नई दिल्ली. दरअसल ये दुनिया रहस्यों से भरी हुई है. ये रहस्य नहीं तो और क्या है कि जिस विवेकानंद के ज्ञान के आगे बड़े-बड़े विद्वान नतमस्तक थे वो अपने अनपढ़ गुरु की अलौकिक सत्ता के आगे खुद को असहाय पाने लगे. मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले स्वामी जी अपने युग के सबसे बड़े मूर्ति पूजक रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंच कर अपना अस्तित्व खो सा देते थे. उन्हें ये यकीन हो चला था जिस मां काली के पुजारी को मैं पागल और अनपढ़ समझता था वो हर पल सर्वशक्तिमान सत्ता का साकार रूप है. हालांकि इस विश्वास के बाद भी वे खुद मां काली के मंदिर में जाने से परहेज करते थे.
वर्ष 1884 अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण रहा
यद्यपि यह जीवन स्वामी विवेकानंद जैसे व्यक्ति का था किन्तु इस जगत में जगत नियंता का हर कदम पहले से निर्धारित होता है और यह नियम सभी के लिये समान रूप से लागू होता है. साल 1984 में विवेकानंद की जिंदगी में कुछ ऐसा पहाड़ टूटा कि मां काली की मूर्ति के सामने याचक बन उपस्थित होने की जमीन तैयार हो गई. साल 1884 में स्वामी जी के पिता विश्वनाथ दत्ता का निधन हो गया. परिजनों ने इस नाजुक मौके पर विवेकानंद और उनके परिवार का साथ छोड़ दिया, साथ ही उनकी संपत्ति भी हड़प ली. आलम ये हो गया कि घर में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए.
तीन बार गये मां काली के समक्ष
सांसारिक पीड़ा जब आध्यात्मिक ज्ञान पर भारी पड़ी तो विवेकानंद को गुरु के दर पर जाना पड़ा. मां काली की मूर्ति से उम्मीदें जगीं. रामकृष्ण परमहंस से कहा कि मां काली से मेरे परिवार के लिए कुछ मांगिए. गुरु तो जैसे इसी मौके का इंतजार कर रहे थे. कहा मैं क्यों मांगू जा तू खुद मांग ले. मां काली की अलौकिक सत्ता का ममतामयी रहस्य देखिए. विवेकानंद एक-एक कर तीन बार मां काली की मूर्ति के सामने गए लेकिन मूर्ति के सामने पहुंचते ही भौतिक आग्रह तिरोहित हो जाता था और आध्यात्मिक सत्ता बलवती हो जाती थी.
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तब गुरू ने की कृपा जीवन भर के लिये
तीन बार मां की मूर्ति के सामने जाने के बाद भी विवेकानंद धन दौलत सुख ऐश्वर्य नहीं मांग पाए. तीनों बार भक्ति, ज्ञान और वैराग्य ही मांगा. याचक बेशक मांग नहीं पाया लेकिन गुरु के लिए तो शिष्य की पीड़ा अपनी पीड़ा से कहीं बढ़कर होती है. ऐसा निशब्द आशीर्वाद मिला कि उसके बाद परिवार वालों को जब तक जिए कोई परेशानी नहीं हुई.
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