इस्लाम धर्म में ब्याज लेने-देने और इससे जुड़े किसी भी काम को करने से रोका गया है. ऐसे में ब्याज की रकम देकर किश्तों में किसी सामान की खरीदारी करने को भी उचित नहीं माना गया है, जबकि ब्याज रहित किश्तों में की गई खरीदारी को सही बताया गया है.
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नई दिल्लीः आजकल अगर लोगों के पास एक मुश्त पैसे देकर किसी चीज को खरीदने की ताकत नहीं होती है, तो वह बैंक से लोन लेकर अपने पसंद या जरूरत की चीजें खरीद लेते हैं. कई बार इस तरह की सुविधाएं जहां ग्राहकों के लिए सहूलत लेकर आती है, वहीं ये कुछ लोगों के लिए ये जी का जंजाल बन जाती है. वक्त पर पैसे न चुकाने से ब्याज की रकम बढ़ती जाती है और जुर्माना अलग से भरना पड़ जाता है.
ब्याज लेना और देना दोनों नाजायज
इस्लाम धर्म में ब्याज लेने और देने दोनों से मना किया गया है. ब्याज का किसी तरह का कारोबार करने या फिर ब्याज की रकम के साथ माल की खरीद-बिक्री दोनों को हराम करार दिया गया है, और इससे लोगों को बचने की सलाह दी गई है. इसकी वजह है कि इस्लाम ब्याज को सामाजिक और अर्थिक शोषण और भ्रष्टाचार का एक जरिया मानता है. इसलिए लोगों को ब्याज लेने और देने से हतोत्साहित किया गया है.
ब्याज रहित किश्तों पर खरीदारी है जायज
मुफ्ती इराफान अहमद कहते हैं, "किश्त पर सामान खरीदने की दो किस्में हैं. अगर आप किसी मंहगी सामान को इसके बेचने वाले से पहले से इस बात का करार कर खरीदते हैं कि आप इसका पैसा किश्तों में अदा करेंगे और इसमें कोई ब्याज या किश्त की अदायगी फेल होने पर कोई जुर्माना वसूल नहीं किया जाएगा, तो इस सूरत में किश्त पर कोई सामान खरीदने में कोई हर्ज नहीं है. जैसे- आप किसी दुकानदार या अमेजन या किसी अन्य ई-कॉमर्स कंपनी से कोई 5 हजार का सामान खरीदते हैं और इसे पांच किश्तों में 1-1 हजार रूपये अदा करते हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. ऐसा करना हर लिहाज से जायज है.
ब्याज देकर बैंक से फिनांस करना है नाजायज
वहीं, अगर कोई इंसान एक लाख रुयये की कीमत की कोई बाइक किसी बैंक से फिनांस कराता है और बैंक उस बाइक की असली कीमत के बदले में 1.25 लाख रुपये वसूल करती है, तो इसे ब्याज माना जाएगा. इस तरह से फिनांस कराई गई चीजों पर वक्त पर किश्तों की अदायगी नहीं करने पर बैंक पेनाल्टी के नाम पर भी पैसे वसूल करती है. मुफ्ती इरफान अहम कहते हैं, "इस तरह की खरीदारी करना इस्लामी नजरिए से दुरुस्त नहीं है, क्योंकि इसमें ब्याज की रकम शामिल है. ग्राहक को ब्याज अदा करना होता है. "
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