Justin Trudeau Anti India Policy: वोट बैंक के लिए बची-खुची इज्जत भी दांव पर लगा देंगे ट्रूडो? पढ़िए भारत विरोध की इनसाइड स्टोरी
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Justin Trudeau Anti India Policy: वोट बैंक के लिए बची-खुची इज्जत भी दांव पर लगा देंगे ट्रूडो? पढ़िए भारत विरोध की इनसाइड स्टोरी

India-Canada Diplomatic row: भारत और कनाडा बीते एक साल से अबतक के सबसे जटिल राजनयिक संकट में उलझे हैं. कनाडा के प्रधानमंत्री (Justin Trudeau) ने जब खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या (Hardeep Singh Nijjar murder) में भारत के एजेंट्स का हाथ होने का आरोप लगाया, तब से बात ऐसी बिगड़ी गई कि संभाले नहीं संभल रही है.

Justin Trudeau Anti India Policy: वोट बैंक के लिए बची-खुची इज्जत भी दांव पर लगा देंगे ट्रूडो? पढ़िए भारत विरोध की इनसाइड स्टोरी

Deterioration of India-Canada relations: भारत और कनाडा बीते एक साल से अब तक के सबसे जटिल राजनयिक संकट में उलझे हैं. कनाडा (Canada) के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो (Justin Trudeau) ने जब से खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंट्स का हाथ होने का आरोप लगाया, तब से बात ऐसी बिगड़ गई है कि संभाले नहीं संभल रही है. राजनयिकों को निकालना हो या वो कड़े फैसले जिनकी वजह से भले ही कनाडा की इकोनॉमी की सांसे फूलने लगीं हों, लेकिन सरकार बचाने के लिए कुछ लोग भारत विरोधी आतंकियों के हाथ का खिलौना और उनके सर का ताज दोनों बने हुए हैं.

रस्सी जल गई, पर कुछ लोगों की जिद नहीं जली. वोट बैंक के लालच में लिए गए ट्रूडो के फैसलों की आलोचना खुद उनकी पार्टी के नेता कर रहे हैं. उन्हें अल्टीमेटम भी मिल चुका है. चुनाव पूर्व हुए तमाम सर्वेक्षणों में भी ट्रूडो की लुटिया डूबना तय माना जा रहा है. इसके बाद भी जाते-जाते वो भारत विरोधियों को खुश करने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं.

भारत-कनाडा के रिश्ते कैसे बिगड़ते चले गए?

भारत और कनाडा के बीच राजनयिक संबंध 1947 में स्थापित हुए. जो साझा लोकतांत्रिक मूल्यों और सांस्कृतिक संबंधों पर आधारित थे. 1949 में नेहरू की यात्रा के दौरान कनाडा ने परमाणु प्रौद्योगिकी में मदद का हाथ बढ़ाया तो दोनों के रिश्तों में मिठास आई. हालांकि इस रिश्ते को शुरुआत में चुनौतियों का सामना करना पड़ा. खासकर 1948 में जब कनाडा ने कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन किया. इसके बाद जो तनाव पैदा हुआ, अभी तक खत्म नहीं हुआ.

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1974 में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया तब कनाडा ने उसे शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा के प्रति  भारत की प्रतिबद्धता का उल्लंघन माना. इस तरह दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट की नई वजह पैदा हो गई. आगे चलकर रही सही कसर कनाड के नेताओं ने 1980 के दशक में भारत के आंतरिक हालातों पर टिप्पणी करते हुए पूरी कर दी. तब से अंदरखाने दोनों देशों के बीच तनातनी बनी रही.

विवाद की अन्य वजहें और ट्रूडो सरकार की खामोशी

1998 में भारत का परमाणु परीक्षण रहा हो या खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा 1985 में एयर इंडिया की फ्लाइट को उड़ा देना ( जिसमें सवार 329 लोगों की मौत हो गई थी). ऐसे कई मौके आए जिनसे रिश्तों की कड़वाहट बढ़ती ही गई. इसी तरह दिसंबर 2020 में भारत में किसानों के प्रदर्शन पर ट्रूडो की टिप्पणियों के बाद स्थिति और बिगड़ गई थी. आज भारतीय मूल के लोग वहां मारे जा रहे हैं, ट्रूडो सरकार खामोश है. हाल की तमाम घटनाओं ने भारत की चिंताओं को बढ़ा दिया है.

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22 जुलाई, 2024 को खालिस्तानी अलगाववादियों द्वारा एडमॉन्टन में BAPS स्वामीनारायण मंदिर में बर्बरता की. यह कृत्य निज्जर के लिए कनाडाई हाउस ऑफ कॉमन्स में एक मिनट का मौन रखे जाने के तुरंत बाद हुआ. इससे ये पता चलता है कि भारत विरोधियों का कनाडा में जलवा बरकरार है, खालिस्तानीयों आतंकियों और भारत विरोधियों को खुले आम शरण दी जा रही है. कनाडाई राजनीतिक दलों के बीच खालिस्तानी भावनाओं को पक्षपातपूर्ण स्वीकृति देना, कनाडा में भारत विरोधी गतिविधियों में इजाफा होने की मूल वजह है. इन हालातों ने कनाडा-भारत के संबंधों को और जटिल बना दिया है.

