नई दिल्ली: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि हर कैदी को बिना देर किए जमानत अर्जी दाखिल करने का मौलिक अधिकार है. मामले की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को जमानत दे दी, जो जेल में बंद था और आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकता था. जेल जाने के बाद उसके परिवार ने उसे छोड़ दिया था.
हत्या करने का ममाला था दर्ज
न्यायमूर्ति अजय भनोट ने अनिल गौर उर्फ सोनू को जमानत दे दी, जिसके खिलाफ जौनपुर जिले के पुलिस स्टेशन नेओदिया में हत्या का मामला दर्ज किया गया था और 6 दिसंबर, 2017 को उसे जेल भेज दिया गया था. आवेदक के वकील के अनुसार, एफआईआर में आवेदक का नाम नहीं था. आवेदक के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत भी नहीं था और उसकी हत्या करने का कोई मकसद भी नहीं था.
क्या कहा हाई कोर्ट ने
याचिकाकर्ता को जमानत देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा, "उक्त मामले में गरीबी, सामाजिक बहिष्कार, कानूनी निरक्षरता, कमजोर प्रशासन और कानूनी सहायता साफ-साफ देखने को मिल रही है. कानून में सजा की तुलना में गरीबी की सजा अधिक गंभीर है. इस मामले ने स्वतंत्रता के 75वें वर्ष के गौरवशाली चमक और गणतंत्र के वादे के सार को खो दिया है."
अदालत ने टिप्पणी की, "अन्याय गुलाम राष्ट्र का जन्म चिन्ह है. न्याय एक स्वतंत्र लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार है और हमारा संविधान कहता है कि सभी को न्याय मिलने का अधिकार है."
अदालत ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि ऐसे कई मामले हैं, जहां कैदियों को कानूनी सहायता तक पहुंच नहीं होने के कारण अत्यधिक देरी के बाद जमानत आवेदन दायर की गई थी.
कैदियों को मिले कानूनी सहायता
इस पर ध्यान देते हुए, अदालत ने आगे कहा, "अदालतों का भी यह कर्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि आपराधिक कार्यवाही में पेश होने वाले कैदियों को कानूनी सहायता मिल सके. जब उनके समक्ष कानूनी कार्यवाही में कैदियों को कानूनी सहायता से वंचित किया जाता है तो अदालतें मूकदर्शक नहीं रह सकतीं."
आवेदक के अनुसार, निचली अदालत के साथ-साथ उच्च न्यायालय के समक्ष समयबद्ध तरीके से अपनी जमानत याचिका दायर करने के लिए उसके पास कानूनी सहायता तक पहुंच नहीं है. आवेदक के वकील ने प्रस्तुत किया कि कानूनी सहायता के लिए आवेदक का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा उसे निहित एक वैधानिक अधिकार भी है.
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