पटना: दस्तावेज़ों में दर्ज तारीख के मुताबिक रामा सिंह का जन्म कवलेश्वर सिंह के घर साल 1964 में हुआ था. स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद 80 के दशक में उसने जिस कॉलेज का रूख किया उसका नाम भी था और वो कॉलेज बदनाम भी था. यहीं पर वो बुनियाद रखी गई जिस पर रामा ने अपने वर्चस्व की इमारत खड़ी की.
लंगट सिंह कॉलेज के लफंगे
बिहार के मुजफ्फरपुर ने इतिहास में अपना नाम कई बार दर्ज कराया है. यहीं का एक कॉलेज है लंगट सिंह कॉलेज. इस महाविद्यालय ने देश को कई प्रशासनिक अफसर दिए हैं और कई सियासी नुमाइंदे भी दिए. इसके अलावा इस कॉलेज ने वक्त की बयार में जातियों में बंट रही छात्र राजनीति को भी देखा और उन्हें किताबों से भटकर कर क्रिमिनल बनते भी देखा. 1981 में मुजफ्फरपुर के इसी कॉलेज में रामा सिंह पढ़ने आया था और 1983 में यहां से ग्रेजुएशन कर निकलते-निकलते वो एक गुंडा बन गया था.
छोटी-मोटी वारदातों को अंजाम देना, अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश, वसूली और डराने धमकाने का काम करनेवाले रामा किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह का कानून की किताब में पहली बार साल 1984 में नाम दर्ज हुआ, जब उसने किसी पर जानलेवा हमला किया था.
मो शहाबुद्दीन का शागिर्द
वैशाली ज़िले के रहनेवाले रामा सिंह ने जल्द ही उत्तर बिहार के सबसे तेज़ी से उभरते डॉन का हाथ थाम लिया. मोहम्मद शहाबुद्दीन की सरपरस्ती में रामा सिंह ने ना सिर्फ बिहार के वैशाली बल्कि छपरा से लेकर पटना तक और यहां तक कि दूसरे राज्यों में भी ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया था. 2 फरवरी 1989 को जमशेदपुर के जुगसलाई पंप हाउस के पास तिहरे हत्याकांड को अंजाम दिया गया, जिसमें रामा सिंह का नाम, साहेब सिंह, कल्लू सिंह, सुनील सिंह और मोहम्मद शहाबुद्दीन के साथ सामने आया. इस हत्याकांड ने रामा सिंह का नाम कुख्यात कर दिया था और ज़िक्र मोकामा तक होने लगा था.
बदलती सियासत का असर
देश में आग लगी थी, समाज बंट रहा था. सत्ता को हासिल करने के लिए सियासत की चाल ने लोगों के बीच में धर्म और जाति की दीवार खड़ी कर दी थी. एक तरफ मंडल कमीशन ने जहां उत्तर बिहार में अगड़ों और पिछड़ों की सेना खड़ी कर दी थी तो वहीं भारतीय जनता पार्टी के मंदिर मिशन हिन्दुओं को झंकझोर रहा था, लेकिन इन सब से अलग रामा सिंह अपनी गैंगस्टर की ज़िंदगी के मज़े उठा रहा था.
9 सितम्बर 1992 को बिहार के हाजीपुर में मनीष कायल नाम के एक बच्चे को दिन दहाड़े अगवा कर लिया गया. हालांकि पुलिस ने उस लड़के को बरामद कर लिया. किडनैपिंग के इस केस में रामा सिंह के साथ 7 लोगों का नाम दर्ज किया गया. इस किडनैपिंग ने एक बार फिर रामा सिंह के कुख्यात नाम को थोड़ी और ताक़त दे दी जिसे वो अपने उस्ताद की सरपरस्ती में बना रहा था, अख़बार रामा सिंह को ख़बरों में जगह देने लगे थे.
