नई दिल्ली: कई दशक तक यूपी की सत्ता पर राज करने वाली कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में राजनीतिक वनवास खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. 1989 के बाद से पार्टी का यूपी की सत्ता पर काबिज होना एक सपना ही रह गया है, पिछले कुछ चुनावों में तो पार्टी की हालत ऐसी पतली हो गई है कि लोग कहने लगे हैं कि वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में कोई करिश्मा ही जान फूंक सकता है पार्टी की तरफ से इसकी जिम्मेदारी एक बार फिर प्रियंका गांधी के कंधों पर है. लेकिन सवाल है कि क्या प्रियंका कांग्रेस को यूपी में उसका खोया जनाधार वापस दिला पाएंगी?
यूपी में कांग्रेस की डूबती नैया को पार लगा पाएंगी प्रियंका
यूपी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने भी कमर कस ली है कमान पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव और यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी के हाथों में है चुनावी माहौल भांपने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए हाल ही में प्रियंका का यूपी दौरा हुआ. इस दौरान प्रियंका ने यूपी की योगी सरकार पर जमकर हमला किया.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का कहना है कि कांग्रेस ही यूपी में मुख्य विपक्ष है. प्रियंका के आने पर नारा बुलंद किया गया "परिवर्तन का संकल्प कांग्रेस ही विकल्प" अगस्त तक कांग्रेस ने प्रदेश की 200 से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारों की लिस्ट फाइनल करने का टारगेट रखा है, प्रियंका गांधी ने यूपी के तकरीबन 50 नेताओं को खुद फोन करके चुनाव लड़ने के लिए हरी झंडी दे दी है.
जब प्रियंका के लिए गढ़े गए नारे भी काम नहीं आए
प्रियंका गांधी ने खुद को पहले रायबरेली और अमेठी तक ही समेट रखा था जहां वो अपनी मां और भाई के लिए चुनाव प्रचार करती नजर आती थीं. प्रियंका का अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह दिखना अमेठी और रायबरेली में लोगों को खींचता था, प्रियंका के लिए नारा भी गढ़ा गया था ‘प्रियंका नहीं ये आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है’, ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका’ लेकिन 2019 के चुनाव में ये पुराने नारे भी धरे रह गए.
2019 में कांग्रेस ने प्रियंका के लिए कुछ और नारे गढ़े थे. ‘दहन करो मोदी की लंका, आ गई बहन प्रियंका’.. ‘प्रियंका गांधी आई है, नई रोशनी लाई है’.. ‘गांव में डंका-शहर में डंका, बहन प्रियंका-बहन प्रियंका’ लेकिन ये नारे भी काम नहीं आए.
2019 में यूपी में प्रियंका नहीं कर पाईं कमाल
2019 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका के पास पूर्वी यूपी की और ज्योतिरादित्य के पास पश्चिमी यूपी की कमान थी लेकिन बीजेपी की प्रचंड लहर में सब हवा में उड़ गए, देश की सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस बड़ी मुश्किल से सिर्फ अपनी परंपरागत सीट रायबरेली ही बचा पाई.
सबसे बड़ी और शर्मनाक हार कांग्रेस को उसके गढ़ अमेठी में मिली जहां राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने उनके घर पर ही मात दे दी. ना गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत बच पाई ना ही प्रियंका के नाम का डंका यूपी मे बज पाया.
प्रियंका ने दिया गठबंधन का इशारा
तो क्या एकला चलो की बात करने वाली कांग्रेस यूपी में फिर से गठबंधन की कवायद कर रही है प्रियंका गांधी ने हाल ही में एक सवाल के जवाब में कहा कि गठबंधन के विकल्प खुले हैं, हमारा मकसद बीजेपी को यूपी में हराना है. बाकी पार्टियों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए. लेकिन सवाल है कि जिस पार्टी की नैया डूब रही हो उस पर कोई दल क्यों सवार होना चाहेगा.
