जब गांधी जी को दिया गया था ईसाई बनने का ऑफर, क्या किया उन्होंने ?

आज का दिन क्रिसमस डे के रूप में मनाया जा रहा है. यह पश्चिमी सभ्यता के हिसाब से एक बड़ा दिन माना जाता है. इस मौके पर एक ऐसी दिलचस्प कहानी को बयां करना जरूरी हो जाता है जो महात्मा गांधी से जुड़ी है.  

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Dec 25, 2019, 04:04 PM IST
    • सभी धर्मों को समान भाव से देखने वाले शख्स थे गांधी जी
    • गुजरात के साबरमती आश्रम में मिला था पत्र
    • गांधीजी ने कहा धार्मिक एकता का मतलब एक ही धर्म को मानना नहीं है
    • 50 हजार डॉलर में किया गया नीलाम
जब गांधी जी को दिया गया था ईसाई बनने का ऑफर, क्या किया उन्होंने ?

नई दिल्ली: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका यात्राओं के दौरान कई ईसाईयों के संपर्क में आए. भारत लौटने के बाद भी आजादी की लड़ाई के दिनों में देश-दुनिया भर में उनके कई ईसाई मित्र रहे. इसी दौरान उन्हीं में से किसी एक मित्र ने उनसे ईसाई धर्म अपनाने का आग्रह किया था, लेकिन अप्रत्यक्ष तरीके से. उस आग्रह को गांधीजी ने खारिज कर दिया था.

उस मित्र का आग्रह ठुकराते हुए उन्होंने एक पत्र लिखा. उस पत्र में उन्होंने साफ कहा कि वे ईसा मसीह को मानवता के सच्चे शिक्षक मानते हैं लेकिन फिर भी वे इस बात से सहमत नहीं कि वहीं आखिरी शक्ति हैं. और ऐसा कुछ भी नहीं जिससे उन्हें ये धर्म अपना लेनी चाहिए. गांधीजी का लिखा यह पत्र 6 अप्रैल 1926 को अमेरिका में $50,000 यानी लगभग साढ़े तीन करोड़ की कीमत पर नीलाम किया गया.

सभी धर्मों को समान भाव से देखने वाले शख्स थे गांधी जी 

सभी धर्मों को समान भाव से देखने वाले गांधीजी यह मानते थे कि सबको अपने धार्मिक रीत-रिवाज मानने की आजादी है. यहीं वजह है कि जब देश में धर्मांतरण का दौर चल रहा था तब भी गांधीजी ने अपने एक प्रिय अमेरिकी मित्र और धार्मिक नेता मिल्टन न्यूबरी फ्रांट्ज का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था.

गुजरात के साबरमती आश्रम में मिला था पत्र

गुजरात के साबरमती आश्रम में रहने के दौरान मिल्टन का एक पत्र गांधीजी को मिला था, जिसमें उन्होंने ईसाई धर्म को सर्वोच्च बताते हुए गांधीजी से उस बारे में विचार कर धर्म परिवर्तन का सुझाव दे दिया था. यहीं नहीं मिल्टन ने गांधीजी को क्रिश्चिएनिटी पर पढ़ने के लिए ढ़ेर सारी चीजें भी भेजी थी. 

गांधीजी ने कहा धार्मिक एकता का मतलब एक ही धर्म को मानना नहीं है

इस पत्र का जवाब देते हुए गांधीजी ने भी लिखा था कि 'प्रिय मित्र, मुझे नहीं लगता कि मैं आपके प्रस्तावित पंथ को मान सकूंगा. दरअसल, ईसाई धर्म में किसी भी अनुयायी को यह मानना होता है कि जीसस क्राइस्ट ही सर्वोच्च हैं. लेकिन मैं अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह महसूस नहीं कर पा रहा हूं. पत्र में गांधीजी लिखते हैं कि वे मानते हैं कि ईसा मसीह इंसानियत के महान शिक्षक रहे हैं, प्रणेता रहे हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि धार्मिक एकता का मतलब सभी लोगों का एक धर्म को ही मानने लगना नहीं है, बल्कि यह तो सारे धर्मों को समान इज्जत देना है.'

50 हजार डॉलर में किया गया नीलाम

धुंधली हो चुकी स्याही से लिका हुआ यह पत्र 1960 से उत्तरी अमेरिका के पेनसिल्वेनिया के राब कलेक्शन की शोभा बढ़ा रहा है. हालांकि इससे पहले के सालों में यह पत्र न्यूयॉर्क के एक इतिहासकार के पास रखा हुआ था. दशकों बाद राब कलेक्शन ने पिछले साल गांधीजी का लिखा हुआ यह 92 साल पुराना पत्र 50 हजार डॉलर में नीलाम किया. 

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