पटना. अगर बात सिर्फ जीतन राम मांझी की होती तो कहा जा सकता था कि बिहार का शांत दलित नेता राजनीति के मैदान में नई राह बना रहा है. लेकिन यहां शान्ति नहीं क्रान्ति का चेहरा है दूसरा राजनीतिक किरदार इस खबर का जो है असदुद्दीन ओवैसी का. आग और पानी का ये साथ क्या गुल खिलाने वाला है क्षेत्रीय राजनीति में -ये आने वाला वक्त बताएगा,
बिहार से करेंगे साझा राजनीति की शुरुआत
मांझी-ओवैसी समीकरण अपनी साझा राजनीति का श्रीगणेश एक ऐसे प्रदेश से कर रहा है जहां जातिगत राजनीति की खिचड़ियाँ बहुत पकती हैं. पर जो नुकसानदेह बात इस समीकरण को बिहार की धरती पर अनुभव करने को मिलेगा वह यह है कि यहां हिन्दू सोच शायद जातिगत सोच के बराबर ही सुदृढ़ है अगर मुकाबला हिन्दू और मुस्लिम प्रत्याशियों का हो. इसलिए मिल कर चलना बिहार में मांझी और ओवैसी को लाभ के पान के साथ हानि का चूना भी चटायेगा.
हिन्दू विरोधी राजनीति का गठजोड़
ऊपरी तौर पर देखा जाए तो साफ़ है कि ये हिन्दू और खासकर सवर्ण हिन्दू विरोधी राजनीतिक जोड़गांठ की शुरूआती मिसाल है. आगे इस तरह की और मिसालें भी सामने आएँगी. जीतन राम मांझी का तो पहले ही पार्टीगत वैमनस्य है सवर्ण हिन्दुओं से और अब मिल गया है उनको साथ हिन्दू विरोधी नेता का. लेकिन क्या इनके साथ को सही नज़रों से देखा जाएगा?
ओवैसी की बिहार में पैठ बनाने की हसरत
ओवैसी की AIMIM पार्टी बिहार में अपनी ज़मीन तलाशने में लगी है. अब लगता है उसे अपने लिए उम्मीद की किरण नज़र आने लगी है और हाल के विधानसभा उपचुनाव में पार्टी को किशनगंज से कामयाबी भी हासिल हुई है. इस जीत ओवैसी जोश में आ गए लगते हैं और वे लगातार बिहार में अपने संगठन को मजबूत करने में लगे हैं. इसका ये राजनीतिक मुजाहिरा है जो उन्होंने जीतन राम मांझी से गठजोड़ कर डाला है.
दलित-मुस्लिम मोर्चा होगी प्रदेश की तीसरी महाशक्ति
बिहार में यह नया दलित-मुस्लिम समीकरण मूल रूप से एनडीए को टक्कर देने के लिए बना है लेकिन ये बराबरी से महागठबंधन को भी नुकसान पहुंचाएगा. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में ये निश्चित ही दोनों महाशक्तियों के लिए चुनौती बन कर उभरेगा. 29 दिसंबर को इस गठबंधन की पहली साझा-रैली बिहार के किशनगंज में होने जा रही है.
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