बिहार में चल रही उथल पुथल ने जहां एक ओर कई गुंडों को जन्म दिया था तो वहीं यही गुंडे आगे चलकर बाहुबली और डॉन की भूमिका में नज़र आने लगे. इन्हीं में से एक था बेगुसराय का अशोक राय उर्फ अशोक सम्राट, जिसकी मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज में जितनी चलती थी, उससे कहीं ज़्यादा मुजफ्फरपुर में चलती थी.
बिहार में अंडरवर्ल्ड को जन्म देनेवाले इस शहर को मिनी मुंबई कहा जाने लगा था और यहां अशोक सम्राट की अदावत चलती थी छोटन शुक्ला और चंदेश्वर सिंह के साथ दोनों गैंग में आए दिन वारदातें होती रहती थीं.
DON अशोक सम्राट बना उस्ताद
अशोक सम्राट, छोटन शुक्ला, चंदेश्वर सिंह की लंगट सिंह कॉलेज में तूती बोलती थी, रामा सिंह इन्हीं के बीच में अपनी जगह कायम करने की कोशिश में था और तभी उसे अपना उस्ताद मिल गया. अशोक सम्राट ने बिहार में पहली बार एके-47 का इस्तेमाल किया. माना जाता है कि बदले की आग में उसने तस्करी के ज़रिए एके-47 हासिल की और चंदेश्वर सिंह के ऊपर उसका मुंह खोल दिया. मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर जब अशोक सम्राट ने चंदेश्वर को एके-47 की 40 गोलियां मारीं तो पूरे बिहार में उसकी दहशत कायम हो गई. और 90 के दशक में डॉन अशोक सम्राट की शागिर्दी में रामा सिंह भी वैशाली से बाहर बादशाहत कायम करने का सपना देख रहा था और उसे इसका मौका साल 1995 में मिला.
जब रामा ने अपने उस्ताद को मरवाया!
चुनाव से ठीक पहले पुलिस ने अशोक सम्राट को हाजीपुर में घेर लिया और फिर ऐसा एनकाउंटर हुआ जिसे बिहार कभी भुला ना सका. 4 घंटे चले एनकाउंटर में अशोक सम्राट ढेर हो गया. कहा जाता है कि पुलिस को अशोक का पता रामा सिंह ने दिया था. हालांकि अशोक सम्राट की मौत के बाद भी रामा सिंह इस मौके को भुना नहीं सका और डॉन अशोक सम्राट की दहशत से अपने-अपने बिलों में छिपे गुंडे पैर पसारने लगे, जिसमें आनंद मोहन सिंह और सूरजभान सिंह ने अपना दायरा काफी तेज़ी से फैलाया.
सियासत में रामा की पहली सफलता
साल 2000 में वैशाली ज़िले के महनार सीट से चुनाव लड़ने के लिए रामा सिंह को जेडीयू का टिकट मिला और वो पहली बार विधायक बना. हालांकि लंगट सिंह कॉलेज से निकलने के बाद और 1989 में जमशेदपुर के तिहरा हत्याकांड में नाम आने के बाद से ही रामा सिंह राजनीति की सफेदी बदन पर लगाने के लिए बेताब था. वो 1990 के चुनाव में और फिर 1995 के चुनाव में भी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ चुका था लेकिन तब बाहुबल उतना काम नहीं आया. लेकिन साल 2000 में जेल में रहते हुए जेडीयू के टिकट पर वो चुनाव लड़ा और जीता भी.
छत्तीसगढ़ में सनसनीखेज़ मुकदमा
29 मार्च 2001 को विधायक बन चुके रामा सिंह जेल में बंद था और उधर छत्तीसगढ़ में उसके खिलाफ एक सनसनीखेज़ मुकदमा लिखा गया. इस मुकदमें पुलिसिया फाइल में दर्ज तथ्यों के मुताबिक छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर में 29 मार्च 2001 की शाम कुम्हारी में वर्दमान सर्विस सेंटर के नाम से पेट्रोल पम्प संचालित करने वाले जयचंद वैद्य अपने घर शैलेंद्र नगर वापस जा रहे थे. भटगांव के पास एक लाल रंग की मारूति कार ने जयचंद वैद्य की मटीज़ कार को ओवरटेक किया और कार समेत जयजंद वैद्य को अगवा कर लिया गया, उन्हें 20 घंटों तक एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाया जाता रहा और इसी बीच में उनके परिवार से 25 लाख रूपए की फिरौती हासिल की गई.
