Farmers Protest: लालकिला, लाल झंडा और किसान नेताओं की निष्ठा

माओवादी कभी भी लोकतंत्र के हिमायती नहीं रहे. माओवादियों ने कभी भी बाबा साहेब के बनाए संविधान का सम्मान नहीं किया. माओवादियों ने भारतीय लोकतंत्र के चार स्तंभों में कभी निष्ठा नहीं रखी. तो फिर उनके लिए गणतंत्र के मायने हैं क्या?

Written by - Rakesh Pathak | Last Updated : Jan 28, 2021, 03:25 PM IST
  • वाम नेताओं के छद्म राष्ट्रप्रेम की तमाम कहानियों ने भारत के इतिहास के कई पन्नों को काला किया है.
  • जवाहर लाल नेहरू के कभी प्रिय रहे वामपंथियों ने 1962 की जंग में माओ की खिदमत में मुजरा किया था.
Farmers Protest: लालकिला, लाल झंडा और किसान नेताओं की निष्ठा

नई दिल्ली: 26 जनवरी 2021 की तारीख इतिहास में दर्ज हो गई. वो तारीख जिस पर हम सिर्फ शर्मिंदा हो सकते हैं. कुछ घंटों में हमने दुनिया को दिखा दिया कि देश के भीतर भी पलभर में 'कैपिटल हिल्स' के गुंडे अचानक उतर सकते हैं. लालकिले की प्राचीर पर वो धर्म विशेष का परचम तान सकते हैं और फिर अंतर्धान हो सकते हैं.

तो क्या आपको हैरानी हुई घोर अराजकता के इस दृश्य पर? क्या देश स्तब्ध हुआ लालकिले (Red Fort) पर फहराते तिरंगे के अलावा किसी झंडे पर? क्या छलनी हुआ आपका दिल पुलिस पर बेतहाशा बरसते दंगाइयों के डंडे पर? नहीं. क्यों? क्योंकि इतनी फुरसत है कहां? कुछ अतिबुद्धिजीवी हैं जो मानते हैं सरकार का खुफिया तंत्र फेल हो गया. कुछ कहते हैं ये सरकार ने किया. लेकिन बहुसंख्यक हिंदुस्तानी हैं जो ये कहते हैं किसान नेताओं को आइसोलेट करें, उठाएं और उन पर सख्त कार्रवाई करें.

गणतंत्र पर गनतंत्र, 'लाल' ब्रिगेड का काला खेल

जब लालकिले की प्राचीर पर तिरंगे (Tricolour) के साथ कुछ झंडों को तानने की हिमाकत की जा रही थी. तो उसमें दो झंडे दिखे थे एक धर्म का झंडा और दूसरा हसिए-हथौड़े का 'लाल झंडा'. ये अनायास नहीं था. लालकिले की वो प्राचीर जो सिर्फ तिरंगे लिए ही बनी है, जिसे दुनिया तिरंगे के साथ ही देखने की आदी है, उस प्राचीर पर इन दो झंडों का लहराना दुनिया को संकेत देना है.

आपको क्या लगता है ये खालिस्तानी (Khalistan Flag) झंडा और लाल झंडा यूं ही वहां लहराया गया? ऐसा नहीं है. मत भूलिए कि खालिस्तान पाकिस्तान की उभारा हुआ भारत विरोधी एजेंडा है. और रही बात लाल झंडे की तो क्या ये बताने की जरूरत है कि माओवाद (क्योंकि मार्क्सवाद जैसी चीज अब रही नहीं) की असल नुमाइंदगी लाल झंडा ही करता है. इसका रिश्ता चीन से है.

वामपंथी दलों और उसके नेताओं के राष्ट्रप्रेम तमाम कहानियों ने भारत (India) के इतिहास के कई पन्नों को काला किया है. गांधी और सुभाष से धोखा करने वाले और नेहरू के कभी प्रिय रहे वामपंथियों ने 1962 की जंग में माओ की खिदमत में मुजरा किया था.  

खालिस्तानी झंडा और लाल झंडा, दुश्मन को पैगाम

तो फिर क्या मतलब है गणतंत्र दिवस (Republic Day) पर खालिस्तानी और माओवादी झंडे का लालकिले की प्राचीर पर होने का? खासकर तब जब सोशल मीडिया ने दुनिया की दूरियों को एक क्लिक पर खत्म कर रखा है. दरअसल लाल किले पर लहराते खालिस्तानी और लाल झंडे का गहरा संदेश पाकिस्तान और चीन को है. वो ये कि वामपंथी ब्रिगेड ने किसानों को उकसाकर भारतीय गणतंत्र पर माओवादी प्रहार कर दिया है.

