सुखी असल में वही है, जो खुद में अपने को स्थित किए हुए है. स्वयं को अपने में सीमित करना कुछ वैसा ही है, जैसा यह कहते रहना कि मैं सरल हूं, लेकिन असल में हमारे आसपास सरल व्यक्ति लाखों में कोई एक होता है.
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अगर एक शब्द में कहा जाए कि जिंदगी को सबसे अधिक कष्ट कहां से मिलता है, तो उत्तर एकदम स्पष्ट होगा... 'तुलना'. इस एक शब्द से अधिक हमारा नुकसान किसी ने नहीं किया है. आगे भी मनुष्यता को इसके जितना कष्ट किसी और से मिलने की उम्मीद बहुत कम है. इसके बिना जीवन कितना सुखद हो सकता है, यह कम से कम इस समय तो कल्पना से परे है, क्योंकि हमारी संपूर्ण चेतना ही तुलना से चिपकी है.
सुखी असल में वही है, जो खुद में अपने को स्थित किए हुए है. स्वयं को अपने में सीमित करना कुछ वैसा ही है, जैसा यह कहते रहना कि मैं सरल हूं, लेकिन असल में हमारे आसपास सरल व्यक्ति लाखों में कोई एक होता है. सरल वही है, जो खुद में समाया है. जिसने जीवन के सहज गुण को आत्मसात कर लिया है. जो किंतु, परंतु, ऐसा, वैसा से परे है, वही सरल है. जिसने जीवन और खुद को एक कर लिया है, वही सरल हो सकता है. उसका दिमाग ही स्पष्ट हो सकता है.
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अब आइए, अपने वाक्यों पर, जो हम रटे-रटाए तरीके से बोलते रहते हैं. ऐसे ही वाक्य की ओर शायद आपका ध्यान न गया हो, लेकिन ऐसा होना मुश्किल है कि आपने कभी उसे सुना न हो. मज़ेदार बात यह है कि इसका उपयोग दोनों करते हैं. वह जिनके घर में बेटा-बेटी दोनों हैं. दूसरा वह, जिनके घर में बेटियां ही हैं.
दोनों जगह हमें सुनने को मिलता है कि हमारी बेटी, बेटों जैसी है. हमारी बेटी, बेटों से बढ़कर है. बेटियां बेटों से कम नहीं होतीं. हमारे शब्द केवल शब्द नहीं होते. उससे आगे वह, हमारी भावना होते हैं. हमारी चिंतन प्रणाली का आइना होते हैं.
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हम कैसे सोचते, निर्णय लेते हैं, इसकी झलक हमारे शब्दों से बेहतर और कहीं नहीं मिलती. तो जाहिर तौर पर यह शब्द बताते हैं कि हमारे दिमाग बेटों की श्रेष्ठता से भरे हुए हैं. दिमाग में पहले बेटा श्रेष्ठ है, जरूरी है, अनिवार्य है. इसलिए वह आगे है. हम नारे कितने ही गढ़ लें, लेकिन भारत विशेषकर उत्तर भारत में हम अभी भी बेटियों की बराबरी के मामले में बहुत पीछे हैं. उसका अभी लंबी दूरी की यात्रा तय करना बाकी है.
हर दिन की जिंदगी में बच्चों के साथ संवाद में बोले जाने वाले शब्द हम कथित बड़ों के लिए आदत का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन यही शब्द तो आगे चलकर बच्चे का मनोविज्ञान तय करने में निर्णायक साबित होते हैं. बच्चों को बचपन से तैयार न कर पाने के कारण ही तो हमारे आसपास बेटे और बेटी की बराबरी को लेकर संकट खड़ा हुआ है.
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आपने ऐसे अनेक परिवार देखे होंगे, जहां बड़ी बहनें छोटे भाई को भैया कहकर बुलाती हैं, क्योंकि उससे पहले उनकी मां ने भी यही किया होगा. यह भी कुछ हद तक संभव है कि उनके पिता जी ने यही 'सुख' लिया हो.
पहली नजर में यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचेंगे, तो संभव है, बात मन के भीतर तक जाए. हम अपने शब्दों, भाषा, विचार के बिना तो बस 'रोबोट' बनकर रह जाएंगे.
इसलिए, जिंदगी के प्रति नवीन रवैया अपनाइए. जो हो रहा है, जैसा होता आया है, उसी का हिस्सा बनकर हम मनुष्य होने के बुनियादी नियम का उल्लंघन कर रहे हैं. हम अपने आसपास क्या हस्तक्षेप कर रहे हैं, यह एक सामान्य प्रश्न है, जो हमें खुद से करना ही चाहिए.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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