2017 में सपा कांग्रेस के साथ को जनता ने किया रिजेक्ट
समाजवादी पार्टी का कांग्रेस के साथ पिछले चुनाव में गठबंधन करने का अनुभव अच्छा नहीं रहा. अखिलेश राहुल की जोड़ी को जनता ने खारिज कर दिया. दोनों पार्टियां मिल कर भी सिर्फ 54 सीट ही जीत पाई. हालांकि 2017 में शुरुआत में कांग्रेस पहले एकला चलो के साथ ही चुनावी ताल ठोक रही थी, नारा भी दिया था 27 साल यूपी बेहाल लेकिन बाद में अखिलेश के साथ आने पर नारा बदल गया था नारा दिया गया था 'यूपी को ये साथ पसंद है' और 'यूपी के लड़के बनाम बाहरी" लेकिन अखिलेश और राहुल दोनो की सियासी नैया डूब गई.
इसलिए 2019 में सपा ने कांग्रेस से किनारा कर अपनी धूर विरोधी बसपा से गठबंधन कर लिया और कांग्रेस अकेली रह गई. आज की तारीख में ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस अब सहयोगी की भूमिका में ही रह गई है.
मुस्लिम पिछड़े कांग्रेस से दूर
कभी कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक समझा जाने वाला मुसलमान यूपी में कांग्रेस से बहुत दूर जा चुका है. अखिलेश यादव की सपा उसकी पहली पसंद बनी हुई है. वहीं दलितों व पिछड़ों की बात करें तो मायावती की बसपा खुद को उनका खैरख्वाह समझती आई हैं. लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने छोटे दलों के साथ मिलकर ऐसी रणनीति बनाई कि सभी चकरा गए.
बीजेपी ने गैर यादव गैर जाटव वोटबैंक मे सेंधमारी तो की ही कई मुस्लिम बहुल इलाके की सीट भी अपनी झोली में करने में कामयाब रही. 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज 7 सीट तो 2019 लोकसभा चुनाव में 1 मात्र सीट रायबरेली ही जीत पाई.
मुस्लिमों को रिझाने के लिए क्या है प्लानिंग?
यूपी के मुस्लिमों में वापस पैठ मजबूत करने के लिए कांग्रेस मदरसा पॉलिटिक्स का सहारा ले रही है. गांवों से लेकर शहर तक के मोहल्लों में चल रहे 2 लाख मदरसों को चिन्हित किया गया है, पार्टी कार्यकर्ता यहां जाकर उलेमाओं के साथ बैठक करने के साथ मदरसों के छात्र-छात्राओं को कांग्रेस की नीतियों और चुनावी एजेंडे से रुबरु करवा रहे हैं.
उनका कहना है कि अभी तक मुस्लिमों में नेगेटिव वोटिंग का ट्रेंड रहा है. वो सीटवार उन पार्टियों को वोट देते रहे जो बीजेपी को हराती नजर आती थी. इसबार मुसलमानों को समझाया जा रहा है कि एकजुट होकर जीत हासिल करने के लिए वोट करें.
सपा के MY समीकरण में सेंधमारी की रणनीति
यूपी अल्पसंख्यक मोर्चा अध्यक्ष शहनवाज का कहना है कि अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए एक ‘स्पिकअप माईनॉरिटी’ कैंपन शुरू किया गया है. फेसबुक लाइव के जरिए चलाए जा रहे इस कैंपेन में बताया जाता है कि किसी तरह सपा का बीजेपी से अंदरूनी सांठगांठ है.
इस कैंपेन में मुलायम सिंह यादव का संसद में दिया वो बयान भी दिखाया जाता है, जिसमें मुलायम सिंह यादव ने संसद में कहा था कि नरेंद्र मोदी को ही दोबारा प्रधानमंत्री बनना चाहिए. मुस्लिमों को ये बताने की कोशिश की जाती है कि सपा और BJP में बैक डोर पर कोई न कोई समझौता जरूर हुआ है. इसलिए वो सपा के झांसे में ना आएं और कांग्रेस का साथ दें.
