Operation Blue Star: जानिए भिंडरावाले के उदय से अंत तक की पूरी कहानी

37 साल पहले भारत के इतिहास में ऐसा स्याह पन्ना लिखा गया था जिसकी मोटी कीमत देश को चुकानी पड़ी थी. जानिए ऑपरेशन ब्लू स्टार की पूरी कहानी.

Written by - Navin Chauhan | Last Updated : Jun 3, 2021, 10:25 AM IST
  • जरनैल सिंह भिडरावाला 1977 में दमदमी टकसाल का मुखिया बना
  • 15 दिसंबर, 1983 को भिंडरावाले ने अकाल तख्त पर कब्जा जमा लिया.
Operation Blue Star: जानिए भिंडरावाले के उदय से अंत तक की पूरी कहानी

नई दिल्ली: आज से 37 साल पहले जून के पहले सप्ताह में अमृतसर के हरमंदर साहब( स्वर्ण मंदिर) प्रांगण में जो वाकया हुआ था वो आजादी के बाद भारतीय इतिहास के सबसे सियाह पन्ने के रूप में आज भी दर्ज है.

वो ऐसी घटना थी जिसने पूरे भारत को झखझोर कर रख दिया था. जरनैल सिंह भिंडरावाले की मौत के साथ ऑपरेशन ब्लू स्टार सफल रहा था लेकिन उसकी बड़ी कीमत आगे चलकर देश को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत के रूप में चुकानी पड़ी थी.

इस पूरी घटना के केंद्र में जरनैल सिंह भिंडरावाले था. जिसका ताकतवर होना कांग्रेस की उस सोच का नतीजा था जो पंजाब में शिरोमणी अकाली दल को किसी भी कीमत पर कमजोर करके अपने लिए राजनीतिक राह तैयार करना चाहती थी. लेकिन जगह का काट जहर से ढूंढना कांग्रेस को भारी पड़ गया और उसकी राजनीतिक महत्वकाक्षा की कीमत देश को चुकानी पड़ी.

ऑपरेशन ब्लू स्टार की 37वीं बरसी पर उस सियाह पन्ने को फिर से पलटकर जानने की कोशिश करें कि मामले की जड़ में क्या था और कैसे एक साधारण सिख युवक भारत सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया. जिसे बचाने के लिए पंजाब का हर एक शख्स अपनी जान देने को तैयार था.

आजादी के बाद सिखों को थी संस्कृति और भाषा के वजूद की चिंता
इस पूरे विवाद की शुरुआत आजादी के बाद शुरू होती है. ये वो दौर था जब अंग्रेजों द्वारा किए गए बंटवारे के बाद पंजाब के दो टुकड़े हो गए. जिसका बड़ा हिस्सा नव गठित पाकिस्तान के साथ चला गया.

बंटवारे के दौरान बहुत खून खराबा हुआ और बड़ी संख्या में सिख, हिंदू और सिंधी पाकिस्तान से भारत आ गए. ऐसे में पंजाबियों को अपनी संस्कृति और भाषा के वजूद की चिंता सताने लगी.

आजादी के बाद शुरू हुई सिखों के अलग राज्य की मांग
हालांकि अंग्रेजों के ही दौर में साल 1920 में सिखों की धार्मिक संस्था की राजनीतिक शाखा के रूप में अकाली दल का गठन हो चुका था. ऐसे में आजादी के बाद भाषाई आधार पर जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तब सिख बहुल्य राज्य बनाए जाने की मांग की गई थी. लेकिन उनकी इस मांग को इस आधार पर दरकिनार कर दिया दया कि ये पॉपुलर डिमांड नहीं है केवल कुछ संगठन ऐसी मांग कर रहे हैं.

