नई दिल्लीः शिव आराधना करते हुए कई साल बीत गए थे, लेकिन बाबा भोलेनाथ ने अब तक आर्यम्बा और शिवगुरु के आंगन में अपनी कृपा का प्रसाद नहीं दिया था. धनुष की तान पर चढ़ी युवा वस्था की डोरी धीरे-धीरे ढीली होकर प्रौढ़ हो चली थी और किसी पुरानी पड़ी प्रत्यंचा की तरह नाजुक हो रही थी.
इतने पर भी इस दंपती का विश्वास डिगा नहीं था. रह-रह कर आर्यम्बा कहती थीं, हम अकेले ही तो हैं नहीं कि भोलेनाथ सिर्फ हमारी सुनें, संसार में और भी भक्तों ने न जाने क्या-क्या संकल्प करने रखे होंगे. इस तरह एक-दूसरे को सांत्वना देते आर्यम्बा-शिवगुरु शिव पूजा में लगे रहते थे.
और महादेव ने दिए दर्शन
इतनी अनवरत श्रद्धा देखकर एक दिन महादेव शिवगुरु के स्वप्न में आए और वरदान मांगने को कहा. बुजुर्ग हो चले ब्राह्मण ने केवल बुढ़ापे की लाठी की ही आस रखी. महादेव ने कहा- आपके पास दो विकल्प हैं ब्राह्मण दंपती. या तो आप विद्वान लेकिन अल्पायु पुत्र का वरदान लें, या फिर आप मूर्ख लेकिन दीर्घायु पुत्र का वरदान लें.
शिवगुरु ने कहा, पुत्र मूर्ख हो तो अधिक आयु का क्या ही महत्व, लेकिन विद्वान हो तो अल्पायु में भी उसकी कीर्ति युगों तक रहेगी. केरल के कालड़ी गांव में इसी कीर्ति के रूप में आर्यम्बा-शिवगुरु के घर बालक ने जन्म लिया. महादेव का वरदान था, तो नाम रखा शंकर.
आज है आदि शंकराचार्य की जयंती
सनातन पंचांग के अनुसार 788 ई. में वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था. इस बार ये तिथि मंगलवार, 28 अप्रैल को है. इसलिए इस दिन शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है. आदि गुरु शंकराचार्य ने कम उम्र में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था. जन्म दक्षिण भारत के नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में जन्मे शंकर ने जब देखा कि वैदिक संस्कृति का क्षय हो रहा है
और सनातन संस्कृति का नाश, तब उन्होंने अल्पायु में ही दीक्षा ली और फिर भारत वर्ष को संस्कृति के एक सूत्र में बांधने निकल पड़े. जन्म के तीन साल बाद पिता की मृत्यु हो गई थी, इसलिए मां संन्यास की आज्ञा नहीं दे रही थीं, लेकिन शंकर ने उन्हें भी मना लिया.
देश के 4 हिस्सों में 4 पीठों की स्थापना की
शंकर जब गुरु आश्रम में पहुंचे तो उन्हें 8 वर्ष की उम्र में ही वेदों का ज्ञान हो गया. इसके बाद वे इनकी व्याख्या भी करने लगे और जन समुदाय को कल्याण का सही मार्ग समझाने लगे. यहीं से वे शंकर से शंकराचार्य हो गए. इसके बाद आचार्य भारत की यात्रा पर निकल पड़े और तीन बार पूरे भारत की यात्रा की. इन्होंने देश के 4 हिस्सों में 4 मठों की स्थापना की और वैदिक ज्ञान की अलग को जगाने निकल पड़े.
चारों वेदों पर आधारित एक-एक मठ
कहा जाता है कि ब्रह्मा जी के मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई. उनके पूर्व के मुख से ऋग्वेद. दक्षिण से यजुर्वेद, पश्चिम से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई है. इसी आधार पर शंकराचार्य ने 4 वेदों और उनसे निकले अन्य शास्त्रों को सुरक्षित रखने के लिए 4 मठ यानी पीठों की स्थापना की.
ये चारों पीठ एक-एक वेद से जुड़े हैं. ऋग्वेद से गोवर्धन पुरी मठ यानी जगन्नाथ पुरी, यजुर्वेद से श्रंगेरी जो कि रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है. सामवेद से शारदा मठ, जो कि द्वारिका में है और अथर्ववेद से ज्योतिर्मठ जुड़ा है. ये बद्रीनाथ में है. माना जाता है कि ये आखिरी मठ है और इसकी स्थापना के बाद ही आदि गुरु शंकराचार्य ने समाधि ले ली थी. आदिगुरु की समाधि का काल 820 ईस्वी बताया जाता है.
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कई महत्वपूर्ण कार्य किए
आदि शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासी अखाड़ों को देश की रक्षा के लिए बांटा. इन अखाड़ों के सन्यासियों के नाम के पीछे लगने वाले शब्दों से उनकी पहचान होती है. उनके नाम के पीछे वन, अरण्य, पुरी, भारती, सरस्वती, गिरि, पर्वत, तीर्थ, सागर और आश्रम, ये शब्द लगते हैं. आदि शंकराचार्य ने इनके नाम के अनुसार ही इन्हें अलग-अलग कर्तव्य भी निर्धारित किए. इनमें वन और अरण्य नाम के संन्यासियों को छोटे-बड़े जंगलों में रहकर धर्म और प्रकृति की रक्षा करनी होती है.
कार्यों के आधार पर दिए नाम
पुरी, तीर्थ और आश्रम नाम के सन्यासियों को तीर्थों और प्राचीन मठों की रक्षा करनी होती है. भारती और सरस्वती नाम के सन्यासियों का काम देश के इतिहास, आध्यात्म, धर्म ग्रंथों की रक्षा और देश में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना है. गिरि और पर्वत नाम के सन्यासियों को पहाड़, वहां के निवासी, औषधि और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया. सागर नाम के संन्यासियों को समुद्र की रक्षा के लिए तैनात किया गया.
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