नई दिल्लीः कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी राजनीतिक नाकामियों को लेकर अक्सर में चर्चा में रहते हैं. इससे अधिक उनकी चर्चा तब होती है जब वे इटली चले जाते हैं. उस दौरान भारत की सियासी गली में इस तरह के जुमले आम हो जाते हैं 'राहुल नानी के घर गए हैं'. इस लेख को लिखने में राहुल गांधी के लिए ऐसे वाक्यों की बेशक जरूरत नहीं है.
इटली, जहां सबसे पहले पनपा राष्ट्रवाद
चूंकि राहुल गांधी का एक सिरा सीधे-सीधे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तक जाता है और दूसरा सिरा इटली तक. वही इटली जो कभी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का घर रहा है. इससे इतर इटली की पहचान और भी है. इटली वह देश है जहां माजिनी जैसे सर्वलोकप्रिय क्रांतिकारी नेता रहे हैं.
इटली वह देश है जहां राष्ट्रवाद भारत से भी पहले पनपा और उसकी आत्मा में बस गया.
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इटली का जिक्र क्यों?
1945 में भारत के आजाद होने की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी. महत्वाकांक्षाएं भी जन्म लेने लगीं थीं. नेहरू एक नजर से लालकिले को देखते थे दूसरी से सारी दुनिया को. पूरी दुनिया में उन्हें सिर्फ इटली नजर आया. इटली की ओर नेहरू की नजर कैसे पड़ी? अगर आप ये सवाल करेंगे तो इसके जवाब में वीर सावरकर का नाम मिलेगा.
आप चौंकेंगे तो जरूर लेकिन इस सच को अपने एक लेख में बयान करते हैं प्रख्यात ब्रिटिश-भारतीय अर्थशास्त्री लॉर्ड मेघनाद देसाई.
नेहरू, सावरकर के रास्ते पर चले
देसाई लिखते हैं कि जब नेहरू आजाद भारत के प्रधानमंत्री बनें तो उनके सामने विश्व के बराबर भारत को खड़ा करने की बड़ी चुनौती थी. आज के दौर में आप भले ही वीर सावरकर पर कैसे भी सवाल खड़े कर लें, लेकिन सच यही है कि आजादी के बाद वाले भारत में पं. नेहरू ने सावरकर का दिखाया रास्ता अपनाया और गांधी (महात्मा) को भी परे रखते हुए यूरोपीय तौर तरीकों के साथ आधुनिक भारत का निर्माण किया.
नया भारत और गांधी के खतरे
एक बार फिर उसी किताब हिंद स्वराज का जिक्र करना जरूरी है जो सावरकर से चर्चा के बाद लिखी गई. अपनी पुस्तक ‘हिंद-स्वराज’ को गांधी जिस लीक पर लिख रहे थे, आजाद भारत की कल्पना उनके मन में उसी आधार पर आकार ले रही थी.
गांधी के सपने का भारत नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आधार पर बनना था, जबकि नेहरू इस आधार से बिल्कुल अलग तर्क रखते थे. उनका मत था कि नए भारत में आधुनिक वैज्ञानिक और राजनीतिक खासियतें भी शामिल हों, लेकिन गांधी घबराते थे कि कहीं इस लिहाज में नया भारत सिर्फ पश्चिम का अंधा अनुसरण न करने लगे.
सावरकर अपने समय से आगे थे
नेहरू को इस ऊहा-पोह की स्थिति से निकालकर तब सावरकर ही लाते हैं. अपनी किताब 'भारत एक खोज' में नेहरू जिस तरह के भारत को देखने की बात करते हैं वह अलग-अलग खांचों में बंटा तो है, लेकिन उसमें जिस अनेकता में एकता वाले भाव को रखा गया है, वह सावरकर के तब के विचारों का आइना दिखता है. सावरकर अपने समय से आगे थे.
उन्होंने कई पुरातनपंथी हिंदू रीति-रिवाजों को चुनौती दी थी. वे जाति प्रथा को पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने एक सुधारवादी आंदोलन भी चलाया था.
