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दयाशंकर मिश्र
हम उदासी, अवसाद के नए मुकाम तक पहुंच गए हैं. फेसबुक और इंस्टाग्राम पर पोस्ट की गई तस्वीरों के विश्लेषण से पता लगाया जा रहा है कि हम अवसाद में हैं या नहीं. एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी के रिसर्चर क्रिस्टोफर डेनफोर्थ ने इस तरह के दावे किए हैं. जिसमें रंग के आधार पर तस्वीरों को मन: स्थित से सीधे जोड़ा जा रहा है.
दुनिया में हमारी पहचान एक 'घरेलू' समाज की है. देश जहां लोगों में सामाजिकता, घरोपा दूसरे देशों के मुकाबले अधिक है. विविधता और सुकून, संतोष यहां जीवनशैली रहे हैं. कम संसाधनों के बीच भी हम एक दूसरे के लिए उपलब्ध रहे हैं. कभी हमने सोचा भी नहीं था कि भारत में भी लोग सड़क हादसे में मर रहे लोगों की मदद करने की जगह उनका वीडियो अपलोड करने में लगे रहेंगे. छोटे-छोटे शहरों में लोग फेसबुक पर आत्महत्या करने लगेंगे. आत्महत्या भी लाइव (Live) हो जाएगी. एक सामाजिक देश का ऐसा चेहरा!
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भारत में आत्महत्या, उदासी का रंग कभी गहरा नहीं था. लेकिन यह खतरा अचानक बाढ़ के पानी की तरह हमारे जीवन में घुस गया है. दूषित पानी को समय रहते रास्ता न मिला तो यह महामारी की वजह बनेगा. जब भी हम खुद से दूर होते हैं. इस दूरी को हम किसी न किसी चीज से भरने की कोशिश करते हैं. हम घर से दूर होते हैं, तो नए लोगों से मिलकर दोस्ती की कोशिश करते हैं. दोस्तों से दूर होते हैं तो अजनबी की ओर जाते हैं. हम शून्यता की स्थिति में नहीं रह सकते. वैक्यूम भरने के लिए हम किसी न किसी की खोज कर ही लेते हैं. यह जो हम जल्दी में खोज लेते हैं. अक्सर बाद में हमारी परेशानी का कारण बनता है. चाहे रिश्ते हों या फिर टेक्नॉलाजी. मनुष्य का विकल्प मनुष्य है. विज्ञान नहीं. जैसे बारिश में भीगने के आनंद की तुलना शॉवर से नहीं की जा सकती. ठीक वैसे ही एक दूसरे से मिलने, संवाद की तुलना वर्चुअल चैट से संभव नहीं है. दोनों एकदम अलग बाते हैं.
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जरा अपने आसपास देखिए. जब से हम सोशल मीडिया पर 'सोशल' हुए, दोस्तों, परिवार के साथ 'क्वालिटी' टाइम कम हो गया. इस कमी के रास्ते से चलकर ही उदासी, अवसाद जिंदगी में आए. हर दिन हम तनाव के नए मामले सामने आ रहे हैं. पहले शायद ही हम कभी बच्चों से टेंशन, तनाव के बारे में कुछ सुनते थे. आज स्कूल जाने वाला हर तीसरा बच्चा तनाव, टेंशन जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहा है. उसे मोबाइल गेम न मिले तो उसे तनाव हो सकता है. स्मार्टफोन न मिलने की बात पर बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं. गुस्से में भेजे गए एसएमएस और संदेश तनाव दे रहे हैं. लाखों युवा हर दूसरे मिनट मोबाइल टटोलने की बीमारी से परेशान हैं. ऐसे युवा भी करोड़ों में है, जो देर रात तक चैटिंग का मिशन पूरा करने के चक्कर में नींद की कमी, स्लिपिंग डिसऑर्डर से गुजर रहे हैं.
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और हम गर्व करते है कि हम युवा देश हैं. ऐसे युवा जो खुद डिसआर्डर से गुजर रहे हों. कैसी दुनिया बनाएंगे. हम आज इस बात को मजाक में उड़ा सकते हैं, लेकिन कुछ ही सालों में हमें हमारे आसपास यह युवा रोबोट की शक्ल में नजर आएंगे. भावना से शून्य. संवेदना से रिक्त. ऐसे 'सोशल' युवा समाज का हम क्या करेंगे, जिसमें अपने पड़ोस तो दूर परिवार, दोस्त के लिए संवेदना बस 'लाइक', ' ट्वीट' और 'रि-ट्वीट' तक सिमट कर रह जाएगी.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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