कोरोना महामारी (Coronavirus) को लेकर चीन चौतरफा घिरता जा रहा है. अमेरिका में चीन के खिलाफ मुकदमा दायर किया गया है और अब जर्मनी ने भी कोरोना के कहर को लेकर उससे हर्जाना मांगा है.
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नई दिल्ली: कोरोना महामारी (Coronavirus) को लेकर चीन चौतरफा घिरता जा रहा है. अमेरिका में चीन के खिलाफ मुकदमा दायर किया गया है और अब जर्मनी ने भी कोरोना के कहर को लेकर उससे हर्जाना मांगा है. कोरोना संकट के चलते पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है, लिहाजा अब लोग चाहते हैं कि विश्व को इस महामारी की आग में झोंकने वाले चीन से इसकी कीमत वसूली जानी चाहिए. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) की चीन को खुलेआम धमकी के बाद जर्मनी ने कोरोना वायरस से हुए भारी नुकसान का हर्जाना भरने के लिए उसे 149 बिलियन यूरो (यानी करीब 12 लाख करोड़) का बिल भेज दिया है. इसमें टूरिज्म, फिल्म इंड्रस्ट्री, एविएशन, उद्योगों को हुआ नुकसान शामिल है.
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गौरतलब है कि कोरोना वायरस के कारण दुनियाभर में 1 लाख 70 हजार से ज्यादा मौतें हुई हैं, जिनमें से एक लाख अकेले यूरोप में हैं. यही कारण है कि यूरोपीय देश सबसे ज्यादा चीन से खफा हैं और उसे चीन की साजिश बता रहे हैं. जर्मनी में कोरोना वायरस के कारण साढ़े चार हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है और यहां अब कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा डेढ़ लाख को पार कर गया है. जर्मन सरकार ने कहा कि यूरोप में 1 लाख लोगों को मारने वाली इस महामारी को रोका जा सकता था, बशर्ते चीन ने सही समय पर इसका खुलासा होता. चीन को भेजे बिल में जर्मनी ने बाकायदा नुकसान का ब्योरा भी दिया है.
वहीं, अमेरिका के मिसौरी राज्य ने कोरोना वायरस को लेकर चीनी सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया है. इसमें चीनी अधिकारियों को वैश्विक महामारी के लिए दोषी बताते हुए कहा गया है कि महामारी की शुरुआत में बीजिंग ने दुनिया को गलत जानकारी दी. इतना ही नहीं चीन पर अब इस महामारी का व्यावसायिक फायदा उठाने का संदेह भी किया जा रहा है.
कारोबार के मामले पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सलाहकार पीटर नावेरो ने आरोप लगाया है कि चीन संक्रमण के प्रारंभिक दौर का डाटा जारी नहीं कर रहा है, क्योंकि वो इसका वैक्सीन बनाकर कारोबारी दौड़ में आगे निकलना चाहता है. उन्होंने ये दावा भी किया कि चीन ने इस संकट का फायदा उठाने के लिए जनवरी और फरवरी में ही मास्क और निजी सुरक्षात्मक उपकरणों (PPE) का 18 गुना ज्यादा भंडार कर लिया था.
अब वो इन चिकित्सा सामान को ऊंचे दामों पर बेच रहा है. चीन की इस जमाखोरी के चलते ही यूरोप, भारत, ब्राजील और अन्य देशों के पास निजी सुरक्षात्मक उपकरणों का पर्याप्त भंडार नहीं है. आपको बता दें कि अमेरिका इस वक्त कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित है. यहां 8 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हैं और 45 हज़ार से ज्यादा की जान जा चुकी है.
अमेरिका के वार पर चीन का पलटवार
उधर, अपने खिलाफ दुनिया के कड़े होते तेवर देखते हुए चीन भी सख्त रुख अपना रहा है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की धमकी के बाद चीन ने बड़ा जवाबी हमला किया है. बीजिंग ने कहा कि अगर कोरोना के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जा रहा है तो स्वाइन फ्लू और एड्स के लिए अमेरिका की जिम्मेदारी क्यों तय नहीं की गई थी? जब HIV और H1N1 वायरस का केंद्र अमेरिका होने के बावजूद उस पर कोई दंड नहीं लगाया गया, तो फिर कोरोना के लिए हमारे खिलाफ कार्रवाई की मांग क्यों हो रही है? दरअसल, डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन को निशाना बनाते हुए कहा था कि अगर ये गलती है तो फिर गलती है, लेकिन अगर ऐसा जानबूझकर किया गया है तो उसे (चीन) इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा
उठाया यह बड़ा सवाल
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा कि 2009 में अमेरिका में जो H1N1 फ्लू शुरु हुआ, वो 214 देशों और क्षेत्रों में फैल गया था. इससे लगभग 200,000 लोग मारे गए थे, क्या किसी ने मुआवजे के लिए अमेरिका से मांग की थी? एड्स पहली बार अमेरिका में 1980 के दशक में मिला था और दुनिया में फैल गया, जिससे दुनिया के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हुई, तब क्या किसी ने अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया था? दिसंबर में कोरोना वायरस का मामला सामने आने के बाद ही ट्रंप ने उसे चीनी वायरस बुलाना शुरू किया था और आरोप लगाए थे कि उसने वायरस को लेकर दुनिया से सच छुपाया है. वहीं, जब अमेरिका में भयावह स्थिति पैदा हुई तो विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने चीन की जवाबदेही तय किए जाने की मांग की.
