Birth Anniversary: 'ग़ुर्बतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत है बहुत' बशीर बद्र की शायरी
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Birth Anniversary: 'ग़ुर्बतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत है बहुत' बशीर बद्र की शायरी

Bashir Badr Birth Anniversary: बशीर बद्र की कामयाबी का एक राज़ यह भी है कि उन्होंने अरबी फ़ारसी वाली दबीज़ उर्दू के बजाय आम अवाम वाली ठेठ उर्दू ज़बान को अपनाया. उनके अश्आर में गांव और क़स्बात की सोंधी-सोंधी मिट्टी की महक भी है और शहरी ज़िंदगी के तल्ख़ हक़ायक़ की संगीनी भी. 

बशीर बद्र

Bashir Badr Birth Anniversary: डाक्टर बशीर बद्र आज उर्दू के सबसे बड़े शायरों में शुमार होते हैं. उनकी शोहरत और मक़बूलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उर्दू ज़बान के अलावा हिन्दी ज़बान के जानने वाले लोग भी बशीर बद्र की शायरी से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं. देवनागरी लिपि में तक़रीबन 15 किताबें उनकी मक़बूलियत का सबूत हैं. ग़ालिब के बाद ग़ैर-उर्दू-दां तब्क़े में सबसे ज़्यादा मा'रूफ़ व मक़बूल शायर बशीर बद्र ही हैं. 

बशीर बद्र (सैय्यद मुहम्मद बशीर) की पैदाइश 15 फरवरी 1935 को हुई थी. उनकी जाये पैदाइश के बारे में इख़तिलाफ़ है. कहीं फ़ैज़ाबाद का ज़िक्र है तो कहीं कानपुर लिखा हुआ है. उनके अदबी कारनामों के एवज़ में भारत सरकार ने उन्हें पदमश्री के ख़िताब से नवाज़ा. उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड भी हासिल हुआ. बशीर बद्र के कलाम के 6 मजमूए - इकाई, इमेज, आमद, आस, आसमान और आहट प्रकाशित हो चुके हैं. आज भी माशा अल्लाह वो बाहयात हैं लेकिन शदीद बीमारी डिमेंशिया/पार्किंसन/अल्झाइमर के शिकार हैं और भोपाल में ज़ेरे क़याम हैं. उम्र बढ़ने के साथ उनकी याददाश्त कमज़ोर होती चली गई और आख़िरकार वो सब कुछ भूल चुके हैं. अब उनको यह भी याद न रहा कि कभी उनकी शिरकत मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत हुआ करती थी.

बशीर बद्र का ज़ाहिरी सरापा उनकी पुरकशिश शख़्सियत और उनकी दिलचस्प व दिल अफ़रोज़ शबनमी गुफ़्तुगू अपने मुख़ातिब को अव्वलीन मुलाक़ात में ही अपना गर्वीदा बना लेती है.

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ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे 
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे

उनका हंस-हंस कर शे'र कहना उनके कलाम के हुस्न को दोबाला कर देता है. बशीर बद्र अपनी ज़ात से एक दिलनवाज़ शख़्सियत के मालिक भी हैं. ख़ुलूस, मुहब्बत और सादालुही उनके किरदार का अहम हिस्सा हैं. 

सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है 
बा-वज़ू हो के भी छूते हुए डर लगता है 

मैं तेरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ 
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है 

बुत भी रक्खे हैं नमाज़ें भी अदा होती हैं 
दिल मेरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है

जहां तक फ़न्नी महारतों का तक़ाज़ा है वह एक ज़हीन फ़नकार हैं. उनकी इस क़ाबिल-ए-रश्क शोहरत और मक़बूलियत के ताने बाने में उनकी उस ज़ेहानत के रेशमी धागों को भी देखा जा सकता है जो बुनियादी तौर पर अवामी नफ़्सियात के तारों को इस तरह छेड़ते हैं कि किसी जलतरंग की सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है. 

तुम्हारी चाल की आहिस्तगी के लहजे में 
सुख़न से दिल को मसलने का काम लेना है 

नहीं मैं 'मीर' के दर पर कभी नहीं जाता 
मुझे ख़ुदा से ग़ज़ल का कलाम लेना है

बशीर बद्र की ग़ज़लों की एक बड़ी ख़ूबी यह है कि तत्कालिक समस्याएं चाहे कितनी भी गंभीर क्यूँ न हों, चाहे किसी भी प्रारूप की क्यूँ न हों, वह जमालियाती लिबास में ख़ुश्असलोबी के साथ ढले होते हैं.

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में 

बशीर बद्र मख़मली एहसासात और नाज़ुक जज़्बात के शायर हैं. यही वजह है कि उनका शे'री सरमाया ग़ज़लों पर मुस्तमिल है.

मेरे दिल की राख कुरेद मत इसे मुस्कुरा के हवा न दे 
ये चराग़ फिर भी चराग़ है कहीं तेरा हाथ जला न दे

मेरे साथ चलने के शौक़ में बड़ी धूप सर पे उठाएगा 
तेरा नाक नक़्शा है मोम का कहीं ग़म की आग घुला न दे

बशीर बद्र ने ज़िंदगी की धूप भी देखी और चांदनी भी. उनका दामन आग से भी आश्ना है और फुलों से भी, जिसका इज़हार उनकी ग़ज़लों में ग़ैरमामूली शिद्दत और कसरत से पाया जाता है. इसलिए उन्हें ज़िंदगी की धूप और एहसास के फुलों का शायर कहा जाता है. वो महबूब का हुस्न हो या कायनात की कोई भी ख़ूबसूरती, बशीर बद्र ने उनका बयान उस अंदाज़ में किया है जो पूर्व और समकालीन शायरों से बिल्कुल अलग है. 

मेरी ग़ज़ल की तरह उस की भी हुकूमत है 
तमाम मुल्क में वो सब से ख़ूबसूरत है

उनके अशआर महज़ एक वारदात नहीं बल्कि एक कहानी बयान करते हैं जिन पर अफ़सानों की बारीक नक़ाब पड़ी होती है.

ख़ानदानी रिश्तों में अक्सर रक़ाबत है बहुत 
घर से निकलो तो ये दुनिया ख़ूबसूरत है बहुत

धूप की चादर मेरे सूरज से कहना भेज दे 
ग़ुर्बतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत है बहुत

बशीर बद्र की कामयाबी का एक राज़ यह भी है कि उन्होंने अरबी फ़ारसी वाली दबीज़ उर्दू के बजाय आम अवाम वाली ठेठ उर्दू ज़बान को अपनाया. उनके अश्आर में गांव और क़स्बात की सोंधी-सोंधी मिट्टी की महक भी है और शहरी ज़िंदगी के तल्ख़ हक़ायक़ की संगीनी भी. 

फूल सी बच्ची ने मेरे हाथ से छीना ग्लास
आज अम्मी की तरह वह पूरी औरत सी लगी

आख़िरी बेटी की शादी कर के सोई रात भर 
सुब्ह बच्चों की तरह वह ख़ूबसूरत सी लगी 

रोटियाँ कच्ची पकीं कपड़े बहुत गंदे धुले 
मुझको पाकिस्तान की इसमें शरारत सी लगी 

अब्दुल गफ्फ़ार
लेखक साहित्यकार और स्क्रिप्ट राइटर हैं.

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