नई दिल्लीः इस लेख की शुरुआत में ही ब्रिटिश-भारतीय अर्थशास्त्री और स्तंभकार लॉर्ड मेघनाद देसाई की एक टिप्पणी को Bold & Capital में सामने रखना जरूरी हो जाता है. एक मीडिया संस्थान के लिए स्तंभ लिखते हुए देसाई लिखते हैं कि 1909 में लंदन में गांधी और सावरकर के बीच हुई एक मुलाकात बाद में हिंद स्वराज पुस्तक के लिखने की वजह बनीं.
यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि लॉर्ड मेघनाद देसाई लंदन में गांधी मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं.
गांधी और सावरकर में समानता
भारत को राजनीतिक इतिहास के नजरिए से देखने की कोशिश करेंगे तो आप बहुत दूर तक नहीं जा पाएंगें. आपको एक वैचारिक बाइनाकुलर (दूरबीन) की जरूरत होगी. यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि गांधी और सावरकर इस दूरबीन के एक-एक लेंस हैं.
दोनों के नाम साथ हों तो आप गांधी के आगे से महात्मा हटा लीजिए और सावरकर के आगे से वीर, कोई कुछ नहीं कहेगा. लेकिन अलग-अलग होने पर न गांधी महात्मा के बिना सम्मानीय हैं और न ही सावरकर बिना वीर लिखे स्वीकार्य.
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लंदन में सावरकर और गांधी की मुलाकात
इस बात की पुष्टि के लिए 1909 के उसी दौर में जाना जरूरी होगा. यह तब का दौर है जब गांधी महात्मा नहीं बने थे. एक शाम जब गांधी लंदन में सावरकर से मिलने उनके पास गए तो दोनों के बीच अंहिंसा, सत्याग्रह और भारतीयों की स्थिति को लेकर कई तर्क-वितर्क हुए. गांधी इस मुलाकात के बारे में बहुत बाद में खुद लिखते हैं कि लंदन में मैं कई क्रांतिकारियों से मिला.
इसमें मुझे दो भाइयों के विचारों ने बहुत प्रभावित किया. गांधी की यह टिप्पणी बेशक सावरकर बंधुओं के लिए ही थी. जिनसे लंदन में उनकी कई दौर की मुलाकात होती रही है. इस मुलाकात में रामायण और महाभारत के युद्धों की बात प्रमुखता से होती थी.
सावरकर इन युद्धों के वास्तविक निहितार्थ की व्याख्या करते थे. जबकि गांधी का यह मानना था कि यह गाथाएं महज एक दृष्टांत हैं. इनके कथानक मनुष्य के भीतर चल रहे दो तरह के द्वंद्व का परिणाम हैं. गांधी ने सावरकर से कहा कि आप इन्हें सच कैसे मान सकते हैं? दैवीय और दानवी प्रवृत्तियां तो मानव के मन में हैं.
सावरकर कहते हैं कि यह मन का ही युद्ध नहीं बल्कि समाज में हर ओर वाकई में छिड़ा हुआ युद्ध है. इसे नकार देना भारत के असल को नकार देना है.
ऐसे बनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' की भूमिका
जहाज से आते हुए जब गुजराती में गांधी इसी प्रश्नोत्तरी वाले संवाद पर विचार कर रहे होते हैं उनके मन में किताब की शक्ल बनने लगती है. मूल रूप से गुजराती में लिखी इस पुस्तक में गांधी एक पाठक की भूमिका निभाते हैं. तरह-तरह के सवाल करते हैं और एक संपादक की भूमिका में खुद ही उनके जवाब देते हैं.
1921 में अपनी इस किताब के बारे में महात्मा गांधी लिखते हैं कि इसे उन्होंने ‘हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिये गये जवाब के रूप में’ लिखा था.
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संसद में आमने-सामने गांधी और सावरकर
इस शुरुआती मामले को देखें तो गांधी और सावरकर एक-दूसरे के न सिर्फ आमने-सामने बल्कि बराबर खड़े नजर आते हैं. एक तथ्य यह भी है आजादी के इतने सालों बाद गांधी महात्मा तो हैं लेकिन भारत रत्न नहीं, वहीं सावरकर को भारत रत्न देने की मांग का मसला राजनीतिक रंग ले लेता है.
संसद के सेंट्रल हॉल में दोनों की तस्वीरें भी आमने-सामने लगी हैं. यह इस देश की राजनीतिक सच्चाई है. आप जब भी गांधी के विचारों की बात करेंगे तो सावरकर ठीक सामने नजर आएंगे और सिर्फ सावरकर का नाम लेंगे तो गांधी भुलाए नहीं जा सकेंगे. दोनों एक-दूसरे को बनाने वाले हैं. मरणोपरांत भी दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं है. बतौर भारतीय नागरिक आप भी ऐसा नहीं कर सकते हैं.
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