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बिहार का भूकंप और गांधी का बयान
सावरकर के जीवन पर किताब लिखने वाले विक्रम संपत एक लेख में गांधी और सावरकर के बीच के वैचारिक अंतर को दिखाते हैं. संपत लिखते हैं "तर्कवादी सावरकर केवल तार्किकता और वैज्ञानिक सोच पर भरोसा करते थे. उन्होंने गांधी के इस बयान की निंदा की थी कि बिहार में 1934 में भीषण भूकंप इसलिए आया क्योंकि भारत के लोग छुआछूत को मानते हैं.
सावरकर ने कहा था, ‘भारत में यह हमलोगों का दुर्भाग्य है कि गांधीजी जैसे प्रभावशाली व्यक्ति अपनी ‘आंतरिक आवाज़’ के बूते यह कहते हैं कि बिहार में आया भीषण भूकंप बर्बर जाति प्रथा के लिए भगवान द्वारा दी गई सजा है. मैं इंतजार कर रहा हूं कि महात्मा जी की आंतरिक आवाज क्वेटा के भूकंप का क्या कारण बताती है.’
गांधी और सावरकर दोनों ही जातिप्रथा को कुरीति मानते थे, लेकिन उसका विरोध करने का दोनों का तरीका बेहद अलग-अलग था. जहां गांधी इसके लिए भारतीय आस्था का ही प्रयोग सहजता से कर लेते थे, वहीं सावरकर के लिए यह आस्था से परे लोगों के वैचारिक परिवर्तन का मुद्दा था.
यह था सावरकर का मानना
संपत यह भी लिखते हैं कि "पूंजीवादी, बाज़ार केंद्रित, मशीन पर चलने वाले समाज के पक्के पैरोकार सावरकर ने 1930 के दशक में ही लिख दिया था कि वैज्ञानिक सोच ही आधुनिक तथा समृद्ध भारत का आधार बन सकती है. ‘चरखा नहीं बल्कि विज्ञान, आधुनिक विचार और औद्योगीकरण से ही हम भारत में हर एक स्त्री-पुरुष को रोजगार, भोजन, कपड़ा और खुशहाल जीवन दे सकते हैं.’
नेहरू की योजनाओं में सावरकर के चिंतन
उन्होंने रत्नागिरी में सभी जातियों के लोगों के लिए पतित पावन मंदिर स्थापित किया था. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भी उनके इस काम की सराहना की थी. उन्होंने हिंदुत्व को इस तरह से परिभाषित किया था कि वह सभी के लिए स्वीकार करने लायक बन सके.
गांधी के करीबी होते हुए भी नेहरू इस तरह के विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं. बाद में संविधान बनने के साथ और कई अलग-अलग योजनाओं के लागू होने में सावरकर के यही चिंतन दिखाई देते हैं.
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वीर सावरकर और वीर मैजिनी
सावरकर को स्वीकारने की एक और बड़ी वजह इटली भी है. जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में ही किया गया है. दरअसल सावरकर ने बहुत पहले इटली के महान क्रांतिकारी और विचारक ज्यूत्स्पे माजिनी की आत्मकथा का अनुवाद किया था.
इसे लिखते हुए सावरकर इटली की उन दशाओं का वर्णन करते हैं जो भारत से मिलती-जुलती हैं. दरअसल माजिनी को इटली के एकीकरण के लिए जाना जाता है. इसी एकीकरण के साथ राष्ट्रवाद शब्द का जन्म होता है. यही राष्ट्रवाद भारत की पहचान बना.
आज आप भले ही सावरकर को नकारने की जबरिया कोशिश जरूर कर लें, लेकिन नए दौर की कहानी लिखने बैठे पं. नेहरू के आजाद भारत में किए गए कार्य ये बताते हैं कि वह सावरकर की अहमियत को कभी नहीं नकार पाए थे.
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