दरअसल कोरोना वायरस को लेकर चीन के वुहान की खतरनाक लैब को ही सारी दुनिया शक की निगाह से देख रही है. कोरोना वायरस कहीं वुहान की लैब से तो नहीं निकला इस पर अमेरिका ने जांच शुरू कर दी है. तहकीकात को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिका की एक्सपर्ट टीम चीन में जांच के लिए जाए. ट्रंप ने दावा किया है कि अमेरिका से जांच टीम भेजने के लिए चीन से बात की थी, लेकिन चीन ने अभी तक इस पर कोई जवाब नहीं दिया है. वुहान की जिस वायरोलॉजी लैब पर कोरोना लीक करने का शक है, ये वही लैब है जहां शोध कराने के लिए अमेरिका भी फंड देता था. लेकिन अमेरिका को इस बात की भनक शायद जरा भी नही रही होगी कि इस लैब में बनाया गया कोरोना वायरस अमेरिका के लिए इतना बड़ा खतरा बन जाएगा. चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती इस तल्खी को WHO ने आग से खेलने जैसा बताया है.
इधर, चीन के आर्थिक बहिष्कार की तैयारी
कोरोना के प्रभाव को रोकने के लिए पूरी दुनिया इस समय सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing) का पालन कर रही है, लेकिन क्या चीन को सबक सिखाने के लिए दुनिया को उसके साथ आर्थिक दूरी (Economic Distancing) का फार्मूला अपनाना चाहिए? यानी क्या दुनिया को चीन का आर्थिक बहिष्कार करना चाहिए? दुनिया के दो बड़े देशों ने इस पर काम शुरू कर दिया है. जापान और अमेरिका अब चीन को उसके कर्मों की सजा देने की तैयारी में लग गए हैं. जापान ने एक बहुत बड़े आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है.
ये आर्थिक पैकेज 75 लाख करोड़ रुपये का है, जो जापान की कुल GDP का 20 फीसदी है. कहा जा रहा है कि जापान इतने बड़े पैकेज के ऐलान के जरिए चीन को कड़ा संदेश देने की कोशिश की है. क्योंकि इस राहत पैकेज के जरिए जापान अपनी बड़ी-बड़ी कंपनियों और फैक्ट्रियों को चीन से वापस बुलाना चाहता है. प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने कहा है कि जापान की जो कंपनियां ऐसा करेंगी उन्हें सरकार इस राहत पैकेज के तहत आर्थिक मदद देगी. जो कंपनियां जापान वापस आएंगी उनके लिए 15 हज़ार करोड़ रुपये और जो कंपनियां चीन छोड़कर किसी और देश में जाएंगी उनके लिए 1600 करोड़ रुपयों की मदद की जाएगी.
एक तरह से जापान ने अपनी कंपनियों को साफ-साफ इशारा कर दिया है कि वो चीन को छोड़कर किसी भी देश में जाने के लिए स्वतंत्र हैं. वहीं, अमेरिका ने भी चीन से अपनी कंपनियों को निकालने का काम शुरू कर दिया है.
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अमेरिकी कंपनियां भी समेट रहीं कारोबार
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की America First Policy की वजह से कई कंपनियां अब चीन छोड़ने पर मजबूर हैं. चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वॉर भी चल रहा है और यही वजह है कि पिछले साल अमेरिका की करीब 50 कंपनियों ने चीन को अलविदा कह दिया था. इस साल तो चीन छोड़ने वाली अमेरिकी कंपनियों की संख्या और ज्यादा तेज़ी से बढ़ सकती हैं. कंसल्टिंग फर्म केरनी (Kearney) के मुताबिक चीन के प्रति अब दुनिया भर की कंपनियों का रवैया धीरे-धीरे बदलने लगा है. अब ये कंपनियां चाहती हैं कि वो दुनिया के अलग-अलग देशों में कारोबार करें और वहां अपनी फैक्ट्रियां लगाएं ताकि चीन पर निर्भरता कम की जा सके.