माओवादी (Maoists) कभी भी लोकतंत्र के हिमायती नहीं रहे. माओवादियों ने कभी भी बाबा साहेब के बनाए संविधान का सम्मान नहीं किया. माओवादियों ने भारतीय लोकतंत्र के चार स्तंभों में कभी निष्ठा नहीं रखी. तो फिर उनके लिए गणतंत्र के मायने हैं क्या? अब आप पूछ सकते हैं कि वहां उपद्रवियों के हाथों में तिरंगा भी तो था? बिल्कुल था ठीक वैसे ही था जैसे कैपिटल हिल्स के बलवाइयों के हाथों अमेरिकी झंडा था. दरअसल किसी भी लोकतांत्रिक देश में छद्म क्रांति की अराजकता को ढंकने की ये सबसे शातिर चाल है. ये इंटरनेशनल मीडिया को दिया जाने वाला संदेश है जिससे राष्ट्रद्रोह के पाप को ढंका जा सके. अराजकता को राष्ट्र भावना करार दिया जाए.

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पुलिस पर हमला, सुरक्षा बलों पर घातक प्रहार

ट्रैक्टर रैली (Tractor Rally) के दौरान पुलिसवालों पर जमकर कहर टूटा. लाठी के साथ ही स्वचलित हथियारों से लैस आरएएफ, और दिल्ली पुलिस के जवानों ने बल प्रयोग तो किया लेकिन हथियार नहीं चलाए. इसका खामियाजा 103 पुलिस वालों को ज़ख्मी होकर चुकाना पड़ा. इसमें से कई गंभीर रूप से घायल हैं. कल्पना करें कि अगर पुलिस ने अपनी बंदूकों का मुंह खोल दिया होता तो क्या तस्वीर बनती? ध्यान रहे कि जहां-जहां बलवा हुआ वहां एक भी किसान नेता मौजूद नहीं था. तो

- क्या किसानों को भड़काकर उन्हें पुलिस के सामने खुला छोड़ दिया गया था
- क्या किसान नेता चाहते थे कि किसान गोलियों का शिकार हों?
- क्या किसान नेता किसानों के खून से 'रक्तक्रांति' की सियासी खुराक चाहते थे?

अगर इस सबका जवाब पहली बार में हां आता है तो यकीनन ये खतरे का अलार्म है. ये मत भूलिए कि बंदूक की गोली से सत्ता तलाशने की शुरुआत हो चुकी है. जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए कतई खतरे की घंटी है.  ये अनायास नहीं है कि किसान आंदोलन में बड़ी भूमिका वामपंथी जहरीले गैंग की रही है. पंजाब (Punjab) में वामपंथी एनजीओ का घना नेक्सस है. जिसे इस्लामिक कट्टरपंथ की तरह ही खालिस्तानी कट्टरपंथ से कोई गुरेज नहीं, क्योंकि दोनों ही भारतीयता के धर्म के खिलाफ वामपंथियों की मुहिम में बड़ा हथियार साबित होती हैं.

याद रखिए, दर्शनपाल सिंह (Darshan Pal Singh), योगेंद्र यादव (Yogendra Yadav) जैसे नेता तो खुलेआम जेएनयू की टुकड़े गैंग, शरजील इमाम, उमर खालिद जैसे दंगे के आरोपियों के पक्ष में बोलते रहे हैं. मेधा पाटेकर भी किसान आंदोलन में उमर खालिद, शरजील जैसे गद्दारों को क्रांतिकारी बताते नहीं थकतीं.  

तो फिर आगे क्या, क्या होना चाहिए?

आगे यही कि राष्ट्रवादी लहर को और मजबूत करना होगा. देश में सभी धर्मों को लोगों को राष्ट्रवाद की उसी धारा में सम्मिलित करना होगा जो राष्ट्रप्रेम तक पहुंचती है विध्वंस तक नहीं. लगातार बढ़ती अर्थ और धर्म की खाई को पाटने की जिम्मेदारी बड़ी है. पर यही विकल्प है, यदि भारत को बचाना है. वर्ना माओवाद की विषग्रंथि तैयार है.

पाकिस्तान-चीन (Pakistan-China) का नेक्सस गिद्ध की तरह हिंदुस्तान को घूर रहा है. इसलिए जरूरी है कि सख्त प्रहार हो. फर्जी किसान नेताओं को जितनी जल्दी हो सके, उनके अंजाम तक कानूनन पहुंचाया जाए ताकि नजीर बने. देश से विश्वासघात अब बर्दाश्त के बाहर है.

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