जैसा कि बताया गया फिरौती की रकम को कोलकाता और इलाहाबाद के बीच चलनेवाली एक ट्रेन से फेंक दिया गया. बाद में जयजंद वैद्य की बरामदगी मुगलसराय से हुई. जबकि पीड़ित की मटीज़ कार को बिहार के महनार से विधायक रामा किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह के घर से पुलिस ने बरामद किया. इस मामले में तीसरी चार्जशीट में 17 अगस्त 2003 को नाम दाखिल किया गया. और तब से रामा सिंह कोर्ट के सामने तब तक पेश नहीं हुआ जब तक कि सुप्रीम कोर्ट का डंडा नहीं चला.
जेल से चलती रही रामा की सल्तनत
हालांकि इस दौरान रामा सिंह अधिकतर समय तकनीकी तौर पर हाजीपुर जेल में बंद रहा. किडनैपिंग और मर्डर के तमाम मामलों में उस पर मुकदमे चल रहे थे. लेकिन जेल में रहते हुए भी बीमारी के बहाने वो बाहर ही रहता. अगस्त 2004 में जब हाजीपुर पुलिस ने रामा सिंह को गिरफ़्तार किया तो रामा थाने में जिस तकल्लुफ से बैठा दिखा उससे इसके बाहुबल का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
चेहरे पर काला चश्मा लगाए, रामा सिंह मुस्कुरा रहा था और तो और रामा सिंह को देखने थाने पर काफी संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे और वो किसी नेता की तरह उन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन स्वीकार कर रहा था.
साल 2005 में विधानसभा चुनाव हुए तो रामा सिंह जेडीयू का साथ छोड़ चुका था और अब उसके सियासी सरपरस्त बन चुके थे लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया राम विलास पासवान जिन्होंने अपनी नई पार्टी नवम्बर 2000 में बनाई थी और केंद्र की वाजपेयी सरकार के एनडीए में शामिल होकर समर्थन दे रहे थे, लेकिन साल 2004 के चुनाव से पहले LJP ने एनडीए को अलविदा कह दिया और साल 2004 में एलजेपी लोकसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ी और राम विलास पासवान समेत 4 सांसद संसद के निचले सदन में पहुंचे. साल 2005 के फरवरी महीने में जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुए तो लोक जन शक्ति पार्टी ने 178 सीटों पर प्रत्याशी उतारे, जिनमें से 29 पर जीत मिली.
इस चुनाव में एलजेपी का किसी से गठबंधन नहीं था लेकिन कांग्रेस के साथ एक तालमेल था, कई सीटों पर दोनों पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारे थे, उन्हीं में एक सीट थी वैशाली की महनार सीट, जिससे रामा सिंह ने जीत दर्ज की थी.
साल 2005 में सुबे में दोबारा चुनाव हुए. अक्टूबर नवम्बर में हुए चुनाव में एलजेपी ने सीपीआई के साथ गठबंधन कर 203 सीटों पर प्रत्याशी उतारे और महज़ 10 सीटों पर ही जीत मिली, इसमें भी रामा किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह शामिल था. दिलचस्प बात ये है कि दोनों बार जेल में रहते हुए रामा सिंह ने चुनाव लड़ा और फतह हासिल की.
रामा सिंह विधायक तो बन चुका था लेकिन ख़ून से गुंडई गई नहीं थी, सियासी गलियारे में यहां तक कहा जाने लगा कि नीतीश के लिए जैसे बाहुबली अनंत सिंह है वैसे ही रामविलास पासवान के लिए रामा सिंह है. जिस 16 संगीन मामले दर्ज थे, कोलकाता में कारोबारी तो झारखंड में डॉक्टर की किडनैपिंग का केस इसमें शामिल था. रामा सिंह बिहार के साथ झारखंड, एमपी, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में वॉन्टेड था.
