डियर जिंदगी : अपने हिस्‍से का सुख चुनते हुए…
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डियर जिंदगी : अपने हिस्‍से का सुख चुनते हुए…

हम पहले प्रकृति के विरुद्ध व्‍यवहार करते हैं, उसके बाद मनी प्‍लांट लगाकर उसके साथ होने का अभिनय करते हैं.

डियर जिंदगी : अपने हिस्‍से का सुख चुनते हुए…

'सुख चाहो तो सुख दो'. बचपन में नैतिक शिक्षा के जो स्‍लोगन हमें याद कराए जाते थे, यह उनमें सबसे लोकप्रिय था. अजीब बात है कि जो चीज़ें हमें बचपन में सिखाई जाती हैं, बड़े होकर हमें उनके साथ होना चाहिए, लेकिन 'कथित' बड़े होते ही हम इन सीखों से चिढ़ने लगते हैं. जिंदगी के लिए हम जो नींव डालते हैं, जैसे ही उस पर इमारत बनाने की बात आती है, हम उस नींव से ही किनारा कर लेते हैं.

हम जिंदगी की इमारत एक नई नींव पर बनाने की चेष्‍टा में जुट जाते हैं. जब नींव नई होगी तो भवन भी नया होगा. यह कुछ-कुछ ऐसा है कि हम पहले ऐसे घर बनाते हैं, जिनमें हवा, रोशनी आसानी से प्रवेश न कर सके. उसके बाद घरों में ठंडक के लिए बड़े-बड़े एसी लगाकर चैन की नींद तलाशते हैं. कुल मिलाकर हम पहले प्रकृति के विरुद्ध व्‍यवहार करते हैं, उसके बाद मनी प्‍लांट लगाकर उसके साथ होने का अभिनय करते हैं.

हम जो चाहते हैं और जो करते हैं, उनमें इतना विरोधाभास है कि चाहतों का पूरा होना असंभव जैसा है. आपको जिस दिशा की बस पकड़नी है, अगर आप विपरीत दिशा में हैं, तो शानदार सुविधा वाली बस भी आपको वहां नहीं पहुंचा सकती, जहां आप जाना चाहते हैं.

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हम भारतीय जिनके जीवन दर्शन में सब कुछ दीर्घ अवधि का था, अनायास ही हम 'शॉर्ट टर्म' की ओर भागने लगे. सब कुछ जल्‍दी चाहिए. संभवत: जल्‍दी भी इस भावना के लिए सही शब्‍द नहीं है. इसके लिए उचित शब्‍द 'तुरंत' है, जैसे ही इच्‍छा हो, कर गुजरिए!

सेब के पेड़ पर फल आने में पांच से सात बरस लगते हैं, जबकि गुलाब तो कुछ महीने में तैयार हो जाता है. अब समस्‍या यह है कि हम गुलाब के समय में सेब की चाहत रखते हैं. चाहत ही नहीं, उसके लिए बेकरार हुए जा रहे हैं. अपनी आंखों की नींद, दिल का सुकून, सब कुछ असंगत चाहत के लिए कुर्बान किए जा रहे हैं.

यह जो बातें हम कर रहे हैं, उन्‍हें अगर आप थ्‍योरी कहते हैं, जो जीवन में अहम निर्णय के समय काम आने वाला एक सूत्र आपसे साझा करता हूं. यह छोटी कहानी सार रूप में यहां पेश की गई है. यह श्री रावी के लघुकथा संग्रह 'मेरे कथागुरु का कहना है' से ली गई है. कहानी का नाम 'सुमति का स्‍वामी' है.

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नगर सेठ की बेटी सुमति विवाह योग्‍य थी. उसके ज्ञान, सौंदर्य की चर्चा सब ओर हो रही थी. इस बीच उसने स्‍वयंवर का निर्णय लिया. उसने पहले चरण में सात युवाओं को चुना. इनमें से ही किसी एक को जीवनसाथी चुना जाना था, लेकिन उसके पहले एक परीक्षा होनी थी.

सुमति को बाग-बगीचों से बड़ा प्रेम था. उसने पिता से कहकर शहर से दूर एक बड़ा बाग खरीदा. उम्‍मीदवारों से इस बाग में महल का निर्माण करने को कहा गया. सर्वश्रेष्‍ठ महल बनाने वाले से सुमति के विवाह का फैसला हुआ. अंत में वह दिन आया. महल तैयार हो गए. सात में से छह उम्‍मीदवारों ने बहुमंजिला भवन बनाए. केवल एक ने एक मंजिला भवन बनाया.

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सुमति ने एक मंजिला महल बनाने वाले के गले में वरमाला डाल दी. यह निर्णय बाकी छह को समझ नहीं आया. उन्‍होंने इसके विरुद्ध अदालत में अपील की. वहां सुमति को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया. सुमति ने सधी आवाज में कहा, 'छह युवकों ने महल बनाते समय, इस बात का कोई ध्‍यान नहीं रखा कि उनके महल का दूसरों पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा. यह भवन नि:संदेह आकर्षक, विशाल और सुंदर हैं, लेकिन इनके निर्माण के समय बाग के पेड़-पौधों, पर्यावास का कोई ख्‍याल नहीं किया. जमकर पेड़-पौधे काटे, जबकि एक मंजिला भवन बनाने वाले ने बाग के मूल स्‍वरूप को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया. उसमें हवा, रोशनी के इंतजाम बेहद खूबसूरती, नजाकत के साथ किए गए हैं. इन सबके साथ उसमें पर्याप्‍त जगह भी है. इसलिए मेरा निर्णय उसके पक्ष में गया.' अदालत ने सुमति के रवैए, उसकी समझ को स्‍वीकार किया.

हम वह गलती कर रहे हैं, जो सुमति ने इस कहानी में नहीं की. जबकि उसके सामने बड़े विकल्‍प थे. बड़ा लालच था, लेकिन उसने जीवन को संपूर्णता में समझा. उसने निजी जिंदगी के फैसले में प्रकृति को शामिल किया, जबकि हम प्रकृति से हर दिन दूर होकर उसकी तलाश कर रहे हैं.

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जीवन में असमय, अकारण तनाव की छाया और आत्‍महत्‍या का संकट इसीलिए गहरा रहा है, क्‍योंकि हम जिंदगी को एकतरफा बनाने पर आमादा हैं. उस लक्ष्‍य के लिए जीवन के सुख दांव पर लगा रहे हैं, जिसे हमने कभी चाहा ही नहीं.

हां, दूसरों की नकल, अभिलाषा के चक्रव्‍यूह में उन रास्‍तों को चुन लिया, जो हमारे मिजाज से मेल ही नहीं खाते.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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