ये बात तब कही गई थी जब पंजाब में पंजाब का मौजूदा हिस्सा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजधानी दिल्ली आती थी. ऐसे में सिखों की संख्या हिंदुओं के मुकाबले कम थी. सिखों का मानना था कि पंजाब के संसाधनों पर पहले पंजाबियों का हक है. ऐसे में देश में बनने वाले बांध और नहरों पर उन्हें ज्यादा हक और स्वायत्ता दी जानी चाहिए.

1956 में हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया लेकिन पंजाब को अलग राज्य घोषित करने में केंद्र सरकार को 10 साल लंबा वक्त लग गया. साल 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद पंजाब, हरियाणा का गठन हुआ. अब जाकर सिखों की लंबे समय से हो रही अलग राज्य की मांग पूरी हुई.

अकाली दल ने पंजाब के गठन के लिए इस मांग को भाषा के आधार पर रखा था न कि धर्म के आधार पर. इसलिए सरकार ने उनकी इस मांग को स्वीकार कर लिया.

इसके बाद पंजाब के प्रवासी विदेश( ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका) चले गए जहां पर 1970 में खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत हुई. जगजीत सिंह चौहान जैसे कुछ नेताओं ने विदेशी धरती पर खालिस्तान के अलग देश के रूप में गठन का ऐलान कर दिया और वहीं पर मुद्रा भी जारी कर दी. लेकिन अकाली दल ने कभी भी अलग खालिस्तान की मांग नहीं की थी. अकाली दल स्वायत्ता चाहता था लेकिन अगल देश की मांग उसने कभी नहीं की.

1973 का आनंदपुर साहिब प्रस्ताव
ऐसे में सन 1973 में आनंदपुर साहिब में एक महत्वपूर्ण घटना घटी. यहां हुई बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दे शामिल थे. अकाली दल का मानना था कि सिख समुदाय की पहचान, वजूद और संस्कृति को बचाए रखना होगा. केंद्र सरकार को राज्यों के काम में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. केंद्र सरकार को फेडेरल स्ट्रक्चर के अनुरूप राज्यों को पूरी ताकत देना चाहिए.

अकाली दल के आनंदपुर प्रस्ताव में सात बातें महत्वपूर्ण थीं. पहला चंडीगढ़ को पंजाब को दे दिया जाए. जबकि केंद्र मे चंडीगढ़ को हरियाणा और पंजाब की संयुक्त राजधानी घोषित किया था. वहीं हरियाणा के पंजाबी बोले जाने वाले कुछ इलाकों को पंजाब में शामिल किया जाए.

तीसरी मांग यह थी कि मौजूदा संविधान के अंतर्गत राज्यों को और अधिक अधिकार दिए जाएं और राज्यों के काम में केंद्र के दखल को कम किया जाए. पंजाब में औद्योगीकरण और लैंड रिफॉर्म हो. वहीं कमजोर तबके के लोगों के हितों का ख्याल रखा जाए.

इसके अलावा अकाली दल ने मांग रखी कि अखिल भारतीय गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी का गठन किया जाए. साथ ही पंजाब के बाहर अल्पसंख्यकों के रूप में रह रहे सिखों के अधिकारों की पूरी रक्षा की जाए. इसके अलावा फौज में सिखों की भर्ती ज्यादा संख्या में होनी चाहिए. और मौजूदा कोटा सिस्टम को खत्म किया जाए.

भिंडरेवाले का उदय
1973 के आनंदपुर साहब में पारित इस प्रस्ताव को हर किसी ने भुला दिया था लेकिन इसे साल 1982 में फिर से हवा जरनैल सिंह भिंडरेवाला ने दी. जरनैल सिंह भिडरेवाले को 1977 सिखों की धर्म प्रचार की प्रमुख शाखा दमदमी टकसाल का मुखिया नियुक्त किया गया था. उस समय तक दमदमी टकसाल का निरंकारियों से सीधा टकराव हो चुका था.