लोकसभा जाने का सपना
रामा सिंह ने अब तक तीन बार विधायक का चुनाव जीता था और तीनों बार वो जेल के अंदर बंद था. अब रामा सिंह प्रोमोशन चाहता था और सांसद बनने के लिए उसने अपने घोड़े खोल दिए. साल 2009 में रामविलास पासवान को पार्टी के अहम किरदार और बाहुबली रामा सिंह को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट देना पड़ा, लेकिन वैशाली से नहीं बल्कि आरा से. आरा में रामा सिंह बाहरी कैंडिडेट था लेकिन उसे अपने बाहुबल पर बहुत गुमान था.
आरा ने रामा सिंह के बाहुबल का पहली बार गुमान तोड़ा था, लोक जनशक्ति के इस सारथी का लोकसभा जाने का सपना धरा रह गया. इसके एक साल बाद ही रामा सिंह को अपनी विधायकी भी गंवानी पड़ी. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान अपनी पार्टी के लिए ज़मीन तलाश रहे थे, उन्होंने लालू के साथ हाथ मिलाया और इस गठबंधन के तहत उन्हें प्रदेश में महज़ 75 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मौका मिला, लेकिन बीजेपी और जेडीयू गठबंधन के सामने लोक जन शक्ति टिक नहीं सकी और महज़ तीन सीटों पर ही जीत मिली. हारनेवाले कैंडिडेट्स में महनार से रामा सिंह का भी नाम शामिल था.
साल 2014 का लोकसभा चुनाव आते आते सियासी समीकरण बहुत ज़्यादा बदल चुके थे, एक बार फिर रामा सिंह को मौका मिला कि वो अपनी संसद जाने की हसरत को पूरा कर सके, लेकिन इस बार लोक जन शक्ति पार्टी को गठबंधन की मजबूरियों की वजह से वैशाली सीट से रामा सिंह को उतारना पड़ा. रामा के सामने आरजेडी के कद्दावर नेता रघुवंश प्रसाद थे, जो 5 बार सांसद चुने जा चुके थे और 3 बार केंद्र में मंत्री भी रहे थे. इस बार राम विलास पासवान NDA में शामिल हो चुके थे, रामा सिंह को मोदी पर यकीन था लेकिन उससे ज़्यादा अपने बाहुबल पर
मोदी की लहर ने ऐसा जादू किया कि महज़ 7 सीटों पर चुनाव लड़ रही लोक जन शक्ति पार्टी को 6 सीटों पर जीत मिली. रामा सिंह ने रघुवंश प्रसाद को एक लाख से ज़्यादा वोटों से मात दी. रामा सिंह के लिए ये बहुत बड़ी जीत थी, एलजेपी में उसका क़द बढ़ चुका था लेकिन पार्टी ने 2015 के विधानसभा चुनाव में रामा सिंह को तवज्जो नहीं दी.
एलजेपी से रामा का किनारा
साल 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले लोक जनशक्ति पार्टी ने स्टार प्रचारकों की लिस्ट जारी की, इस लिस्ट में सांसद रामा किशोर सिंह उर्फ रामा सिंह का नाम नहीं था, जबकि सूरजभान और उसकी पत्नी वीणा देवी का नाम स्टार प्रचारकों में शामिल था.
दरअसल, बॉलीवुड में अदाकारी कर चुके राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान को पार्टी में ज़्यादा तरजीह दी जा रही थी और रामा सिंह को ये पसंद नहीं था. चिराग के साथ रामा की ट्यूनिंग सही नहीं जमी और परिवारवाद का आरोप लगाते हुए रामा सिंह ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. हालांकि रामा सिंह का ये दांव काम नहीं आया.
