नई दिल्ली: तिहाड़ जेल में निर्भया के चारों गुनहगारों को उनके किए की सजा मिल चुकी है. उनके जुर्म के लिए तो शायद मौत की सजा भी कम ही है. इन दरिंदों को बचाने के लिए तिकड़म लगाए गए. लेकिन तिहाड़ जेल में उनकी फांसी हो ही गई. तिहाड़ जेल 1945 में अंग्रेजी जमाने में बननी शुरू हुई थी और 13 साल बाद 1958 में बनकर तैयार हुई थी. अंग्रेजों के ज़माने में ही तिहाड़ के नक्शे में फांसी घर यानी डेथ सेल का नक्शा बनाया गया था.
डेथ सेल में रखे जाते हैं गुनहगार
डेथ सेल यानी काल कोठरी... नाम से ही जाहिर है कि डेथ सेल में सिर्फ वही कैदी भेजे जाते हैं, जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जाती है. तिहाड़ जेल नंबर तीन में कैदियों के बैरक से दूर बिल्कुल अलग-सुनसान जगह पर हाई रिस्क डेथ सेल बनाए गए है, तिहाड़ जेल में 16 डेथ सेल हैं. जहां कैदी को अकेला रखा जाता है. 24 घंटे में सिर्फ आधे घंटे के लिए ही उसे टहलने के लिए बाहर निकाला जाता है.
डेथ सेल की पहरेदारी तमिलनाडु स्पेशल पुलिस करती है. दो-दो घंटे की शिफ्ट में इनका काम मौत की सजा पाए कैदियों पर नजर रखने का होता है ताकि वो फांसी के भय से खुदकुशी करने की कोशिश ना करें. कैदी को नाड़े वाला पायजामा भी नहीं दिया जाता है कि कहीं वो नाड़े से अपना गला घोंटने की कोशिश ना करे.
ब्लैक वारंट जारी होने के बाद फांसी की तारीख और वक्त जेल प्रशासन के सुझाव और तैयारी के आधार पर कोर्ट तय करता है. आपको बताते हैं कि ब्लैक वारंट या डेथ वॉरंट आखिर होता क्या है. डेथ वारंट यानी कोर्ट से जारी वो कानूनी फरमान, जिसके बाद आधिकारिक तौर पर फांसी की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है
क्या होता है डेथ वारंट ?
कानूनी भाषा में डेथ वारंट को ब्लैक वारंट भी कहा जाता है. अब सवाल ये है कि डेथ वारंट कैसा होता है और इसमें फांसी के लिये किन बातों का जिक्र होता है? कानूनी कागजात में फॉर्म नंबर 42 डेथ वॉरंट होता है. इसके ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा होता है वारंट ऑफ 'Execution Of Sentence Of Death' यानी मौत की सज़ा की तामील
इस फॉर्म पर पहले कॉलम में उस जेल का नंबर लिखा होता है. जिस जेल में फांसी दी जानी होती है. उसके बाद अगले कॉलम में फांसी पर चढ़ने वाले सभी दोषियों के नाम लिखे जाते हैं. अगले कॉलम में केस का एफआईआर (FIR) यानी केस नंबर लिखा जाता है. उसके बाद के कॉलम में किस दिन ब्लैक वारंट जारी हो रहा है वो तारीख लिखी जाती है. फार्म में फांसी के दिन, समय और किस जगह फांसी दी जाएगी ये भी लिखा जाता है.
दोषियों के नाम के साथ बकायदा साफ-साफ लिख दिया जाता है कि जिन लोगों को फांसी दी जा रही है उन्हें तब तक फांसी के फंदे पर लटकाया जाए जब तक उनकी मौत न हो जाए. डेथ वारंट में सबसे नीचे समय दिन और डेथ वारंट जारी करने वाले जज के साइन होते हैं.
कैसी दी जाती है फांसी?
सूत्रों के मुताबिक तिहाड़ में जो फांसीघर है उसके तख्ते की लंबाई करीब दस फीट है. यानी उसके ऊपर एक साथ चार लोगों को खड़ा किया जा सकता है. बस इसके लिए तख्ते के ऊपर लोहे के रॉड पर चार फांसी के फंदे लगाने होते हैं. तख्ते के नीचे भी लोहे की रॉड होती है जिससे तख्ता खुलता और बंद होता है. इस रॉड का कनेक्शन तख्ते के साइड में लगे लीवर से होता है.
तिहाड़ में कब-किसे हुई फांसी ?
तिहाड़ की जेल नंबर तीन में जो फांसी कोठी है. उसमें साल 2019 तक कभी एक साथ लोगों को एक साथ फांसी नहीं दी गई थी. यहां पहली और आखिरी बार एक साथ दो लोगों को फांसी 37 साल पहले 31 जनवरी 1982 को रंगा-बिल्ला को दी गई थी.
27 नवंबर 1983: 4 लोगों को एकसाथ फांसी
निर्भया के चार गुनहगारों को फांसी देने की प्रक्रिया पहली बार नहीं पूरी की गई है, वैसे देश में चार गुनहगारों को एक साथ फांसी इससे पहले भी हो चुकी है. ये फांसी पुणे की यरवडा जेल में हुई थी. 27 नवंबर 1983 को जोशी अभयंकर केस के नाम से मशहूर दस लोगों का कत्ल करने वाले चार लोगों को एक साथ फांसी दी गई थी.
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फांसी देने में जल्लाद की भूमिका सबसे अहम मानी जाती है. वैसे जल्लाद नहीं मिलने पर जेल या पुलिस का कर्मचारी भी लिवर खींच सकता है. याकूब मेमन, अफजल गुरु और कसाब के मामले में ऐसा ही हुआ था.
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