पारंपरिक रूप से सिखों का मानना है कि गुरु ग्रंथ साहब 11वें और आखिरी गुरु हैं जो अनंत काल तक बने रहेंगे. गुरु गोविंद सिंह के बाद और कोई इंसान गुरु का पद ग्रहण नहीं कर सकता. निरंकारी सिख इस बात को नहीं मानते हैं.

ऐसे में 1978 में में वैशाखी के दिन सिखों और निरंकारी सिखों के बीच खूनी झड़प हो गई. इस घटना में 13 निरंकारियों की जान गई और इसके बाद पंजाब हमेशा के लिए बदल गया और दोबारा पहले जैसा कभी नहीं हो पाया.

आपातकाल के बाद पंजाब में अकाली हुए सत्ता पर काबिज
1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया था जो कि 1977 तक लागू रहा. इसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी. पंजाब में भी सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकलकर अकाली दल के हाथ में आ गई. पंजाब में अकाली दल सत्ता हासिल करने के बाद ज्यादा हावी होने लगा.

अकालियों के काट की कांग्रेस को थी तलाश
ऐसे में उसे काटने के लिए कांग्रेस को एक ऐसे नेता की जरूरत थी जो अकालियों का विरोध कर सके. ऐसे में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह की सलाह पर संजय गांधी और इंदिरा गांधी ने ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू कर दी जिसका व्यक्तित्व करिश्माई हो और जिससे कि सिख अकाली दल की ओर न जाकर उसकी तरफ आए.

भिंडरावाले बना कांग्रेस का राजनीतिक हथियार
कांग्रेस की ये तलाश जरनैल सिंह भिंडरावाले पर आकर खत्म हुई. इसके बाद कांग्रेस ने भिंडरावाले को पंजाब की धार्मिक राजनीति में बढ़ावा देने के लिए हर तरह की मदद की.

भिंडरावाले ने गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी में अपने उम्मीदवार खड़े करने शुरू किए. उन उम्मीदवारों का कांग्रेस ने समर्थन किया. इस तरह कांग्रेस ने भिंडरावाले की पंजाब और सिखों के बीच मजबूती से पैर जमाने में मदद की.

दरबारा सिंह ने की थी भिंडरावाले की लगाम खींचने की मांग
जनता पार्टी की सरकार के गिरने के बाद 1980 में फिर से चुनाव हुए तब पंजाब में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनी. ऐसे में दरबारा सिंह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कहा कि भिंडरावाले को रोका जाए और दबाया जाए लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इसके पक्ष में नहीं था.

भिंडरेवाला के समर्थकों ने की निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह की हत्या
ऐसे में भिंडरावाले का प्रभाव बढ़ता चला गया. 1980 में भिंडरावाले और उनके समर्थकों पर निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह की हत्या का आरोप लगा. इसके बाद 1981 में भाषा का मुद्दा जनगणना के दौरान अहम हो गया. हिंदी के आगे पंजाबी के पिछड़ने का डर सिखों को था. पंजाब केसरी ने अपने लेखों में लिखा कि पंजाब में रहने वाले हिंदु हिंदी को अपनी मातृभाषा बताएं न कि पंजाबी को. इस कारण पंजाब केसरी के मालिक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई.

हिंदी-पंजाबी विवाद में की पंजाब केसरी के मालिक की हत्या
इस मामले में भिंडरावाले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन राज्य में गिरफ्तारी के विरोध में हिंसा शुरु होने के कुछ दिन बाद भिंडरावाले को छोड़ दिया गया. लेकिन इस घटना के बाद भिंडरावाले का कद अचानक से सिख राजनीति में बहुत बड़ा हो गया. इस घटना के बाद उनके कट्टर अनुयायियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई.

इस बारे में एक बार भिंडरावाले ने अनौपचारिक रूप से कहा था कि जो काम मैं सालों में नहीं कर पाया वो दो दिन जेल में रहने से पूरा हो गया.