रामा सिंह ने लोक जन शक्ति पार्टी तो नहीं छोड़ी लेकिन पार्टी से किनारा कर लिया और बिना किसी दल के अपनी सियासत को जारी रखा. इस बीच में अपनी छवि को बेहतर करने के लिए अपना पूरा वेतन गरीब बच्चों की शिक्षा में खर्च करने लगा.
रामा सिंह का कानून के सामने सरेंडर
7 जून 2016 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जयचंद वैद्य के किडनैपिंग मामले में रामा सिंह को कोर्ट में सरेंडर करना पड़ा, रामा सिंह को दुर्ग जेल भेज दिया गया. सांसद बन चुके रामा सिंह ने ज़मानत की गुहार लगाई लेकिन अदालत ने सलाखों के पीछे रहने का आदेश पारित किया. हालांकि साल भर बाद ही 13 जनवरी 2017 को रामा सिंह को इस मामले में बरी कर दिया गया. कुछ दिन बाद यानी 17 जनवरी 2017 को रामा के लिए एक और राहत भरी ख़बर आई, हाजीपुर की अदालत ने 25 साल पहले के मनीष कायल अपहरण केस में भी रामा सिंह को बरी कर दिया.
आरजेडी से नज़दीकियां
2014 में जब रामा सिंह ने रघुवंश प्रसाद को हराया था तो लालू प्रसाद यादव ने रामा के अपराधों को गिनाना शुरू कर दिया था. मामला कोर्ट भी पहुंचा और रामा सिंह की सांसदी को चुनौती भी दी गई. लेकिन रामा सिंह पर लगे करीब सभी मुकदमों में उसे अदालत ने बरी कर दिया. और अब वो वक़्त आने वाला था जब लालू यादव इसी रामा सिंह को गले लगाने वाले थे.
रामा सिंह का लालू के बेटे तेजस्वी के घर आना-जाना लगा हुआ था, कयास लगाए जा रहे थे कि कभी भी रामा सिंह राष्ट्रीय जनता दल का हिस्सा बन जाएंगे, साल 2019 लोकसभा चुनाव के लिए रामा सिंह एलजेपी से भी टिकट की आस लगाए बैठे थे और विकल्प के तौर पर आरजेडी से भी नाता जोड़ रखा था. यही वजह थी कि रामा सिंह ना सिर्फ वैशाली बल्कि आरा और शिवहर में भी अपनी सियासी ज़मीन तैयार करते रहे, रामा को उम्मीद थी कि पार्टी लोक सभा चुनावों में टिकट देगी. लेकिन लोक जन शक्ति पार्टी ने रामा का टिकट काट दिया और वैशाली सीट से वीणा देवी को टिकट दिया जिन्होंने रघुवंश प्रसाद को धूल चटा दी. हालांकि इस दौरान लालू के बेटे तेजस्वी रामा सिंह को पार्टी में शामिल करने में जुटे थे लेकिन रघुवंश प्रसाद की वजह से सफलता नहीं मिल पा रही थी.
साल 2020, विधानसभा चुनाव
चुनावी समर की शुरुआत हो चुकी थी, बिसात बिछने लगी थी और तभी मीडिया में ख़बरें आने लगीं कि रामा सिंह आरजेडी में शामिल होनेवाला है. आरजेडी ने भी इस ख़बर का खंडन नहीं किया. रघुवंश प्रसाद इससे नाराज़ हो गए और सितम्बर 2020 में उन्होंने पार्टी छोड़ दी. पार्टी छोड़ने के कुछ दिन बाद ही रघुवंश प्रसाद का दिल्ली के एम्स में निधन हो गया. उधर अक्टूबर की शुरुआत में आरजेडी ने टिकटों का ऐलान किया और वैशाली की महनार सीट से रामा सिंह की पत्नी वीणा देवी को टिकट दे दिया. वहीं रघुवंश प्रसाद के बेटे सत्य प्रकाश सिंह ने जेडीयू का दामन थाम लिया.
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