Shant Mahayagya: हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की सबसे ऊंची चूड़धार चोटी पर स्थित श्री गुरु महाराज मंदिर में चल रहा शांत महायज्ञ संपन्न हो गया है. शिरगुल महाराज के प्राचीन मंदिर में 52 वर्ष बाद कुरुड़ की स्थापना की गई.
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ज्ञान प्रकाश/पांवटा साहिब: हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर की सबसे ऊंची चूड़धार चोटी पर स्थित श्री गुरु महाराज मंदिर में शांत महायज्ञ पूर्ण हुआ. 52 वर्षों के बाद शिरगुल महाराज के प्राचीन मंदिर में कुरुड़ की स्थापना का दिव्य अनुष्ठान संपन्न हुआ. इस अवसर पर शिमला सोलन और सिरमौर जिले सहित उत्तराखंड से हजारों श्रद्धालु चूड़धार पहुंचे.
लगभग 12 हजार फुट ऊंचाई पर स्थित चूड़धार के शिरगुल महाराज मंदिर में दिव्य और अलौकिक नजारा था. यहां 52 वर्षों के बाद श्रद्धालुओं की ऐसी भीड़ जुटी. दोपहर 12 बजकर 56 मिनट पर भगवान शिव के परम भक्त शिरगुल महाराज के प्राचीन मंदिर में शांत महायज्ञ के बाद 'कुरुड़' स्थापना का कार्य शुरू हुआ. इस ऐतिहासिक धार्मिक आयोजन के साक्षी हजारों श्रद्धालु बने. शिरगुल महाराज की जय के उद्घोष से चूड़धार चोटी की वादियां गूंज उठीं.
एक ही लकड़ी से तैयार कुरूड़ को श्रद्धालुओं और ब्राह्मणों ने हाथों हाथ उठाकर देव वादन और शिरगुल के जयकारों के साथ मंदिर तक पहुंचाया और मंदिर के शिखर पर स्थापित किया. इस ऐतिहासिक धार्मिक आयोजन के गवाह चोटी पर मौजूद हजारों श्रद्धालु बने. साढ़े 12 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित चूड़धार चोटी का नजारा बेहद आलौकिक था.
चोटी के करीब 2 से 3 किलोमीटर के दायरे में मौजूद श्रद्धालुओं ने इस दैव्य नजारे को देखा और शिरगुल महाराज की असीम शक्ति का अहसास किया. ये धार्मिक आयोजन शिमला, सोलन व सिरमौर जिला के धार्मिक इतिहास के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि शिरगुल महाराज इन जिलों के मुख्य आराध्य देव हैं. शांत महायज्ञ का साक्षी बनने के लिए हिमाचल और उत्तराखंड के जौनसार बाबर क्षेत्र से हजारों श्रद्धालु चूड़धार चोटी पहुंचे.
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यह महायज्ञ धार्मिक आस्था व परंपरा के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति का भी प्रतीक है. आयोजन को सफल बनाने के लिए हजारों श्रद्धालु व सेवक कई महीनों से मिलकर कार्य कर रहे थे. लाखों लोगों की आस्था का केंद्र चूड़धार में भव्य मंदिर का निर्माण पहली बार हुआ है. पिछले लगभग 22 वर्षों से मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य चल रहा था.
अनुमान लगाया जा रहा है कि चोटी पर करीब 20 से 25 हजार श्रद्धालु पहुंचे थे. चूडेश्वर सेवा समिति व स्थानीय प्रशासन के प्रयास भी बेहद सराहनीय रहे. चोटी पर श्रद्धालुओं के रहने, खाने-पीने की व्यवस्था भी की गई थी. इसके लिए प्रशासन ने टैंट की व्यवस्था कालाबाग में की थी. यहां करीब एक हजार टैंटों में लोगों ने चूड़धार की बर्फीली हवाओं के बीच शरण ली. शांत महायज्ञ के आयोजन को लेकर चौपाल, कुपवी, नेरवा व हामल आदि पंचायतों के लोग सक्रिय रहे.
महायज्ञ का मुख्य आयोजन कुरूड़ स्थापना थी. कुरूड़ किसी भी देव प्रतिमा या देवालय के मुकुट को कहा जाता है. कुरूड़ के बिना देव प्रतिमा या देवालय को अधूरा माना जाता है. ठीक इसी तरह देवभूमि में किसी भी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक कुरुड़ स्थापना न हो जाए. मुख्य मंदिर के शीर्ष पर कुरुड़ स्थापना की जाती है. कुरूड़ स्थापना के बाद ही मंदिर का कार्य संपन्न माना जाता है. शिरगुल महाराज के नवनिर्मित मंदिर में भी ऐतिहासिक महायज्ञ के दौरान इसी परंपरा को पूर्ण किया गया.
शिरगुल महाराज के पवित्र स्थल पर 'शांत महायज्ञ' का साक्षी बनने के बड़ी संख्या में स्थानीय देवता भी पहुंचे. देर रात तक भी श्रद्धालु घने जंगल में देव पालकियों को लिए शिरगुल महाराज का गुणगान करते चढ़ते रहे. इस अवसर पर गोगापीर जी महाराज की पालकी भी पहुंची। गोगा पीर जी को शिरगुल महाराज का मित्र माना जाता हैं. 11 अक्टूबर की सुबह तक ये सिलसिला चलता रहा. इसी बीच परपंराओं के अनुसार देव पालकियो को कालाबाग में कुरुड़ के दर्शनों के लिए रखा गया.
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ऐतिहासिक महायज्ञ को पूरा करने के लिए शिमला और सिरमौर प्रशासन में व्यापक स्तर पर इंतजाम किए थे. पुलिस के साथ-साथ कई सरकारी कर्मचारी व्यवस्था बनाने में जुटे थे. देव पालकियों व कुरुड़ के दर्शनों के लिए हजारों श्रद्धालु चोटी पर चारों और बैठे रहे. पुख्ता प्रशासनिक इंतजामों के चलते भव्य आयोजन में कोई अव्यवस्था नहीं हुई.
चुरधार में समूचा वातावरण भक्ति रस में डूबा रहा. भक्तों को भव्य धार्मिक आयोजन में दैव्य शक्ति का अहसास होना नई बात नहीं है. मंदिर परिसर में देवताओं के आगमन के साथ वातावरण बेहद भक्तिमय हो गया. हवन, पूजा-पाठ व मंत्रों की ध्वनि से पूरी घाटी गुंजायमान रही. कार्यक्रम में भक्ति संगीत भी चलते रहे. श्रद्धालु छोटी-छोटी मंडलियां बनाकर शिरगुल महाराज का गुणगान करते रहे. इसके साथ ही कई लोगों में देवता की खेल भी देखने को मिली.
यह धार्मिक आयोजन न केवल आस्था और परंपरा का प्रतीक था, बल्कि स्थानीय संस्कृति और लोगों के समर्पण को भी दर्शाता है. श्रद्धालुओं और सेवकों के सामूहिक प्रयासों से यह आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ.
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