नई दिल्लीः भारतीय मनीषा में श्रीराम और श्री कृष्ण दो ऐसे प्रेरक चरित्र हैं जो खुद में सम्पूर्ण हैं. उनकी इतनी सम्पूर्णता भी एक बड़ी वजह है कि आज गैर भारतीय ही नहीं बल्कि खुद भारतीय भी उनकी उपस्थिति की सत्यता को स्वीकार कर पाने में झिझकते हैं. वजह इतनी है कि हम खुद का ऐसा उच्च स्तर का चरित्र बना नहीं सके, लिहाज ऐसा कोई होगा भी, यह मानने को तैयार भी नहीं होते.
संस्कृति के आधार हैं श्रीराम-श्रीकृष्ण
तो एकबारगी हम श्रीराम या श्रीकृष्ण के देवतुल्य अस्तित्व को न भी मानें तो भी दोनों महापुरुष हमारी संस्कृति के आधार हैं, बल्कि कृष्ण तो इसके स्तंभ हैं.
अगर श्री कृष्ण को केवल मानव स्वरूप ही समझा जाए तो भी उनका जीवन इस प्रकार सधे हुए कर्मों से परिपूर्ण रहा कि ऐसे कर्मों और विशेष लक्षणों का कोई भी व्यक्ति स्वयं ही भगवद पद का अधिकारी हो ही जाए.
हर क्षेत्र में मार्गदर्शक हैं श्रीकृष्ण
आज के दौर में आप चाहे जिस समस्या में फंसे हों, कृष्ण को मार्गदर्शक मानकर उनके जीवन चरित्र को गुनिए, मार्ग न मिले तो कहिएगा. श्रीकृष्ण का पूरा जीवन संघर्षों में शुरू हुआ और इन्हीं में बीता, इसके बावजूद हमें उनकी मुरली मनोहर, राधारमण, वृंदावन बिहारी वाली छवि ही क्यों याद रहती है? क्योंकि इसमें भी श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा संदेश है कि व्यर्थ जल बहाना पाप है और युद्ध तो व्यर्थ ही रक्त बहाने की कुचेष्टा है.
खुद बने सारथि और दूर की कर्ण की हीन भावना
इसके साथ ही वह यह भी संदेश देते हैं कि धर्म कार्य के लिए युद्ध ठन भी जाए तो अपनी उपस्थिति और दायित्व दोनों ही पूरे रखने हैं. फिर चाहे पद सारथि जैसा ही कमतर क्यों न हो. श्रीकृष्ण का पूरा जीवन उचित प्रबंधन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है.
जीवन भर सूतपुत्र कहे जाने से कर्ण के अंदर हीन भावना घर कर चुकी थी. श्रीकृष्ण जब उसे उपदेशों से नहीं समझा सके तो खुद युद्ध में अर्जुन के सारथि बनकर आ गए. कर्ण यह देख कर भौचक्का रह गया था. इस दौरान दुर्योधन का पक्ष चुनना उसे एक बार और गलत लगा था.
यह था बचपन में मटकी फोड़ लीला का रहस्य
कृष्ण के बालकाल को ही स्मरण करें तो एक प्रसंग आता है कि वो गोपिकाओं की दूध -दही की मटकी फोड़ दिया करते थे जो कि गोकुल से मथुरा राज्य में कर के रूप में जाती थीं. अब आप स्वयं सोचिये कि क्या ये उचित है ,कोई राज्य कर के रूप में राज्य के भविष्यों का आधार ही छीन ले.
वास्तव में श्री कृष्ण ने अपने देश- काल की परिस्थितियों और समस्याओं को बचपन से ही पहचाना और उनका निवारण करना प्रारंभ कर दिया. उन्होंने उस माखन को कंस तक पहुंचने ही नहीं दिया जिस पर गोकुल के बाल-बच्चों का अधिकार था. माखन लीला पर कवियों की अमर वाणी ने खूब लिखा है.
शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और भीष्म के सामने तोड़ दी
पितामह भीष्म और गुरु द्रोण जैसे महान योद्धा अपनी प्रतिज्ञाओं का रोना लेकर बैठे हुए थे और खुद को इतना अशक्त बना चुके थे कि द्रौपदी की लाज बचाने के लिए भी इन महान योद्धाओं के शस्त्र नहीं उठे.
