों ही ने पटेल उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन परंपरागत तौर पर बीजेपी की कोई जमीन न होने की वजह से बीजेपी के पटेल हार गए और सपा के नागेंद्र पटेल जीत गए.
अब उत्तर प्रदेश की सरकार और स्वयं योगी आदित्यनाथ के लिए तुरंत की चुनौती यह है कि वे अपने काम करने के तरीकों में किस तरह के बदलाव लाएं. सरकार के तंत्र में भ्रष्टाचार के आरोप फिर सर उठाने लगे हैं. वरिष्ठ नेताओं के बीच तनाव की वजह से निर्णय प्रभावित हो रहे हैं, मंत्री, विधायक, सांसद व पार्टी के पदाधिकारी अपने अभिमान की वजह से लोगों से कट रहे हैं. आम चर्चा है कि संगठन के कुछ शीर्ष नेता सरकार पर भारी पड़ रहे हैं. दूसरी ओर सपा के नेता चुटकी ले रहे हैं कि अखिलेश यादव के मना करने के बावजूद योगी नोएडा चले गए, यह हार उसी का परिणाम है (यह आम अंधविश्वास है कि जो मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल में नोएडा गया है उसका कार्यकाल या तो जल्दी ख़त्म हो जाता है या वो चुनाव हार जाता है. अखिलेश यादव भी कह चुके हैं कि वह इसे मानते हैं.)
नतीजों का विश्लेषण किसी भी तरह से किया जाए, यह तो स्पष्ट है कि सभी अन्य दलों के साथ आ जाने पर बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है. कांग्रेस के सामने अब तीसरे या चौथे नंबर के सहयोगी बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता. इन परिणामों से उत्साहित सपा और बसपा के कार्यकर्त्ता लखनऊ से लेकर गोरखपुर तक ‘बुआ-भतीजा जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे हैं. यदि आने वाले महीनों में सपा और बसपा के बीच नेतृत्त्व के मुद्दे पर कोई नया टकराव नहीं उठ खड़ा हुआ, तो उनका यह गठजोड़ बीजेपी के मिशन-2019 को धाराशायी करने के लिए काफी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)