इस काम में कभी मायावती के खास रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी भी जी जान से जुटे हैं कुछ दिनों पहले उन्होंने उलेमाओं के साथ एक मीटिंग में कहा था कि मुसलमान कांग्रेस के साथ आ जाएं तो बीजेपी दो सीटों पर सिमट जाएगी.
कांग्रेस के साथ खड़ा होगा ब्राह्मण वोट बैंक?
यूपी में आजादी के बाद से 1989 तक ज्यादातर ब्राह्मण मुख्यमंत्री ही रहे कांग्रेस शासन के अंतिम मुख्यमंत्री एन डी तिवारी थे, एक जमाने में ब्राह्मण वोट बैंक पर कांग्रेस की अच्छी पकड़ थी. लेकिन 90 के दशक में मंडल-कमंडल की सियासत से यूपी की राजनीति की धूरी पिछड़ो दलितों पर केंद्रित हो गई.
लेकिन आज भी ब्राह्मण वोट बैंक जीत हार में निर्णायक भूमिका में रहता है कभी कांग्रेस का मुख्य जनाधार ब्राह्मण वोट बैंक हुआ करता था. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस के पक्ष में 31% ब्राह्मणों ने वोट किया था, उसने सबसे ज्यादा 21 सीटें जीती थी. लेकिन कई सालों से ये वोटबैंक टूटने लगा है.
कांग्रेस में अब कम ही ब्राह्मण नेता रह गए हैं. हाल ही में जितिन प्रसाद भी कांग्रेस का दामन छोड़कर BJP में शामिल हो गए. अब कांग्रेस के पास यूपी में प्रमोद तिवारी और मिर्जापुर से ललितेश पति त्रिपाठी दो ऐसे बड़े नेता हैं जिनकी ब्राह्मण समाज में ठीक ठाक पकड़ है. पार्टी ने भी इन्हीं दोनों नेताओं को ब्राह्मण वोटर्स को कांग्रेस से जोड़ने की जिम्मेदारी दी है.
प्रियंका संगठन में कितनी जान फूंक पाएंगी?
यूपी चुनाव में 6 महीने का ही वक्त बचा है और कांग्रेस के लिए यूपी में एक कड़वी हकीकत ये है कि बड़े शहरों में कुछ कार्यकर्ता पार्टी का झंडा उठाते दिख जाएंगे छोटे शहरों और कस्बों में तो पार्टी का नाम लेने वाला ही नहीं बचा. वहीं बीजेपी ने चुनाव जीतने के ट्रेंड को काफी हद तक बदल दिया है.
राजनीति और रणनीति बनाने में 24×7 एक्टिव रहने वाली बीजेपी से आज की तारीख में मुकाबला कर पाना कांग्रेस की लिए एक बड़ी चुनौती है. साल 2017 में बीजेपी के सत्ता में आने की एक बड़ी वजह 'एक बूथ, पांच यूथ' की रणनीति थी, जो कारगर रही लेकिन कांग्रेस के पास बूथ स्तर पर निष्ठावान कार्यकर्ताओं का अकाल है.
कुछ साल पहले तक जो हुआ भी करते थे, उनमें से ज्यादातर पाला बदलकर दूसरी पार्टियों का दामन थाम चुके हैं. सवाल है कि प्रियंका महज 6 महीने के भीतर बूथ लेवल तक समर्पित कार्यकर्ताओं की इतनी बड़ी फौ तैयार कर पाएंगी?
कुल मिलाकर आज की तारीख में कांग्रेस के लिए यूपी की जंग जीतना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा दिख रहा है अब देखना है 32 साल से सत्ता से बाहर कांग्रेस के लिए प्रियंका गांधी इस बार क्या करिश्मा कर पाती हैं.
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