शांति सभा में श्रीकृष्ण आकर समझाते हैं कि प्रतिज्ञाओं की भी एक उम्र होती है पितामह, इसलिए वीर योद्धाओं के लिए यह जरूरी है कि वह प्रतिज्ञा का मोह न करें, बल्कि सही पक्ष चुनें. भीष्म इसका मर्म नहीं समझते हैं.
पितामह को हुआ अपनी भूल का अहसास
इसके बाद युद्ध भूमि में श्रीकृष्ण अर्जुन पर क्रोधित होकर रथ से कूद पड़ते हैं और खुद पितामह का वध करने के लिए सुदर्शन उठा लेते हैं. पितामह की आंखें तब खुलती हैं कि वास्तव में यह युद्ध उनकी प्रतिज्ञा का ही बुरा परिणाम है.
श्रीकृष्ण अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़कर उन्हें एक बार फिर अहसास दिलाते हैं कि प्रतिज्ञाओं की भी एक उम्र होती है.
जीवन की व्यावहारिकता को समझते थे
श्री कृष्ण की विशेष बात यह थी कि वे जीवन की व्यावहारिकता को अति गंभीर रूप में समझते थे, द्रौपदी का स्वयंवर , दुर्योधन को गांधारी का वरदान हो, या स्वयं शांतिदूत श्रीकृष्ण हों प्रत्येक घटना में उचित क्रोध , उचित हास , श्रेष्ठ आत्मविश्वास और प्रभावी वीरता स्वयं दिखाई दे जाती है.
विश्व के श्रेष्ठ मैनेजमेंट गुरु
श्रीकृष्ण के प्रबंधन नीति की खासियत यह है कि उनकी भावना और विवेक एक दूसरे का पूरक है. मैनेजमेंट गुरु श्रीकृष्ण का वह व्यावहारिक कौशल ही था कि अत्याचारी कंस को सबसे पहले आर्थिक रूप से कमजोर किया गया और फिर उसका वध किया.
पूरे महाभारत युद्ध के दौरान कहीं भी श्रीकृष्ण उहापोह की स्थिति में नजर नहीं आये,.उलटे जब अर्जुन ने भाई- बन्धु की बात करते हुए युद्ध के प्रति झिझक दिखाई तो श्रीकृष्ण ने उन्हें धर्म और अधर्म का पाठ पढ़ाया.
आज का भारतीय समाज निराश करता है
हैरानी तो भारतीय समाज को देखकर होती है. आज के भौतिक जाल में फंसा भारतीय समाज भक्ति व शक्ति के संक्षिप्त मार्ग ढूंढने लगा है. ज्ञान पर उसकी निर्भरता है ही नहीं. इससे भी अधिक बुरा यह कि ज्ञान संदेश नारों की तरह दिया जाता है.
मोह मत पालो, लोभ मत करो, काम और क्रोध से बचो आदि, इनसे कैसे बचें? इसका कोई मार्ग नहीं बताता. जीवन मे आनंद का अर्थ आध्यात्मिक शांति नहीं वरन् दूसरे को अपनी भौतिक उपलब्धि से प्रभावित करना मान लिया गया है.
मिश्रित अर्थव्यवस्था के थे पैरोकार
भगवान श्रीकृष्ण मिश्रित अर्थव्यवस्था के पैरोकार भी थे. गाँव में आर्थिक खुशहाली और पर्यावरण प्रबंधन के लिए उन्होंने गोधन की महत्ता को आमलोगों के बीच स्थापित किया, लेकिन आज पूरा देश जहां पशुधन संकट से जूझ रहा है और नकली दुग्ध उत्पादन की भरमार से पटा हुआ है.
शराब एक बार को मार्के की और शुद्ध मिल जाएगी, लेकिन दूध खोजे से नहीं मिलेगा. संक्रमण और तथाकथित सुशासन के इस दौर में एक बार फिर श्रीकृष्ण के प्रबंधन और दर्शन की आवश्यकता है क्योंकि खुद श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कहा था “ जब -जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होगा, तब-तब मैं किसी भी रूप में आऊंगा और धर्म की स्थापना करूँगा "