शीत युद्ध के दौरान संबंध

शीत युद्ध के दौरान, कनाडा ने यूरोप के साथ जुड़कर, भारतीय परियोजनाओं में दिलचस्पी दिखाई. कुछ प्रोजेक्ट्स में फंडिग की. वो विभिन्न पहलों के जरिए भारत से जुड़ा. साल 1954 में ट्रॉम्बे परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठान में CIRUS परमाणु रिएक्टर की स्थापना उसका उल्लेखनीय सहयोग था. हालांकि, 1974 में भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट के बाद भारत-कनाडा के संबंध खराब हो गए. 

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1970 और 1980 के दशक में, जस्टिन ट्रूडो के पिता और तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो के फैसलों ने भी कनाडाई विदेश नीति पर असर डाला. उनके फैसलों में कनाडाई हितों को अमेरिका के साथ जोड़ा गया. कनाडा का पूरा फोकस अमेरिका से मजबूत रिश्तों पर हो गया. हालांकि रूस के साथ भारत की दोस्ती से कनाडा इतना चिढ़ गया कि उस दौर में भी भारत के खिलाफ बयानबाजी हुई. 1971 की भारत-सोवियत मैत्री संधि और उसके बाद अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण के बाद दुनिया के हालात तेजी से बदले. भारत और कनाडा के रिश्ते भी इससे अछूते नहीं रहे.

खालिस्तानी उग्रवाद का उदय

'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक 1980 के दशक में खालिस्तानी उग्रवाद का कनाडा में उदय हुआ. उस दौरान भी कनाडाई सरकार ने बड़े पैमाने पर बढ़ती अलगाववादी गतिविधियों को नजरअंदाज किया. 1982 में कनाडा ने कॉमनवेल्थ प्रोटोकॉल का हवाला देते हुए खालिस्तानी आतंकवादी तलविंदर सिंह परमार के प्रत्यर्पण से इनकार कर दिया. उसका ये रुख 1985 के एयर इंडिया फ्लाइट 182 में बम धमाके के आरोपियों पर मुकदमा चलाने में विफलता के कारण और भी जटिल हो गया था.

आगे चलकर भारत-कनाडा संबंधों में कुछ सुधार देखा गया. इसके बावजूद कनाडा ने खालिस्तानी समर्थकों के मुद्दे पर अपनी पारंपरिक स्थिति बरकरार रखी. जिसका भारत ने हमेशा विरोध किया. खालिस्तान समर्थक कनाडाई नेताओं का कहना है कि खालिस्तानी मातृभूमि की वकालत करना स्वाभाविक रूप से अवैध गतिविधि नहीं है. जबकि भारत का कहना है कि ये अवधारणा ही गलत और भारत विरोधी है.

वोट बैंक की राजनीति के कारण कनाडा की सहमति?

वर्तमान स्थितियों की बात करें तो बीते एक दशक में भारत बहुत शक्तिशाली हो गया है. आज भारत कनाडा से आगे है और आर्थिक रूप से ज्यादा समृद्ध है. कनाडा आज पैसा-कौड़ी के मामले में नौवें स्थान पर है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. दो साल पहले 2022 में, भारत ने कनाडा को 5.37 बिलियन अमेरिकी डॉलर का सामान निर्यात किया. कनाडा ने बदले में 4.32 बिलियन अमेरिकी डॉलर का सामान भारत भेजा. इसके अलावा, भारत कनाडा में अंतर्राष्ट्रीय छात्रों का सबसे बड़ा स्रोत है. करीब 6,00,000 भारतीय छात्र कनाडा के कॉलेज और यूनिवर्सिटियों में पढ़ रहे हैं. कनाडा में भारतीय मूल की आबादी करीब 15 लाख है. जो दोनों देशों की तनातनी को और अधिक जटिल बना देती है.

साल 2015 में जस्टिन ट्रूडो के सत्ता संभालने के बाद वोट बैंक की पॉलिटिक्स ने कनाडा के राजनीतिक दलों को सिख समुदायों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया है. खासकर ट्रूडो के नेतृत्व में, चुनावी लाभ उठाने के लिए खालिस्तान समर्थक भावनाओं का रणनीतिक लाभ उठाया गया है.  2015 के आम चुनाव के बाद, लिबरल पार्टी ने 18 सिखों सहित 184 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया. जिनमें से 4 सांसदों को कैबिनेट में मंत्री बनाया गया. इस हिसाब से ये समझना मुश्किल नहीं है कि कनाडा की ट्रूडो सरकार आज भारत के साथ अच्छे रिश्ते रखना क्यों नहीं चाहती है.

 

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