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पिछले कई दिनों से मांस बिक्री को लेकर देश में सियासत गरमा गई है। शायद ऐसा पहली बार होगा जब जैन धर्म के एक धार्मिक पर्व को लेकर कई राज्यों में मांस की बिक्री पर पाबंदी लगाई गई है। सियासत इतनी गरमाई और बातें इस कदर आगे बढ़ी कि इसके लिए याचिकाएं तक दायर होने लगी। मामला अदालत की चौखट तक जा पहुंचा । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें दखलंदाजी करने की नौबत आ गई।
सुप्रीम कोर्ट ने जैन समुदाय के पर्व पर्यूषण के दौरान मुंबई में मांस की बिक्री पर रोक लगाने के बंबई हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर विचार से इंकार कर दिया। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि सहिष्णुता की भावना होनी चाहिए और कोई भी चीज किसी एक वर्ग विशेष पर थोपी नहीं जानी चाहिए।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि मांस बिक्री को लेकर इतना हाय-तौबा मचाया जाना किसी नजरिए से ठीक नहीं है। यूं तो मैं खुद पूर्णत: शाकाहारी व्यक्ति हूं लेकिन मेरा ये मानना है कि अपने आहार को तय करने के साथ आप किसी दूसरे व्यक्ति के आहार या फिर उसकी रूचि का निर्धारण नहीं कर सकते है। अगर मैं शाकाहारी परिवेश में पला-बढ़ा हूं और मेरी मांस खाने की आदत नहीं है तो मैं शाकाहारी हूं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति बचपन से मांसाहार कर रहा है और वो उसके आहार में शुमार है तो इसमें गलत कुछ भी नहीं ।
किसी भी स्थान का भोजन वहां की भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर होता है। ओडिशा में मैं कई जगहों पर गया हूं। मैंने देखा है वहां औसतन हर घर में हफ्ते में पांच दिन मांस-मछली बनता है। बिहार और यूपी के लोग मंगलवार, गुरुवार आदि दिनों में मांस भक्षण करना अशुभ मानते है। लेकिन ओडिशा में ऐसा नहीं देखा मैंने। वहां के खानपान में मांस उसी प्रकार का आहार है जैसा एक शाकाहारी व्यक्ति के लिए चावल, दाल और रोटी रोजाना का आहार होता है। सोचने वाली बात है कि समुद्र तट के लोग मछली, झींगा छोड़ कर हर रोज शाक-सब्जी तो नहीं खाएंगे। मांसाहार किसी धर्म और जाति का मसला है ही नहीं और इसे जोड़ना भी नहीं चाहिए।
जैन धर्म के पर्यूषण पर्व की वजह से मुंबई में मांस की बिक्री पर एक दिन, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तीन अलग-अलग दिनों के लिए रोक लगाई गई जिसे लेकर खूब बवाल मच रहा है। कई लोग हैं जो सोमवार, मंगलवार, गुरुवार या विभिन्न पर्व-तिथियों पर मांस नहीं खाते। कुछ तो सप्ताह में एक दिन नमक से भी परहेज करते हैं। इसके पीछे धार्मिक कारणों के साथ स्वास्थ्य संबंधी वैज्ञानिक आधार भी एक वजह बताई जाती है। लेकिन एक बात साफ है कि जो लोग लगभग हर दिन मांसाहार करते हैं वो सावन ,नवरात्र जैसे पवित्र दिनों में इसका त्याग कर देते हैं। लेकिन बंगाली समुदाय में ऐसा नहीं होता है। वहां नवरात्र में भी अष्टमी की तिथि छोड़कर हर दिन मांसाहार की परंपरा है। यानी वहां की संस्कृति में सिर्फ अष्टमी को ही मांस भक्षण का त्याग करते है जबकि हिंदू धर्म के ज्यादातर जातियों में पूरे नवरात्र मांस के सेवन से परहेज करते है।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही है कि आहार-विहार-विचार जैसी चीजें किसी की भी व्यक्तिगत होती है। कोई क्या खाता है, यह उस अमुक व्यक्ति पर निर्भर करता है। खानपान की चीजों को लेकर कुछ भी थोपी नहीं जा सकती है। यह सबकुछ परिवेश के साथ आदतों पर भी निर्भर करता है। ठीक उसी प्रकार कोई क्या विचार करता है यह उस व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर निर्भर करता है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति पर कुछ भी थोपा नहीं जा सकता है। यही बात गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी कही है । आहार का मसला उतना संवेदनशील नहीं है जितना बनाया जा रहा है। मांस बिक्री का मसला भी आहार से जुड़ा है। मांस की बिक्री इसलिए होती है क्योंकि लोग उसे खाते है। लिहाजा इस मुद्दे को तूल देने या किसी सियासत करना ठीक नहीं है।