1982 में साथ आए भिंडरावाले और अकाली
1982 में भिंडरावाले और अकालियों के बीच साथ काम करने पर सहमति बन गई. अकाली दल के संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और भिंडरेवाले के बीच सहमति के बाद धर्मयुद्ध मोर्चा की शुरुआत हुई. जिसका मुख्य उद्देश्य 1973 के आनंदपुर साहब प्रस्ताव की मांगों को पूरा करवाना था.

ऐसे में जब भिंडरावाले कांग्रेस के हाथ से निकल गया तो राज्य की सत्ता पर काबिज कांग्रेस सरकार ने इस आंदोलन को रोकने की पुरजोर कोशिश की. इस दौरान तकरीबन 100 लोगों की जान चली गई. तकरीबन 30 हजार लोगों को इस दौरान गिरफ्तार किया गया.

एशियाई खेलों के दौरान प्रदर्शन की बनाई योजना
ऐसे में सिखों ने 1982 में दिल्ली में होने वाले नौवें एशियाई खेलों के आयोजन में व्यवधान डालने की योजना बनाई. ऐसे में पंजाब से हरियाणा और दिल्ली की ओर आने वाले सभी सिखों की तलाशी ली जाने लगी. इस दौरान रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों की भी तलाशी ली गई. ऐसे में चुन चुन कर तलाशी लिए जाने की वजह से सिखों में नाराजगी हो गई.

पुलिस अधिकारी की कर दी गई स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों पर हत्या
1983 में धर्मयुद्ध मोर्चा के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने वाले आईपीएस अधिकारी एएस अटवाल की स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों के पास हत्या कर दी गई. पुलिस के अंदर भिंडरेवाले का इतना खौफ था कि अपने अधिकारी की लाश को उठाने 2 घंटे तक पुलिस का कोई कर्मचारी नहीं पहुंचा.

1983 में पंजाब में लगाया गया राष्ट्रपति शासन
इसके बाद पंजाब में हिंदू और पंजाबियों के बीच विवाद पैदा हो गया. अक्टूबर 1983 में एक बस में सवार 6 हिंदुओं की हत्या कर दी गई. इसके बाद पंजाब में स्थिति के नियंत्रण से बाहर जाता देख राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. सीएम दरबारा सिंह जो भिंडरावाले पर लगाम लगाना चाहते थे उनकी सरकार को इंदिरा गाधी ने बर्खास्त कर दिया.

भिंडरावाले ने किया अकाल तख्त पर कब्जा
इसके बाद भिंडरावाले और उनके समर्थकों ने हरमंदर साहब परिसर के अंदर हथियार इकट्ठे करना शुरू कर दिया. बड़ी मात्रा में वहां हथियार आता था. 15 दिसंबर, 1983 को भिंडरावाले ने अपने समर्थकों के साथ अकाल तख्त पर कब्जा जमा लिया.

इसके बाद इंदिरा गांधी ने भिंडरावाले के सामने बातचीत का प्रस्ताव रखा. अकाली गुट ने तो सरकार का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया लेकिन भिंडरावाले ने इसे सिरे से खारिज कर दिया. भिंडरावाले ने अकालियों पर आरोप लगाया कि तुम राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए ऐसा कर रहे हो मुझे भारत सरकार का प्रस्ताव स्वीकार नहीं है.

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1 जून को लगाया पंजाब में कर्फ्यू, इंदिरा ने कहा बातचीत का रास्ता है खुला
हिंदुओं और सिखों के बीच झड़प और गुरुद्वारों पर हमलों  को बढ़ता देख 1 जून, 1984 पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया. ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले पांच महीने में तकरीबन 300 लोगों की जान चली गई थी. ऐसे में भारत सरकार ने बड़ा कदम उठाने से पहले पंजाब में आने जाने पर पाबंदी लगा दी.

