Urdu Day: आजादी की जंग में उर्दू के इंकलाबी नारों ने फूंकी थी नई जान, पढ़ें खास रिपोर्ट
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Urdu Day: आजादी की जंग में उर्दू के इंकलाबी नारों ने फूंकी थी नई जान, पढ़ें खास रिपोर्ट

उर्दू अख़बारों, रिसालों और मुजल्लो नें तहरीके आज़ादी की तब्लीग़ में अहम किरदार अदा किया...क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तान में उर्दू जानने वालों की तादाद ज़्यादा भी. 

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सैय्यद अब्बास मेहदी रिज़वी: आज यौमे उर्दू है. दुनिया की सबसे शीरीं जबीन कही जाने वाली उर्दू का नाम सुनते ही एक तहजीब का अहसास होने लगता है. इस ज़बान को पसंद करने और चाहने वालों की तादाद में दिन ब दिन इजाफा होता चला जा रहा है. उर्दू जबान में ना सिर्फ हिंदुस्तान सकाफत झलकती है बल्कि इसका आजादी की लड़ाई में अहम किरदार रहा है. जंगे आज़ादी में उर्दू नें भी अपना किरदार अदा किया. उर्दू ज़बान नें अपने नारे और शेर दिए जिसे पढ़कर और सुनकर हज़ारों हिंदुस्तानियों में जज़्बए आज़ादी जोश मारने लगा. रगों में इंक़ेलाब पैदा हुआ और इंक़ेलाब ज़िंदा बाद कह कर वतन के लिए जंगे आज़ादी में तन मन और धन के साथ कूद पड़े...उर्दू अख़बारों, रिसालों और मुजल्लो नें तहरीके आज़ादी की तब्लीग़ में अहम किरदार अदा किया...क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तान में उर्दू जानने वालों की तादाद ज़्यादा भी. इंक़ेलाब ज़िंदाबाद जैसा लाफ़ानी नारा इसी ज़बान में दिया गया. उर्दू शायरो अदीबों और सहाफ़ियों नें अपनी जाने हुसूले आज़ादी के लिए क़ुर्बान की. बाहदुर शाह ज़फ़र से लेकर हसरत मोहानी और मौलाना आज़ाद तक जांफ़ेशानियों का सिलसिला जारी रहा. बाहदुर शाह ज़फ़र को मुल्क बदर की सज़ा मिली तो हसरत मोहानी और मौलाना आज़ाद को क़ैदो बंद की ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी.

है कितना बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार मे 

उर्दू शायरों अदीबों और सहाफ़ीयों नें अंग्रजों के ज़ुल्मों सितम बर्दाश्त किए
बहुत से उर्दू शायरों अदीबों और सहाफ़ीयों नें अंग्रजों के ज़ुल्मों सितम बर्दाश्त किए. उर्दू के अज़ीम शायर मौलवी मोहम्मद बाक़र को तो अंग्रेज़ों ने मुतालबए आज़ादी के लिए सरेआम गोली मार दी. मौलवी मोहम्मद बाक़र सहाफ़ी थे और अपने अख़बार से तहरीके आज़ादी की तब्लीग़ और तशहीर कर रहे थे. तहरीके आज़ादी को पाए तकमील तक पंहुचाने के लिए ज़बाने उर्दू ने एक के बाद एक अपने जियाले वतन पर निछावर किए. पौने दो सौ बरस तवील तहरीके आज़ादी की दास्तान में उर्दू और उसकी औलादों की कहानी सुनहरे हुरुफ़ में दर्ज हैं. उर्दू अदीबों और सहाफ़ियों के सर क़लम होते रहे लेकिन कटते सरों से बहते लहू को रौशनाई बनाकर इंक़ेलाब की कहानी लिखने का सिलसला न रुका न थमा. बड़ी से बड़ी ताक़तों आफ़त के सामने न सर झुका न क़लम रुका. 

उर्दू शायरों अदीबों और सहाफ़ियों ने आज़ादी का दर्स दिया 
उर्दू सहाफ़ियों अदीबों और शायरों की शहादत, सज़ाए क़ैदो मशक़्क़त की दास्तान तूलो तवील है. उस दौर में उर्दू अख़बारात आज़ादी की जंग तो लड़ ही रहे थे. साथ ही अवाम को भी इस काम के लिए तैय्यार कर रहे थे. जंगे आज़ादी में उर्दू के किरदार को भला कैसे फ़रामोश किया जा सकता है और उर्दू सहाफ़त नें हमें दर्स दिया है कि 

ख़ींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो

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