रेल, वायु और सड़क मार्ग बंद कर दिए गए. किसी भी तरह के संदेश भेजने पर पाबंदी लगा दी गई.  सेना और अर्ध सैन्य बलों ने सारा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया और पत्रकारों को भी अमृतसर छोड़ने के लिए कह दिया गया. 1 जून को इंदिरा गांधी ने रेडियो पर अपना भाषण दिया और बातचीत का रास्ता खुले होने की बात कही.

 3 जून को सिक्ख पांचवें गुरु का शहीदी दिवस होता है ऐसे में उस दिन स्वर्ण मंदिर में रोज की अपेक्षा ज्यादा श्रद्धालु मत्था टेकने आए थे. पुलिस और सरकारी तंत्र लोगों को मंदिर से वापस जाने के लिए कह रहा था लेकिन भिंडरावाले और उनके समर्थकों ने श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर से बाहर नहीं निकलने दिया. शायद उनका इरादा लोगों को किसी भी तरह की कार्रवाई के समय लोगों को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने का रहा होगा.

प्रशिक्षित थे भिंडरावाले के समर्थक
भिंडरावाले के समर्थकों को हथियार चलाने और सैन्य बलों का सामना करने का प्रशिक्षण मेजर जनरल शाहबेग सिंह ने दिया था. शाहबेग ने बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के लोगों को पाकिस्तानी सेना का सामना करने के लिए प्रशिक्षित किया था. उस अनुभव का उपयोग शाहबेग ने भिंडरावाले के समर्थकों को प्रशिक्षित करने में किया.

कुलदीप सिंह बरार के हाथों में ऑपरेशन ब्लू स्टार की कमान
मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार के हाथों में ऑपरेशन ब्लू स्टार की कमान सौंपी गई थी. 5 जून की शाम दोनों पक्षों के बीच मुख्य लड़ाई शुरू हुई. सेना को पहले से ही ये निर्देश दिए गए थे कि हरमंदिर साहब को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए. शुरुआत में सेना को इस बात का अंदाजा नहीं था की आतंकियों के पास आधुनिक हथियार हैं. उनके पास एंटी टैंक गन, रॉकेट लॉन्चर, मशीन गन थी. और वो सही पोजीशन पर घात लगाए बैठे थे.

टैंक से दागे अकाल तख्त पर गोले
जब शुरुआत में ज्यादा संख्या में सैनिक घायल हुए तो मेजर बरार ने अपनी स्ट्रैटजी बदल दी और अकाल तख्त पर हमले के लिए टैंक मंगा लिए. इन टैंक का उपयोग रात में रोशनी करके भिंडरावाले और उसके समर्थकों पर निशाना लगाना खा लेकिन जब बात इससे भी नहीं बनी तो अकाल तख्त के ऊपर टैंक से गोले दागे गए और इस दौरान भिंडरावाले की मौत हो गई. जांच में पाया गया कि टैंक से अकाल तख्त के ऊपर 80 से ज्यादा गोले दागे गए थे.

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सेना के 83 जवान ऑपरेशन में हुए थे शहीद  
हमले के दौरान अकाल तख्त और पुस्तकालय को बड़ा नुकसान पहुंचा था. मिशन के पूरा होने के बाद जब स्वर्ण मंदिर परिसर की जांच की गई तो बड़ी मात्रा में पर वहीं हथियार मिले थे. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान भारतीय सेना के 83 जवान शहीद हुए थे. वहीं 248 घायल हुए थे. जबकि इस दौरान 500 से ज्यादा आतंकी मारे गए थे जिसमें भिंडरावाले भी शामिल था.

हालांकि इस ऑपरेशन के तत्काल बाद पंजाब में शांति नहीं आई. पंजाब के ग्रामीण इलाकों में जहां भिंडरावाले की पकड़ मजबूत थी वहां ऑपरेशन ब्लू स्टार का दूसरा चरण चलाया गया. पंजाब को अमन चैन हासिल करने के लिए तकरीबन 10 साल इंतजार करना पड़ा.  

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